मैं चाहे जो लिखूँ-बोलूँ, मेरी मर्जी: बालसुलभ तर्कों से लैस इतिहास्य-कार, आरफा खानुम महज झाँकी है

आरफा खानुम का बामियान पर 'दिव्य ज्ञान'

तथाकथित लिबरलों की तमाम विशेषताओं में एक विशेषता होती है बिना किसी हिचक के कुतर्क कर लेना। कुतर्क करने में जो निपुणता लिबरल समाज साल छह महीनों की प्रैक्टिस से हासिल कर लेता है, वैसी निपुणता कोई रूढ़िवादी समाज वर्षों की तपस्या से भी प्राप्त नहीं कर सकता। इस निपुणता का ही असर है कि लिबरल आरफा खानुम ने बिना पलक झपकाए बोल डाला कि बामियान में तालिबानियों ने बुद्ध की जिन प्रतिमाओं को धमाके करके मिटा दिया था, उसके पीछे बाबरी ढाँचा का गिराया जाना ही एक कारण था। उन्होंने ये भी बताया कि ये अफगानी तालिबान किसी तथाकथित हिन्दू तालिबान से प्रेरित थे। कोई रूढ़िवादी ऐसे आत्मविश्वास से लबालब मुश्किल से ही मिलेगा जो कह सके कि क्रूरता का पाठ हिटलर ने स्टालिन से सीखा था। 

यह वैसा ही है जैसे रोमिला थापर ने एक सुबह दशकों से लॉकर में बंद यह भेद खोला था कि युधिष्ठिर ने महाभारत के युद्ध के बाद संन्यास लेने की इच्छा इसलिए जाहिर की थी क्योंकि वे सम्राट अशोक से प्रेरित थे। कल को रोमिला जी से प्रेरित कोई इतिहासकार यह भी बता सकता है कि केवल युधिष्ठिर ही सम्राट अशोक से प्रेरित नहीं थे, बल्कि भीष्म भी चाणक्य से प्रेरित थे और यही कारण था कि उन्होंने युधिष्ठिर को संन्यास न लेने की सलाह दी। कल को किसी इतिहासकार के मन में आए कि रामायण को साल 778 में लिखा गया ग्रंथ साबित करना है तो वह बता सकता है कि दशरथ पुत्र राम सम्राट हर्षवर्धन से प्रेरित थे इसलिए राजपाट त्याग कर वनवास के लिए चले गए थे। कोई इतिहासकार यह भी कह सकता है कि महाभारत का युद्ध कलिंग के युद्ध से प्रेरित था। कहना ही तो है। कुछ भी कह डालो। 

यह वैसा ही है जैसे कोई एजेंडाबाज इतिहासकार भारतीय समाज में गंगा के महत्व को झुठलाने का मन बना ले और किसी सुबह नींद से उठकर यह घोषणा कर दे कि दरअसल हम इतने वर्षों से जो मानते आए हैं कि सभ्यताएँ और नगर नदियों के किनारे बसते रहे हैं, वह सही नहीं है। कुछ बातों पर विचार करने के बाद हम निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि नदियाँ हजारों वर्षों से सभ्यताओं के किनारे-किनारे बहती रही हैं। चीफ इतिहासकार की हाँ में हाँ मिलाते हुए कोई सप्लीमेंट्री इतिहासकार कह देगा कि गंगा ने प्रयाग के बाद बहाव की अपनी दिशा इसलिए बदल दी थी क्योंकि उसे काशी के किनारे से बहना था। यह अपने आप में बहुत बड़ा सबूत है कि नदियाँ ही सदियों से नगरों के किनारे-किनारे बहना चाहती हैं। 

लिबरल आरफा खानुम का ट्वीट पढ़कर लगा जैसे कोई विद्यार्थी हाई स्कूल पास करके निकला और इतिहास की किताब लिखनी शुरू कर दी और मन बना लिया कि साबित कर देना है कि आदिकाल 1990 से शुरू होकर 1999 तक चला। ये उन यूथ से प्रेरित दिखती हैं जो 1990 के दशक की हिंदी फिल्मों को क्लासिक्स बताते हैं। ऐसे ही इतिहासकार आनेवाले समय में साबित करने की कोशिश कर सकते हैं कि बाबर ने मंदिर तोड़कर बाबरी मस्जिद नहीं बनवाई थी, बल्कि वहाँ दो हज़ार साल पुरानी एक मस्जिद की मरम्मत कर उसका नाम बाबरी रख दिया था। ऐसे ही इतिहासकार यह साबित करने की कोशिश कर सकते हैं कि ज्ञानवापी मस्जिद पाँच हज़ार वर्षों से वहीं थी, ये तो काशी के ब्राह्मण थे जिन्होंने साढ़े तीन हज़ार साल पहले उसे तोड़वा कर काशी विश्वनाथ मंदिर बनवा दिया था। इसलिए भाइयों और बहनों; स्मैश द ब्रह्मिनिकल पैट्रिआर्की! 

औरंगज़ेब ने भले कई दर्जन मंदिर तोड़वाए होंगे लेकिन इतिहासकार चाहे तो इस सच पर अपने इतिहास की कार चढ़ा कर उसे कुचल दे और साबित कर दे कि वह तो बड़ा शालीन शासक था। यह तो पहले ही कोशिश शुरू हो गई है कि यह मान लिया जाए जिन मंदिरों को उसने नहीं तोड़ा, इसका अर्थ है कि उन मंदिरों की उसने रक्षा की। वैसे भी उसे पहले ही बड़ा त्यागी बादशाह बताया जा चुका है। लोगों के दिमाग पर यह टाँक दिया गया है कि औरंगज़ेब इतनी मेहनत करता था कि टोपियाँ बना कर अपना जीवन-यापन करता था। उसने जिन टोपियों की बुनाई की, वो सारी हमारे इतिहासकारों को दे गया ताकि ये ‘इतिहास्य-कार’ वही टोपियाँ हम भारतीयों को पहना सकें। ‘पिलान’ के मुताबिक ये देसी इतिहासकार यदि ऐसा कर पाने में असफल रहे तो फिर विदेशी तो हैं ही। विदेशी इतिहासकार बोलते हैं तो किसी और को बोलने नहीं देते। ऐसे में इनके लिए अपने सच की दही जमाने में सुभीता हो जाता है। 

आरफा जी की मानें तो अफगानी तालिबान बलोचिस्तान, खैबर, पकिस्तान, सिंध, पंजाब, कश्मीर वगैरह में तोड़े गए मंदिरों से प्रेरणा नहीं ले सके और बेचारों को प्रेरणा के लिए अयोध्या तक आना पड़ा। ऊपर से हालत यह कि बेचारे मस्जिद तोड़े जाने का इंतज़ार करते रहे, वो भी इतना लंबा इंतज़ार। कल को आरफा जी यदि यह कह दें कि बग़दादी ने बग़दादी बनने का फैसला गुजरात के दंगों के बाद किया तो आश्चर्य नहीं होगा। वैसे इन्होंने व्यक्तियों और अखबारों को प्रेरणा देना शुरू कर दिया है। कल एक अखबार का हेडलाइन देखा।  लिखा था; मलयाली इंजीनियर ISIS के लिए लड़ते हुए मर गया। पढ़कर लगा जैसे ISIS उसकी बनाई कोई मशीन है जिसकी रक्षा करते हुए इंजीनियर ने अपने प्राण त्याग दिए। 

बालसुलभ तर्कों से लैस इतिहास्य-कार विचार, इतिहास और वैचारिक इतिहास पर कब्ज़ा करने की इच्छा रखते हैं।