सावरकर की 10 साल बाद याचिका Vs नेहरू का बॉन्ड भरकर 2 हफ्ते में जेल से रिहाई: किसने कितना सहा?

सावरकर और पंडित नेहरू (फाइल फोटो)

भक्ष्य रँड बहुमस्त देखता ‘सिंह’ धावले बग्गीकडे गोळी सुटली, गडबड मिटली, दुष्ट नराधम चीत पडे (रैंड नाम का भक्षी जब दिखाई पड़ा तो ‘शेर’ बग्गी की तरफ भागे! गोली छूटी, गंदगी साफ हो गई, दुष्ट आदमी मारा गया)

ये साल 1899 था, जब अंग्रेज अधिकारी वाल्टर चार्ल्स रैण्ड की हत्या मामले में तीनों चापेकर भाइयों को फाँसी की सजा दी गई। चापेकर बंधुओं की वीरता और बलिदान पर 16 साल के विनायक दामोदर सावरकर ने ‘चाफेकरांचा फटका’ नाम से एक मराठी कविता लिखी।

बताया जाता है जिस दिन तीनों भाइयों में सबसे छोटे 20 साल के वासुदेव हरि चाफेकर को फाँसी हुई, उसी रात अष्ठभुजा माँ दुर्गा की प्रतिमा के सामने 16 साल के सावरकर ने चापेकर बंधुओं के मार्ग पर चलने का प्रण लिया।

इसके बाद से लेकर साल 1966 में अपने देह त्यागने से पहले उनकी लिखी आखिरी कविता ‘येमृत्यो! येतूंये, यावयाप्रती’ तक सावरकर के लिए कविता और क्रांति साथ-साथ चली। अपनी मृत्यु के करीब 55 सालों के बाद भी अपने किसी भी समकालीन नेता के मुकाबले सावरकर आज सबसे ज्यादा चर्चा में हैं।

अपने जीवन भर राजनीतिक रूप से वो चाहे कितने भी हाशिए पर रहे हों, लेकिन आज वो राजनीति के केंद्र में हैं। कॉन्ग्रेस का कोई ना कोई नेता आए दिन उन्हें अपशब्द कह रहा होता है। खुद को प्रगतिशील साबित करने के लिए जरूरी है कि आप सावरकर का अपमान करते नज़र आएँ।

यही वजह है कि आज स्वातंत्र्यवीर विनायक दामोदर सावरकर की 137वीं जन्म जयंती के अवसर पर ये आवश्यक हो जाता है कि पीछे मुड़कर देखा जाए कि सावरकर के जीवन में ऐसा क्या है जो कॉन्ग्रेस को इतना परेशान कर रहा है।

कॉन्ग्रेस को लगता है कि देश को आज़ाद कॉन्ग्रेस ने कराया है, इसलिए देश पर राज करने का स्वाभाविक हक कॉन्ग्रेस का है। उस पर यह भी नेहरू जी ने कॉन्ग्रेस की आज़ादी की लड़ाई का नेतृत्व किया है, इसलिए सिर्फ उनका परिवार ही वो पवित्र परिवार है, जिसका सदस्य देश का प्रधानमंत्री बन सकता है।

इसलिए आजाद भारत के 70 सालों में से करीब 55-60 साल राज करने वाली कॉन्ग्रेस आज जब पहली बार सत्ता से 10 साल के लिए बाहर हुई है, तो वो देख रही है कि चुनौती मिल कहाँ से रही है। और इस चुनौती के मूल में उसे दिखाई देती है हिन्दुत्व की विचारधारा।

कॉन्ग्रेस को लगता है कि अगर हिन्दुत्व के इस विचार का सामना करना है तो इसे लिखने वाले सावरकर को ही अलोकप्रिय बना दिया जाए। देश की आजादी की लड़ाई में सभी बड़े नेताओं के आपस में मतभेद थे। गाँधी-अंबेडकर, सुभाष-गांधी, सावरकर-गाँधी, जिन्ना-गाँधी, भगत सिंह-गाँधी, लेकिन आज कॉन्ग्रेस के निशाने पर सावरकर को छोड़कर इनमें से कोई भी महापुरुष निशाने पर नहीं है।

क्योंकि सत्ता पर जो चुनौती दे रहे हैं, वो सावरकर के विचार से आने वाले माने जाते हैं। इसलिए मंच से सावरकर को गाली है और जेएनयू में लगी उनकी प्रतिमा पर कालिख!

कॉन्ग्रेस और भारत का प्रगतिशील तबका जैसा सूक्ष्म आकलन सावरकर के जीवन का करता है या जैसा मापदंड सावरकर के लिए अपनाता है, वैसा मापदंड वो किसी भी दूसरे नेता के लिए नहीं अपनाता। जैसे कि 1923 में नाभा रियासत में गैर कानूनी ढंग से प्रवेश करने पर जवाहरलाल नहेरू को 2 साल की सजा सुनाई गई थी।

लेकिन सिर्फ 2 हफ्ते की सजा के बाद ही ये स्थिति हो गई कि जवाहरलाल नेहरू ने अब कभी नाभा में प्रवेश ना करने का बॉन्ड भर कर अपनी सज़ा माफ कराई, साथ ही उनके पिता उन्हें छुड़ाने के लिए वायसराय तक सिफारिश लेकर पहुँच गए। लेकिन इसके बाद भी नहेरू भारत के महान स्वतंत्रता सेनानी हैं, लेकिन 50 साल की सजा पाए सेल्युलर जेल में 10 साल काटने वाले सावरकर अगर दया याचिका लिखते हैं तो वो कायर कहे जाते हैं। यानी, नेहरू बॉन्ड भरकर जेल से रिहाई ले सकते हैं, लेकिन सावरकर दया याचिका नहीं लिख सकते।

ये आपको हर जगह दिखेगा। सावरकर ने अपने जीवन के 27 साल जेल या नज़रबंदी में काटे। साल 1910 से लेकर 1924 तक वो काला पानी समेत विभिन्न जेलों में रहे तो वहीं 1924 से लेकर 1937 तक वो रत्नागिरी में नज़रबंद थे। जिस समय देश को आजाद कराने वाले बड़े-बड़े नेता, जिनसे अंग्रेज थर-थर काँपते थे, गोलमेज़ सम्मेलन में हिस्सा लेने लंदन जाया करते थे, उस समय सावरकर को रत्नागिरी से एक कदम बाहर रखने की इज़ाजत नहीं थी। लेकिन इसके बाद भी सावरकर अंग्रेजों के साथी थे और गोलमेज़ सम्मेलन में हिस्सा लेने वाले अंग्रेजों से देश को आज़ाद करा रहे थे।

रत्नागिरी में नज़रबंदी के दौरान सावरकर को 60 रुपए महीने पेंशन के तौर पर अंग्रेज सरकार देती थी। उनके शहर से बाहर जाने या किसी भी प्रकार के नौकरी करने पर रोक थी। अंग्रेजों से पेंशन पाने पर सावरकर आलोचना के पात्र हैं लेकिन जब असहयोग आंदोलन के बाद पाँच साल की सजा पाए गाँधी जी को सिर्फ दो साल मे ही छोड़ दिया गया क्योंकि उन्हें अपेन्डिक्स का ऑपरेशन कराना था तो ऐसा करना ठीक है।

गाँधी जी की पाँच साल की सजा दो साल में बदली जा सकती है, ऐसा करने पर वो अंग्रेजों के चमचे नहीं कहलाते, लेकिन 60 रुपए की पेंशन लेते ही सावरकर पर सवाल खड़े हो जाते हैं। जिस पर 1899 में दक्षिण अफ्रिका में बोअर के युद्ध में अंग्रेजों की तरफ से बतौर सार्जेंट युद्ध में मेडिकल कोर की तरफ से शामिल होने पर गाँधी जी को मेडल मिल चुका था। सोचिए, ऐसा कोई मेडल अंग्रेज सरकार ने सावरकर को दे दिया होता तो आज कॉन्ग्रेस क्या कर रही होती?

भारत का पूरा क्रांतिकारी आंदोलन कॉन्ग्रेस के अहिंसा से आज़ादी पाने वाले विचार के विरोध में था। ‘बम का दर्शन’ और ‘बम की पूजा’ ये दो लेख इस विवाद के शीर्ष बिन्दू हैं, लेकिन बड़ी चालाकी से ‘भगत सिंह बनाम सावरकर’ का विमर्श खड़ा किया जा रहा है।

भगत सिंह को वामपंथी/नास्तिक और सावरकर को हिन्दुत्व का झंडा पकड़ाकर आमने-सामने खड़ा कर दिया जाता है। बड़े-बड़े संपादक और स्तम्भकार खुले आम झूठ बोलते नज़र आते हैं कि भगत सिंह की फाँसी पर सावरकर ने दो शब्द नहीं लिखे, जबकि सच ये है कि रत्नागिरी में नज़रबंद रहते हुए भी सावरकर ने भगत सिंह और राजगुरू के लिए कविता लिखी, जो उन दिनों महाऱाष्ट्र में होने वाली प्रभात फेरियों में गाई जाती थी।

जिसकी शुरूआती पंक्ति है –

हा भगतसिंग, हाय हा
(Woe is me, oh Bhagat Singh, oh)
जाशि आजि, फांशी आम्हांस्तवचि वीरा, हाय हा!
(For us today to the gallows you go)
राजगुरू तूं, हाय हा!
(Woe is me, oh Rajguru, oh!)
राष्ट्र समरी, वीर कुमरा पडसि झुंजत, हाय हा!
(O Brave One, battling in the national war you go!)

एक और झूठ जो सावरकर के नाम से परोसा जाता है वो ये है कि सब से पहले देश के विभाजन की बात सावरकर ने 1937 में की थी। जबकि, सच ये है कि 1933 के तीसरे गोलमेज़ सम्मेलन में ही चौधरी रहमत अली ‘Pakistan Declaration’ के पर्चे बाँट रहे थे।

1937 से पहले दर्जन बार कई नेता इस तरह की बातें कर चुके थे लेकिन बड़ी होशियारी से देश के विभाजन की त्रासदी के जवाबदेही को कॉन्ग्रेस और मुस्लिम लीग के खाते से निकाल कर सावरकर के हिस्से में डालने की कोशिश की जाती रही हैं।

एक कवि, विचारक, क्रांतिकारी, राजनेता, भाषाविद के तौर पर वीर सावरकर का जीवन इतना बड़ा है कि एक लेख में उनके हर पहलू पर बात नहीं की जा सकती। उनके हर विचार से आप सहमत हो ये जरूरी नहीं। बहुत सारे लोग गाँधी जी से या भीमराव अंबेडकर से किसी भी दूसरे नेता से कई मुद्दे पर सहमत नहीं होते, लेकिन इसका ये अर्थ नहीं कि उनके त्याग और समर्पण को हम उपहास और अपशब्द का विषय बना दें।

कॉन्ग्रेस अपनी राजनीतिक लड़ाई अपने दम पर लड़े लेकिन अगर उसे लगता इतिहास के किसी महापुरुष का अपमान करके वो अपना कद ऊँचा कर रही है तो ये उसकी भूल है। क्योंकि कीचड़ अगर सामने से फेंका गया तो कॉन्ग्रेस संभाल नहीं पाएगी।

लेखक: अविनाश त्रिपाठी