मोदी जी के बीस लाख करोड़: फेसबुक-ट्विटर के भविष्यवेत्ताओं और तत्वज्ञानियों के नाम

मोदी कुछ भी कर ले, आपका रोना तय है!

मोदी जी के बीस लाख करोड़ वाले भाषण का विश्लेषण तो मैं भी लिखूँगा पर सोशल मीडिया पर भविष्यवेत्ताओं और तत्वज्ञानियों की भाषा देख कर एक प्रतिक्रिया लिखने से रह नहीं पाया। करीब 40 मिनट के भाषण में दो मुख्य बातें जो हर जगह दिख रही हैं, वो हैं: आत्मनिर्भर भारत और 20 लाख करोड़ (लगभग 285 अरब डॉलर)।

तत्वज्ञानी वो होते हैं जिन्हें आत्मा, परमात्मा, चराचर, भूत-भविष्य, भौतिक-अदृश्य आदि हर तरह का ज्ञान होता है। वो बस जान जाते हैं कि क्या है, क्या हो रहा है, क्या हो चुका है और क्या होने वाला है। गणितशास्त्रियों की एक बड़ी प्रचलित अवधारणा होती है कि अगर उनके पास हर तरह की सूचना दे दी जाए तो वो भविष्य का सटीक पूर्वानुमान लगा सकते हैं।

फेसबुक-ट्विटर के पोस्टवीरों को उस डेटा की भी जरूरत नहीं, वो बस जानते हैं। वो बस जान जाते हैं कि क्या है, क्या हो सकता है, क्या होगा। भविष्यवेत्ता लोग वो हैं जिन्हें भविष्य का पूरा ज्ञान है। ‘वेत्ता’ प्रत्यय का निहित अर्थ ही होता है ‘संपूर्ण ज्ञान रखने वाला’।

पहला सवाल फेंका गया कि चालीस मिनट क्यों बर्बाद किया? तुम्हें किसने बोला था कि चालीस मिनट सुनो! फेसबुक पढ़ लेते अपने जैसे बकचोन्हर सब का, जो दो सेकेंड में बता देते कि क्या कहा गया है। ऐसे लोगों की समस्या यह है कि जो चीज इनकी समझ से परे है, उसे भी ये अपने सीमित दायरे में ही समेट कर देखना चाहते हैं।

अगर मोदी पाँच मिनट बोलता, तो कहते इसके लिए इतनी प्रतीक्षा कराई, ट्वीट भी तो कर सकते थे। दस मिनट बोलता तो कहते कि ‘इस बात पर तो कुछ बोला ही नहीं, उसे कौन सी ट्रेन पकड़नी थी।’ बीस मिनट में कहते कि उबाऊ था, चालीस मिनट में तो पक ही गए।

देश का प्रधानमंत्री एक आपातस्थिति में देश की जनता को संबोधित कर रहा है। लक्ष्य दिल्ली-मुंबई में बैठे स्टॉक एक्सचेंज के खिलाड़ियों और आर्थिक बीट पर काम करने वाले पत्रकारों तक अपनी बात पहुँचाने का नहीं है, बल्कि उन्हें भी संबल देना है जो खाली पाँव, दहकते कंक्रीट पर, फफोलों के साथ निकल चुके हैं।

उन्हें आप रोक नहीं सकते क्योंकि वो रुकने वाला नहीं है। साथ ही, ऐसे संबोधनों का उद्देश्य और इसकी भाषा शैली समाज के सबसे अशक्त, निरक्षर या जो आप जैसों के लिए मैटर नहीं करते, अस्तित्व में भी नहीं हैं, वैसे लोगों के लिए होती है। इसीलिए एक ही वाक्यांश बार-बार दोहराए जाते हैं।

जब आपको अपने घर के बच्चे के लिए स्कूल की स्पीच लिखनी होती है तो आप उसमें कॉर्पोरेट टैक्स बढ़ाना चाहिए की बात नहीं लिखते, उसमें लिखते हैं कि देश में कोई गरीब न रहे, भूखा न सोए। जनसंख्या में सबसे निचले पायदान पर खड़े व्यक्ति को महसूस होना चाहिए कि उसका प्रधानमंत्री बोल रहा है।

दूसरी बात यह थी कि ये कौन सा पैसा है, कहाँ से आएगा? जब मोदी ने कहा कि आने वाले दिनों में इस पर वृहद चर्चा होगी, तो फिर आप ये सवाल क्यों पूछ रहे हैं कि किसके घर का सोना बिकवा देगा मोदी! ये विचार कहाँ से आ रहे हैं आपके मन में कि किस बैंक का ताला खुलेगा? किस आधार पर?

ये पैसा किसे दिया जाएगा? बजट के भी भाषण के बाद, अर्थशास्त्री लगे पड़े होते हैं उसे समझने में। ये एक मिनि-बजट ही है। मोदी ने सिर्फ दो शब्द नहीं बोले थे, देश के पाँच स्तंभ भी गिनाए थे। यह भी कहा था कि ‘क्वांटम जम्प’ की आवश्यकता है। इसका मतलब होता है कि बहुत बड़े बदलाव की उम्मीद कीजिए।

इसी कारण अपनी पूरी जीडीपी का दस प्रतिशत एक पैकेज के रूप में दिया जा रहा है ताकि अर्थव्यवस्था को बचाया जा सके। कल तक यही लोग रो रहे थे कि ये डूब गया, वहाँ वो हो गया, इसके पास पैसे नहीं हैं, उधर मोदी ध्यान नहीं दे रहा

कुछ सुधिजनों ने ऑनलाइन लूडो में ‘मेरे छः क्यों नहीं आते यार’ की जगह आज पूरा मस्तिष्क बीस लाख करोड़ को समझने मे लगा दिया। इनको लगता है कि घर में चीनी, चायपत्ती, टमाटर, दाल और गरम मसाला नहीं है, पापा से दो सौ रुपए ले लो, बाहर से खरीद लेंगे।

चीनी-चायपत्ती लाने के लिए भी बैठ कर जोड़ना पड़ता है कि बाहर कितना पैसा ले कर जाएँ। ये भारत है। जहाँ 28 राज्य और 8 केन्द्रशासित प्रदेश हैं। सबकी अपनी समस्याएँ हैं। किसी के पास मजदूर है, किसी के पास फैक्ट्री। किसी के पास रेलगाड़ी के न चलने से समस्या है, कोई ट्रकों के बंद होने से सामान नहीं भेज पा रहा।

वो जो पूछ रहे हैं कि राज्यों को पैसा क्यों नहीं दिया जा रहा था, वो वही लोग हैं जो दो सप्ताह पहले भी राज्यों को पैसा दिया जाता, तो उसके एक दिन बाद कहते कि ‘बहुत देर कर दी, पहले देना चाहिए था’। इनको ये भी नहीं पता होगा कि राज्य पैसा ले कर करेगा क्या या किस राज्य का कौन सा काम पैसे के न होने के कारण रुक गया है!

इतने बड़े तंत्र के लिए पैसे देने से पहले राज्यों की स्थिति, जनसंख्या, समस्याएँ, आर्थिक क्षमता आदि का लेखा-जोखा लेने के बाद, किस विभाग को कितनी आवश्यकता है, तय करने के बाद पैकेज अनाउंस होता है। ये नहीं कि मंगलवार को मुहूर्त निकाला गया, इसलिए मोदी जो है बारह दिन से लॉन की घास छील रहा था!

तीसरा प्रश्न है कि ‘आत्मनिर्भर’ होने का क्या मतलब है? ऐसा पूछने वाले लोग उपहास वाले अंदाज में लिख रहे हैं। ये यह भी दावा कर रहे हैं कि उनका चालीस मिनट बर्बाद हुआ, और उन्हें ये भी नहीं पता कि आत्मनिर्भर होने का क्या मतलब है!

पूरी बात तो कह दी मोदी ने कि उपभोग (कन्जम्पशन) से ले कर उद्योगतंत्र, ढाँचागत विकास और सप्लाय चेन आत्मनिर्भर बनाने की कोशिश है। स्वदेशी चीजों का जहाँ तक हो सके प्रयोग की बात कही। खादी उद्योग का उदाहरण दिया। ऐसे ही अगर हर उद्योग पहला कदम लेने लगे, तो स्थिति सुधरनी ही है।

‘कैसे कर देगा आत्मनिर्भर?’ जैसे सवाल विचित्र हैं। ढाँचा तैयार होने में समय लगता है। ऐसी असामान्य स्थिति में आप क्या चाहते हैं सुनना? वो रवीश का कोई भी पोस्ट ले ले जिसमें हर दिन एक ही बात होती है कि टेस्ट बहुत कम हो रहे हैं, अहमदाबाद में सबसे ज्यादा मर रहे हैं, रोजगार जा रहे हैं, मिडिल क्लास मर रहा है’।

ये सुनते ही आप नाचने लगेंगे कि देखो कितनी सही बात बोल दी है? नहीं, आप फिर भी रोएँगे क्योंकि आपको इस बात की चिंता है कि आप पार्क में क्यों नहीं जा पा रहे, आप सिनेमा क्यों नहीं देख सकते, आपको नाक क्यों ढकना पड़ रहा है, आपको सब्जी उबालना क्यों पड़ा रहा है…

आप चाहते हैं कि सब कुछ पहले जैसा हो जाए, और उस हिसाब से इस स्पीच को आँक रहे हैं। जबकि वैसा है नहीं। स्थिति सही नहीं है, इसलिए इस पर सोचना पड़ा होगा, योजना बनाई गई होगी, राज्यों से इनपुट लिए गए होंगे, और आने वाले दिनों में क्रमवार तरीके से, विभागों के हिसाब से राशि कैसे दी जाएगी, यह बताया जाएगा।

आपके विश्लेषण तब सही होंगे, जब आप इन सेक्टरों को दी गई मदद का पूर्ण आकलन करेंगे, संदर्भ का ध्यान रखेंगे कि अभी चल क्या रहा है, फिर अपनी बात रखेंगे कि इधर ज्यादा जरूरत थी, वहाँ कम। लेकिन नहीं, आपको एक्सपर्ट का बाप बनना है कि जो अभी है नहीं, उसकी व्याख्या कर देनी है कि कवि कहना चाहता है…

एक आपात स्थिति में, जब सबसे ज्यादा डरा हुआ वो है जिसके पास बहुत कम है, प्रधानमंत्री उसके लिए ज्यादा बोलता है। उसे ज्यादा बोलना पड़ता है, सरल शब्दों में, सिर्फ पैसों की बात कहनी होती है। उसे मजदूर, फ़ैक्ट्री, सामान, स्वदेशी, आत्मनिर्भर जैसे शब्दों को बार-बार कहना पड़ता है।

ऐसे समय में देश के तत्वज्ञानी और भविष्यवेत्ता को संबोधन नहीं दिया जाता। उनके पास नेटफ्लिक्स और प्राइम वीडियो के दौर में उबे होने के विकल्प हैं। वो मजबूरी में ‘चलो इसे ही देख लेते हैं’ टाइप टीवी ऑन कर देता है, फिर कहता है ‘यार इसमें क्या हुआ? इससे तो अच्छा वो सीरिज देख लेते!’

आप सीरीज़ ही देखिए। आपके जीवन पर इस बीस लाख करोड़ का वैसे भी असर नहीं होने वाला। आपको हर चीज में थ्रिल चाहिए क्योंकि थ्रिल के नाम पर घर में बर्तन धोना और पोछा मारना ही रह गया है आपके हाथ। इसलिए, आपके पास उन बातों को ले कर भी सवाल हैं, जिनके जवाब बोलने वाले ने आने वाले दिनों में आएँगे, ऐसा कहा है।

अजीत भारती: पूर्व सम्पादक (फ़रवरी 2021 तक), ऑपइंडिया हिन्दी