Covid-19: मोदी की स्वास्थ्य नीति पर सवाल उठाने वाले लिबरल गिरोह की आँखें खोलने के लिए यह महामारी काफी है

स्वच्छता और बेहतर हाइजीन मोदी सरकार की प्राथमिकता 2014 से ही थीं

टीवी-अखबार हर जगह कोरोना देखने और सुनने के बाद कल ही गाँव से एक बुजुर्ग ने हाल-चाल पूछने के लिए फोन पर बातचीत करते हुए मुझसे ‘सेनिटाइजर्स’, हर बार हाथ धुलने और मास्क पहनने जैसी सलाहें दी। उस समय यह सिर्फ मजाक लगा लेकिन कुछ देर बाद मैंने महसूस किया कि सफाई जैसी बेहद मामूली और बुनियादी आवश्यकताओं के प्रति जागरूकता के लिए कोरोना जैसी भयावह महामारी का उदय हुआ। एक ऐसे बुजुर्ग जिन्होंने कभी खाना खाने से पहले हाथ नहीं धुले, वो महानगर में रह रहे नौजवान को सफाई का महत्व समझाते नजर आए।

चीन से शुरू हुआ कोरोना वायरस देखते ही देखते पूरे विश्व के लिए सदी कि सबसे बड़ी आपदा बनने जा रहा है। कोरोना वायरस के संक्रमण से निपटने के लिए अन्य देशों द्वारा की गई तैयारियों के मुकाबले भारत की तैयारियों की खासा वाह-वाही देखी जा सकती है। खासकर पीएम मोदी द्वारा बिना देर किए तुरंत सार्क देशों के साथ वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग और COVID- डिप्लोमेसी के अंतर्गत दस मिलियन अमेरिकी डॉलर की सहायता ने तो सरकार के कोरोना से लड़ने के उनके इरादे स्पष्ट कर दिए।

सोशल मीडिया पर भी कोरोना वायरस के संक्रमण से पीड़ित कुछ लोगों ने बताया है कि भारत सरकार और स्वास्थ्य मंत्रालय किस तत्परता से उनकी देखभाल में लगे हुए हैं। पहली बार हमारे देश में ‘हाइजिन’ और साफ़-सफाई के प्रति लोगों को जागरूकता से बात करते हुए देखा जा रहा है। यह आश्चर्यजनक इसलिए भी था क्योंकि भारत जैसे देश में हाइजिन को ‘विशेषाधिकार’ के रूप में देखा जाता रहा है। हमारे दिमाग के किसी कोने में यह बात जरुर है कि साफ़-सफाई और निजी स्वच्छता आम आदमी का नहीं बल्कि सिर्फ और सिर्फ सभ्रांत वर्ग का अधिकार है।

सबसे बड़ा सवाल यही सबके मन में उठ रहा है कि भारत की तैयारियाँ कोरोना जैसी किसी आपदा से निपटने के लिए क्या थीं? या भविष्य में क्या हो सकती हैं? लोगों ने सोशल मीडिया पर यह भी माँग की कि उन्हें सेनीटाइज़र्स से लेकर मास्क तक सरकार द्वारा उपलब्ध करवाए जाने चाहिए। आपदा के वक्त इस प्रकार की माँग जायज भी मानी जा सकती हैं। क्योंकि इंसान का स्वास्थ्य उसका मौलिक अधिकार होना ही चाहिए।

यूरोप महाद्वीप के कई देशों में स्वास्थ्य मौलिक अधिकार है और हर छह माह में सरकार द्वारा आम आदमी के स्वास्थ्य परिक्षण का आयोजन करवाया जाता है। भारत के ग्रामीण वर्ग में अब जाकर सरकारी अस्पताल स्वास्थ्य शिविर आयोजित करवाते देखे जाते हैं। हमने अपने सामने वह बदलाव देखा है, जिसके लिए अलग उत्तराखंड राज्य की स्थापना आवश्यक थी। वरना स्वास्थ्य सेवाओं की कमी के चलते होने वाली भयानक मौतें बचपन के कुछ बुरे स्वप्नों में से एक हैं।

लेकिन स्वास्थ्य और बेहतर जीवन के मौलिक अधिकार की जरूरत दिल्ली जैसे राज्यों में, जहाँ लगभग हर समय एक आम आदमी को शुद्ध हवा के लिए अच्छी गुणवत्ता वाले मास्क की आवश्यकता होने लगी है, नितांत आवश्यक है। दिल्ली जैसे महानगरों में, जो हर समय कोरोना जैसे ही अन्य संक्रमण के साए से घिरे होते हैं, में कल्याणकारी राज्य की स्थापना के लिए अब यह बुनियादी जरूरत बन चुका है। हालाँकि, अरविन्द केजरीवाल जैसे नेताओं के पास तब भी इसकी जिम्मेदारी केंद्र सरकार पर थोपकर इससे बच निकलने का रास्ता खुला रहता है।

इस बीच जिस एक चीज ने सबका ध्यान आखिरकार अपनी ओर आकर्षित किया है, वह है 2014 में मोदी सरकार के आने के बाद उनकी स्वास्थ्य सम्बन्धी योजनाएँ! आपको याद होगा कि पहली बार किसी सरकार ने गरीब लोगों के लिए एक के बाद एक हेल्थ इंश्योरेंस यानी, स्वास्थ्य बीमा जैसी योजनाएँ लेकर आई थी। इसके बाद देश का आदर्श लिबरल गैंग, जिसमें कि लिबरल मीडिया का भी एक बड़ा वर्ग शामिल था, सरकार से यह सवाल करते हुए देखा जा रहा था कि सरकार आखिर स्वास्थ्य बीमा की ओर इतनी ऊर्जा किसलिए लगा रही है।

मीडिया के इस वर्ग में सबसे ज्यादा वो लोग थे जो आलिशान बंगलों के मालिक हैं और ऑफिस में उनके शानदार स्टूडियो हैं, इस कारण गरीब जनता की जरूरतों से शायद ही किसी तरह से वाकिफ हों। एक इंटरव्यू के दौरान तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने जवाब में कहा था कि क्या मीडिया स्वास्थ्य बीमा और स्वास्थ्य सेवाओं से जुड़ी अन्य स्कीम्स के खिलाफ हैं? इसके जवाब में पत्रकार महोदय ने कोई जवाब भी नहीं दिया था।

एक सच्चाई यह भी है और यह दुर्भाग्य ही कहा जा सकता है कि भारत जैसे विकासशील देशों में आज भी किसी बड़े पुनर्जागरण के लिए कई जिंदगियाँ दाँव पर लगानी होती हैं। स्वच्छता और बेहतर हाइजिन जैसे मुद्दों को हर गली-गाँव और अखबारों की हेडलाइन बनने तक चाइनीज वायरस कोरोना एक बड़े वर्ग को प्रभावित कर चुका था। लेकिन देर से ही सही, लोग इस ओर जागरूक हुए और शायद इसके बाद इन सब बातों का महत्व समझना शुरू कर देंगे।

कोरोना के कहर ने लोगों की आँखें सिर्फ स्वास्थ्य जैसी चीजों पर ही नहीं बल्कि भारत सरकार के काम करने के तरीकों और उस पर अनावश्यक रूप से बनाए गए दबाव का भी खुलासा कर दिया है। इसमें मीडिया के आदर्श लिबरल वर्ग ने केंद्र की दक्षिणपंथी भाजपा सरकार पर अक्सर मीडिया को मौन करने का भी आरोप लगाया है।

तानाशाही के आधार पर चल रहे चीन ने यूँ तो अपने देश को स्वतंत्र मीडिया कभी उपलब्ध ही नहीं करवाया। लेकिन, कोरोना के लिए जिम्मेदार इस देश ने सोशल मीडिया से लेकर बाहरी देशों की मीडिया पर जिस सख्ती से अंकुश लगाया है, उसे भारतीय मीडिया के लिबरल वर्ग को जरूर देखना चाहिए। चीन ने वुहान में हुई मौतों को छुपाने के साथ ही अब चीन के विदेश मंत्रालय ने न्यूयॉर्क टाइम्स, वाशिंगटन पोस्ट और वॉल स्ट्रीट जर्नल के पत्रकारों को 10 दिनों के अंदर अपने मीडिया पास वापस करने के आदेश दिए हैं।

यह एक बड़ा संदेश है। जो पत्रकार भारत सरकार पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से लेकर इसकी कल्याणकारी योजनाओं में कांस्पीरेसी थ्योरी गढ़ने के प्रयास करते आए हैं, यह कोरोना का संक्रमण उनकी आँखें खोलने के लिए काफी है। फिर भी, अपनी व्यक्तिगत विचारधारा के पोषण के लिए वो सत्य का कौन सा हिस्सा चुनते हैं, यह तब भी उन्हीं पर निर्भर करेगा।

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