‘द वायर’ वालो, इतिहास पढ़ो, संदर्भ देखो और तब ज्ञान छाँटो कि जर्मन राजदूत के संघ जाने का क्या अर्थ है

NewsLaundry को आधे चित्र के लिए आभार, भले ही प्रायशिचत में कोड़े मारने के लिए बनाया है!

The Wire वाले भाटिया जी बहुत दुःखी हैं- बहुत ही ज़्यादा। जर्मनी के राजदूत संघ वालों से मिलने नागपुर चले गए न! भाटिया जी याद दिला रहे हैं कि संघ के दो पितृ-पुरुषों सावरकर और गोलवलकर ने हिटलर की तारीफ़ कर दी थी, और इसलिए जर्मनी के राजदूत वॉल्टर जे लिंडनर का संघ के लोगों से मिलना न केवल हिटलर के हाथों मारे गए यहूदियों का अपमान है बल्कि बिना सीधे-सीधे कहे यह भी समझा रहे हैं कि इससे जर्मनी के सत्तर साल का प्रायश्चित मिट्टी में मिल गया।

दो बार प्रतिबंधित होने के बाद भी आज तक जारी कैसे है RSS?

भाटिया जी बताते हैं कि संघ पर दो-दो बार प्रतिबंध लग चुका है। पहले तो उनका इतिहास-ज्ञान ही सुधारा जाए- संघ दो नहीं, तीन बार प्रतिबंधित हुआ है। एक बार गाँधी-वध के बाद, एक बार आपातकाल में, और तीसरी बार बाबरी-ध्वंस के बाद। कारणों पर मैं बाद में आऊँगा, पहले भाटिया जी ये बताएँ कि इतनी बार प्रतिबंधित होने के बावजूद संघ आज तक काम कैसे कर रहा है?

अगर यह सवाल भाटिया जी से बगलें झाँकने के अलावा कोई जवाब नहीं होगा। क्योंकि जवाब यह है कि हर बार संघ को प्रतिबंधित करने के बाद भी, कोई भी सरकार उसके द्वारा कोई गैर-क़ानूनी काम साबित नहीं कर पाई है। न गाँधी-वध में सरदार पटेल संघ का हाथ साबित कर पाए, न ही नरसिम्हा राव बाबरी-ध्वंस में संघ का हाथ साबित कर पाए। इसके अलावा संघ पर तीसरा प्रतिबंध इंदिरा गाँधी के उस आपातकाल में लगा, जिसके लिए जेल जाना या प्रतिबंधित होना शर्म नहीं, गर्व की बात है।

हिटलर, ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’

यह सच है कि हिटलर की तारीफ़ गोलवलकर और सावरकर ने की थी। लेकिन हिटलर को ‘मेरे मित्र हिटलर’ तो गाँधी ने भी कहा था। उन्होंने तो हिटलर को ‘वीर’, ‘अपनी पितृभूमि से प्रेम करने वाला’ भी कहा था, और कहा था कि उन्हें नहीं लगता कि हिटलर वह दैत्य है जो उसके दुश्मन उसे बताते हैं। तो क्या गाँधी को केवल इतना कह देने के लिए भारत के हृदय से हटा दें? भाटिया जी बताएँगे कि गाँधी जी की बात तो ‘परिप्रेक्ष्य’ में देखा जाना चाहिए, अलग से उठा कर नहीं; भाटिया जी यह भी बताएँगे कि बाद में गाँधी की धारणा हिटलर के बारे में बदल गई। तो धारणाएँ तो गोलवलकर की भी जीवन में सतत रूप से बदलतीं रहीं थीं– जैसा कि किसी भी ऐसे विचारक के साथ होता ही है जिसने वैचारिक स्वातंत्र्य अक्षुण्ण रखा हो न कि किसी विचारधारा के आगे गिरवी रख दिया हो, जैसे वायर वाले कर चुके हैं।

तो या गाँधी और सावरकर-गोलवलकर के लिए मापदण्ड अलग-अलग हैं, कि गाँधी के विचारों में परिवर्तन ठीक है, गोलवलकर-सावरकर के नहीं; और अगर ऐसा नहीं है तो भाटिया जी बताएँ वह क्या हैं- वैचारिक दोगले, जिसने यह जानकर भी गोलवलकर का दानवीकरण किया, या फिर इतिहास से अनभिज्ञ, जिस स्थिति में सवाल यह उठेगा कि खुद इतिहास ठीक से न जानने वाला व्यक्ति किस नैतिक अधिकार से किसी देश के राजदूत को ज्ञान दे रहा है, और 50-60 लाख लोगों की तुलना इतिहास के सबसे क्रूर व्यक्तियों में से एक से कर रहा है?

हिटलर के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की तुलना संघ के और हिन्दुओं के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद से करने वाले भाटिया जी को यह भी जान लेना चाहिए कि ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ की संघ की अवधारणा नेहरू की ‘डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया’ में दी गई अवधारणा से बहुत अलग नहीं है। वह भी अपनी किताब में ‘हिन्दुस्तानियत’ को परिभाषित संस्कृति से ही करते हैं, भौगोलिकता से नहीं– और हिंदुस्तान की राष्ट्रीय संस्कृति तो वही होगी जो हिंदुस्तान में पैदा हुई हो, यानि हिन्दू संस्कृति। अब सिद्धार्थ भाटिया बताएँ कि नेहरू फ़ासिस्ट थे या नाज़ी?

यहूदियों का दोस्त कौन?

जब हिटलर की बात होती है तो यहूदियों की बात होना लाज़मी है। यह देख लेना ज़रूरी है कि यहूदियों को दो हज़ार साल दुनिया में दर-दर भटकने के बाद अपना राज्य, अपना राष्ट्र मिला तो उसके बारे में और उसके साथ हिंदुस्तान में किसने क्या व्यवहार किया। 1920 के दशक में सावरकर ने लिखा कि अगर यहूदियों के अपने राज्य, अपने राष्ट्र का ज़ियोनिस्ट सपना पूरा होता है तो उन्हें यहूदियों जितनी ही ख़ुशी होगी। 1947 में जब यहूदियों को अपना खुद का राज्य, अपना देश मिलने में भारत ने टाँग मारी तो सावरकर बिफ़र उठे। गोलवलकर ने इजराइल को अपने सपनों के हिन्दू राष्ट्र के लिए एक आदर्श ‘मॉडल’ माना था। और इसके उलटे, गाँधी ने फ़िलिस्तीन को यहूदियों नहीं अरबी फ़िलिस्तीनियों का बताया था

इज़राइल के साथ नेहरूवियन हिंदुस्तान के कैसे रिश्ते रहे, इसे इस एक कथन से समझा जा सकता है: “हिंदुस्तान के साथ इज़राइल का रिश्ता रखैल का है– आप आड़ में यह अफेयर चलाने में तो खुश हैं, लेकिन सबके सामने इस संबंध को स्वीकार करने को तैयार नहीं।” मैं भाटिया जी को चुनौती देता हूँ कि इस कथन को वह गलत साबित करके दिखाएँ। यह सच्चाई बदलने वाला भी एक ‘संघी’ मोदी ही था। भाटिया जी बताएँगे कि हिटलर के हाथों मारे गए यहूदियों की आत्माएँ जर्मनी के राजदूत के उस संघ के दरवाज़े जाने से नाराज़ होंगी, जिसने इज़राइल को सम्मान देने वाला मोदी बनाया, या उन गाँधी की समाधि पर राजघाट जाने से, जिनका दिल इज़राइल के लिए नहीं पिघला।

इसमें कोई शक नहीं कि गोलवलकर-सावरकर के कई विचार गलत भी थे। कुछ उस समय गलत नहीं भी रहे होंगे लेकिन हो सकता है आज के परिप्रेक्ष्य में उनकी प्रासंगिकता न हो- यह मोहन भगवत ने भी माना है कि संघ केवल गोलवलकर या सावरकर की उस समय कही गई बातों तक सीमित नहीं है। लेकिन उन विचारों को बिना परिप्रेक्ष्य, बिना देश-काल-परिस्थिति के, उठा कर उसके आधार पर न केवल किसी व्यक्ति का बल्कि उस व्यक्ति से जुड़े हर व्यक्ति का भी मूल्यांकन करना या तो घृणित है, या फिर बौद्धिक दीवालियापन। यह भाटिया जी तय कर लें कि उनकी श्रेणी क्या हो सकती है।