कोसी का ऊँट किस करवट बैठैगा इस बार? जहाँ से बनती-बिगड़ती है बिहार की सरकार… बाढ़ का मुद्दा किसके साथ?

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार (फाइल फोटो)

बिहार को अगर #राजनीति_की_प्रयोगशाला कहते हैं, तो बिहार की राजनीति की दशा को कोसी के घटवार तय करते हैं। आजादी के बाद से ही बिहार का कोसी प्रमंडल तय करता रहा है कि सत्ता की बागडोर किसके हाथ में जाएगी। शुरुआती कॉन्ग्रेसी दौर में ये कोई बड़ा सवाल नहीं होता था, लेकिन 1990 आते-आते हवा बदली और जनता पार्टी ने भी बिहार की राजनीति में अपनी जगह बना ली थी।

तब से अब तक का दौर देखें तो ये भी कहा जा सकता है कि सहरसा सीट से जो दल जीता, बिहार में सरकार भी उसी दल ने बनाई। कोसी प्रमंडल को जिलों के हिसाब से देखें तो यहाँ सहरसा, सुपौल और मधेपुरा- 3 जिले होंगे। इनमें सहरसा में 4 (सहरसा, सिमरी बख्तियारपुर, महिषी और सोनवर्षा) सीटें, सुपौल में 5 (सुपौल, त्रिवेणीगंज, छातापुर, निर्मली, पिपरा) तथा मधेपुरा में 4 (मधेपुरा, सिंघेश्वर, आलमनगर, बिहारीगंज) विधानसभा सीटें होती हैं।

इस तरह कोसी प्रमंडल से कुल 13 विधायक विधानसभा पहुँचते हैं। राजनैतिक रूप से ये इलाका कितना सक्रिय है, इसका अनुमान लगाना हो तो सहरसा जिले की केवल सहरसा विधानसभा सीट से 2015 में 16 उम्मीदवारों ने पर्चा दाखिल किया, 2 की उम्मीदवारी रद्द हुई और लड़ने वाले 14 में से 12 की जमानत जब्त हो गई थी। गठबंधनों के लिहाज से राजग गठबंधन में भाजपा इस इलाके में कमजोर दिखती है तो महागठबंधन में कॉन्ग्रेस कमजोर पड़ जाती है।

बिहार में क्षेत्रीय दलों (जद-यू, राजद) और राष्ट्रीय दलों (भाजपा, कॉन्ग्रेस) का आपसी समीकरण पिछले 30 वर्षों में कैसा बना है, ये भी इससे नजर आ जाता है। एनडीए से 2010 तक भाजपा को सिर्फ 1 सीट मिलती थी, इस इलाके की बाकी सीटों पर जद-यू लड़ती थी। महागठबंधन की तरफ से सिमरी बख्तियारपुर से एक कॉन्ग्रेस के और बाकी सभी पर राजद के उम्मीदवार होते। अगर 2015 के चुनावी आँकड़ों को देखेंगे तो एक दो चीज़ें और भी देखने लायक होंगी।

राजनैतिक रूप से ये इलाका इतना सक्रिय है कि 13 सीटों पर लड़ने के लिए यहाँ कुल 176 उम्मीदवार तैयार थे। इनमें से महिलाओं की भगीदारी देखेंगे तो वो 8% से भी थोड़ी कम है। जनता कैसे सोचती है, इस विषय में समझना हो तो चुनाव लड़ने वालों और जमानत जब्त करवाने वालों की गिनती देखिए। नामांकन रद्द होने के कारण, कुछ उम्मीदवार लड़ नहीं पाईं , लेकिन जो चुनावी दंगल में उतरीं, उनमें से केवल 2 के बीच ही मुकाबला रहा।

शेष सभी जमानतें जब्त करवा बैठे! उपचुनाव (2019) में सिमरी बख्तियारपुर पर राजद का कब्ज़ा हुआ और छातापुर की सीट भाजपा के हिस्से में आ गई है। महत्व के हिसाब से देखें तो मधेपुरा सीट का नाम इसलिए जाना-पहचाना होता है क्योंकि मधेपुरा की सीट से लालू यादव और शरद यादव जैसे नेता उतरते रहे हैं। “रोटी के साथ राम” का नारा देने वाले और अयोध्या राम मंदिर का शिलान्यास करने वाले भाजपा के दलित नेता कामेश्वर चौपाल 2014 में सुपौल की लोकसभा सीट से लड़े थे।

एक दौर में पूरे देश की राजनीति में हलचल लाने के लिए जिस मंडल कमीशन को याद किया जाता है, उसके मंडल सहरसा के सबसे बड़े जमींदारों में से एक हैं। पिछले चुनावों में सबसे ज्यादा मतों से हारने वाले विधायक, सहरसा के सिटिंग भाजपा विधायक ही थे।

सहरसा और कोसी में जीत का मतलब पटना में सरकार क्यों होता है, ये देखना हो तो हमें थोड़ा सा पीछे चलना होगा। जब 1990 में यहाँ से सभी सीटें जनता दल ने जीती थीं, तो सरकार भी जनता दल की बनी थी। अगले चुनावों (1995) में एक सीट (सिमरी बख्तियारपुर) कॉन्ग्रेस ने जीत ली थी और बाकी सीटों पर फिर से जनता दल का कब्ज़ा रहा।

उसके बाद जब 2000 में राजद ने इस इलाके पर परचम फहराया तो फिर से राजद की (कॉन्ग्रेस समर्थन से) सरकार बन गई। इसके बाद से (2005 के और 2010 के चुनाव में) कोसी पर राजग गठबंधन (भाजपा और जद-यू) काबिज होने लगी। इस दौर में सरकार भी नीतीश कुमार ने बनाई।

पिछले (2015) चुनावों को देखेंगे तो इसमें एक छातापुर (सुपौल जिला) की सीट तो भाजपा जीत पाई मगर बाकी पर महागठबंधन का कब्ज़ा हो गया। इस बार भाजपा और जद(यू) साथ नहीं थे बल्कि नीतीश ने लालू से हाथ मिला लिया था। सरकार भी उन्हीं की बनी, मगर बाद में संभवतः नीतीश बाबू ने “अंतरात्मा की आवाज” सुन ली और वो फिर से भाजपा के साथ आ मिले।

कोसी क्षेत्र के चुनावों में मुकाबला सीधा दो दलों का ही होता है, इस वजह से भी राजनैतिक दलों के लिए यहाँ उम्मीदवार से लेकर रणनीति तय करने तक पर विशेष ध्यान रहता है। इस बार की चुनावी हलचल शुरू होते ही इस इलाके को 500 करोड़ से ऊपर का रेल पुल दिया गया है। भाजपा और जद-यू ने इसके साथ ही अपनी मंशा इस इलाके के लिए साफ़ कर दी है। लॉकडाउन की वजह से बाहर गए मजदूरों का एक बड़ा वर्ग इस बार घर पर ही होगा।

ध्यान रहे कि पलायन के मौसम में इस क्षेत्र से इतने मजदूर पंजाब-दिल्ली की ओर जाते हैं कि दिल्ली इत्यादि से, इस इलाके को जोड़ने वाले सहरसा जंक्शन का रेवेन्यु पटना से भी ज्यादा हो जाता है। पलायन की पीड़ा के अलावा जिस बाढ़ की वजह से हर वर्ष पलायन होता है, वो भी जनता का अघोषित मुद्दा होगा।

बाढ़ राहत के नाम पर लूट के अभियोग नेताओं-अधिकारियों पर लगातार लगते रहे हैं। अभी बिहार के कई जिले बाढ़ पीड़ित ही हैं, इसलिए भी बाढ़ से निपटने के लिए सरकारों ने क्या किया, इसका जवाब देना सत्ता पक्ष के लिए मुश्किल होगा। एंटी इनकमबेंसी फैक्टर के अलावा राजद के नेता इस बात को भी भुनाएँगे कि “सुशासन बाबू” ने उनके साथ धोखा किया है।

मतदान के वक्त तो राजद समर्थन के नाम पर वोट माँगे गए, मगर सरकार से राजद को हटाकर वो फिर भाजपा के साथ हो गए। ऐसे में सत्ता पक्ष के लिए इस बार कोसी प्रमंडल के चुनावों की डगर कठिन ही होगी। बाकी हलचल जब शुरू हो ही गई है तो देखते हैं, थोड़े ही दिन में निष्पक्ष और सापेक्ष दोनों ही पत्रकारों को समझ में आने तो लगेगा कि चुनावी ऊँट किस करवट बैठने वाला है।

Anand Kumar: Tread cautiously, here sentiments may get hurt!