मायावती की BSP के सामने ‘रावण’ ने खड़ी की नई पार्टी: दलित-मुस्लिम वोट पर है नज़र, कई बसपा नेताओं ने थामा दामन

मायावती को शुरू से यही डर था, इसीलिए वो 'रावण' की लगातार आलोचना करती रही हैं

पिछले कुछ समय से जिस बात की आशंका बहुजन समाज पार्टी प्रमुख मायावती को रही होगी, वह कल 15 मार्च को नॉएडा में वास्तविकता में बदल गई। रविवार को बसपा संस्थापक कांशीराम के जन्मदिवस पर भीम आर्मी के प्रमुख चंद्रशेखर आजाद ‘रावण’ ने अपनी नई पार्टी का गठन करने का ऐलान किया। ‘आजाद समाज पार्टी’ नाम के इस दल ने जिस चंद्रशेखर आजाद को सर्वसम्मति से अपना अध्यक्ष चुना है, वह पिछले कुछ समय से लगातार सुर्ख़ियों में रहा है।

सहारनपुर में हुई जातीय हिंसा के बाद पहली बार सामने आया यह शख्स पिछले कुछ समय में यूपी राजनीति का ‘हॉटकेक’ बन गया है। इसकी वजह समझने के लिए आपको ‘रॉकेट साइंस’ का स्टूडेंट होने की जरूरत बिलकुल नहीं है। वजह बेहद आसान और सीधी है- वेस्ट यूपी में मौजूद दलित वोट बैंक। और इस दलित वोट में अगर पश्चिमी यूपी का मुस्लिम वोट जोड़ दिया जाए तो यह गठजोड़ मारक प्रभाव पैदा करने वाला हो जाता है। नए नागरिकता कानून और नागरिकता रजिस्टर पर रावण के आक्रामक रुख को इसी पृष्ठभूमि में समझा जा सकता है।

चंद्रशेखर रावण ने अपनी जिस नई पार्टी ‘आजाद समाज पार्टी’ के बैनर तले 2022 उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में उतरने का ऐलान किया है उसके झंडे का रंग भी नीला ही है जैसा कि बसपा का। चंद्रशेखर उसी दलित जाति ‘जाटव’ से संबंधित हैं जिससे मायावती, और उन्हीं की तरह वेस्ट यूपी ही जिसकी जन्मभूमि और कर्मभूमि रही है। चंद्रशेखर की जातीय पृष्ठभूमि और कार्य क्षेत्र को देखते हुए ही मायावती और उनकी बसपा ने भीम आर्मी चीफ को शुरू से एक प्रतिद्वंदी के तौर पर देखा। जिससे पैदा खटास इन दोनों के बीच कभी छुपी नहीं रही। जहाँ शुरू से ही मायावती और उनकी पार्टी का लक्ष्य भीम आर्मी प्रमुख को भाजपा का एजेंट करार देना बना रहा, वहीं रावण ने भी मायावती पर दलितों की उपेक्षा का आरोप लगाने में कोई कोर कसर बाकी नहीं छोड़ी है।

मायावती और उनकी पार्टी की इन कोशिशों के बाद भी चंद्रशेखर ने अपनी पैठ दलितों के मध्य लगातार मजबूत ही की, खासकर युवाओं के बीच, जिसका साक्ष्य कल आजाद समाज पार्टी के गठन के दौरान उसमें शामिल हुए नेताओं के कद से लगाया जा सकता है। चंद्रशेखर के साथ खड़े दिख रहे इन नेताओं में कई पूर्व सांसद और दर्जनों पूर्व विधायक शामिल हैं जो किसी समय बहुजन समाज पार्टी में थे।

वेस्ट यूपी में दलित मुस्लिम वोटों की महत्ता चौधरी चरण सिंह के बनाए ‘अजगर’ फार्मूला से समझी जा सकती है जिसमें अल्पसंख्यक, जाट, गुर्जर और राजपूत को साथ ला सत्ता की चाभी बनाने की कोशिश तब से लेकर अब तक उनके बेटे अजीत सिंह ने लगातार की। इसी समीकरण में से दलितों और मुस्लिमों को साध मायावती ने 2004 के आमचुनाव में वेस्ट यूपी बेल्ट से अपने कई मुस्लिम प्रत्याशी लोकसभा के भीतर पहुँचाने में सफलता प्राप्त की थी। 2007 विधानसभा चुनावों के बाद उत्तर प्रदेश में पूर्ण बहुमत की सरकार दशकों बाद बनी थी। यह कारनामा कर दिखाने वालीं मायावती की इस सफलता के पीछे भी पश्चिमी यूपी में बसपा के दलित मुस्लिम गठजोड़ की प्रमुख भूमिका थी।

लेकिन 2012 में मुस्लिम छिटक कर समाजवादी पार्टी के पाले में चले गए। नतीजतन बसपा सरकार से बाहर हुई और अखिलेश यादव सरकार बनाने में सफल रहे। उसके बाद से मायावती की सियासी जमीन वेस्ट यूपी में लगातार कमजोर साबित हो रही है।

2014 के लोकसभा चुनाव में जहाँ बसपा को उत्तर प्रदेश की 80 में से एक सीट भी मुनासिब नहीं हुई थी तो वहीं 2017 के विधानसभा चुनाव में भी वेस्ट यूपी में बसपा का हाथी पस्त ही रहा। हालाँकि पिछले साल हुए 2019 के लोकसभा चुनाव में सपा से गठबंधन कर मायावती की बसपा ने यूपी की 80 में से 10 सीट जीतने में कामयाबी हासिल की थी, जिसमें पश्चिमी यूपी की कई सीट्स शामिल थीं पर उससे मायावती की राजनीतिक जमीन के बारे में कुछ ठोस अंदाजा लगाना मुश्किल है क्योंकि जब दुबारा सपा और बसपा आमने-सामंने होंगी उस सूरत में भी क्या मुस्लिम बसपा की तरफ झुकाव दिखाएँगे ये कहना आसान नहीं। राजनीतिक जानकारों के अनुसार के फिलहाल नए नागरिकता कानून, पापुलेशन रजिस्टर, आदि पर बसपा के ठंडे रवैये को देखते हुए भी मुस्लिम उससे नाराज है। ऐसे में अगर वेस्ट यूपी के मुस्लिमों का झुकाव अखिलेश यादव की सपा के साथ साथ दलितों के लिए नए विकल्प देने की कोशिश में लगे चंद्रशेखर ‘रावण’ की तरफ बढ़ जाए तो मायावती के लिए उत्तर प्रदेश में अपनी खोई हुई ताकत वापस पाना मुश्किल हो जाएगा।