JNU की रोमिला थापर से CV माँग कर गुनाह किया है इस क्रूर, घमंडी, तानाशाही सरकार ने

रोमिला थापर

युद्धों के साथ जुड़ी कहानियाँ हमेशा से सभ्यता में सुनी-सुनाई जाती रही हैं। युद्ध का मतलब ही संघर्ष होता है, शायद मनुष्य की संघर्ष करने की प्रवृति, मनुष्यों के लिए संघर्ष की कथाओं को रोचक बना देती है। यहाँ यह भी याद रखना जरूरी है कि युद्ध से जुड़ी हर कहानी सच्ची नहीं होती। अक्सर एक पक्ष दूसरे पक्ष को अमानवीय और क्रूर दिखाने के लिए कहानियाँ गढ़ता भी है। अगर आपके पास अच्छा प्रचार तंत्र हो, कुछ अच्छे लेखक हों तो कोई मुश्किल नहीं कि आप विपक्षी को बिलकुल ही राक्षस बना दें।

ऐसी कहानियों का एक अच्छा नमूना वो कहानी है जिसमें एक परिवार को चिट्ठी मिलती है। चिट्ठी उनके बेटे की थी जो कि जर्मनी के किसी युद्ध बंदी कैंप में था। लड़ाई के समय शायद पकड़ लिया गया होगा। चिट्ठी में बेटा लिखता है कि वो जर्मन युद्ध बंदी कैंप में है, ठीक ठाक है। उसे खाना बढ़िया मिलता है, उसके साथ कोई मार-पीट नहीं होती। परिवार को चिंतित होने की जरूरत नहीं है। बेटे की चिट्ठी आने से परिवार थोड़ा निश्चिन्त होता है।

लेकिन चिट्ठी में एक अनोखी बात थी। ख़त के आखिर में जिक्र था कि सबसे छोटे बेटे “अल्फि” को स्टांप जमा करने का शौक है तो उसे शायद चिट्ठी पर लगा स्टांप पसंद आए। अनोखी बात इसमें ये थी कि अल्फि नाम का कोई छोटा बेटा तो घर में था ही नहीं! सबसे छोटा वाला ही तो जेल में था! हैरान परिवार के लोग थोड़ा दिमाग लगाते हैं कि शायद कोई गुप्त बात स्टांप के साथ जुड़ी है। वो स्टांप उखाड़ कर देखते हैं। वहाँ एक छोटा सा सन्देश था। बेटे ने लिखा था कि उसकी जबान काट ली गई है!

ये प्रोपगेंडा की कहानी क्यों है ? इसलिए क्योंकि युद्ध बंदियों के कैंप से ही नहीं, किसी भी जेल से भेजी गई चिट्ठी पर स्टांप नहीं चिपकाना पड़ता। जेल से आप मुफ्त में चिट्ठियाँ भेज सकते हैं। आम आदमी कभी जेल गया नहीं होता, उसे जेल से चिट्ठी नहीं आई होती, इसलिए उसे पता ही नहीं होता कि जेल की चिट्ठी पर डाक टिकट नहीं लगता। डाक टिकट के नीचे छुपे कूट सन्देश के नाम पर ज्यादातर लोगों को बरगलाना बहुत आसान है।

ऐसा नहीं है कि मिथ्या प्रचार किसी एक दौर में चला है। जब भी आम लोगों की सहानुभूति जुटा कर किसी विरोधी के खिलाफ उन्हें एकजुट किया जाता है, तो ऐसे प्रचार किए जाते हैं। ईसाइयों और समुदाय विशेष के क्रूसेड के समय से ही ये तरीका प्रचलन में है। अर्बन द्वित्तीय ने क्रूसेड के लिए लोगों को उकसाते हुए ऐसे प्रचार किए थे और हाल के दौर तक इसका इस्तेमाल होता दिखेगा।

कुछ दो दशक पहले यानी दस अक्टूबर, 1990 को एक कुवैती लड़की नायिराह अमेरिकी कॉन्ग्रेस समिति के सामने गवाही देने खड़ी हुई थी। उसने कई नरसंहारों का प्रत्यक्षदर्शी गवाह होने का दावा किया था। उसने बताया था कि उसने इराकी सैनिकों को, कुवैती बच्चों को अस्पताल के इनक्यूबेटर से खींच कर जमीन पर पटकते और मारते देखा है। ये ऐसा सनसनीखेज खुलासा था कि उस समय के लगभग हर समाचार-पत्र, हर रेडियो-टीवी कार्यक्रम में ये गवाही पूरे अमेरिका में दिखाई गई। तत्कालीन राष्ट्रपति बुश ने कई भाषणों में नायिराह की गवाही का जिक्र किया। बाद के, इराक पर, अमेरिकी हमले की कहानी सब जानते हैं।

थोड़े समय बाद जब CBC-TV ने अपने प्रोग्राम To Sell a War में इस गवाही की जाँच की तो अनोखी बातें पता चली। नायिराह की गवाही झूठी थी। वो युद्ध के समय कुवैत में नहीं थी। उसने इराकी सैनिकों को कोई नरसंहार करते नहीं देखा था। नायिराह दरअसल यूनाइटेड स्टेट्स में कुवैत के राजदूत की बेटी थी। कुवैती सरकार ने Hill & Knowlton नाम के पब्लिक रिलेशन संस्थान को युद्ध में अमेरिकी हस्तक्षेप के पक्ष में जनमत बनाने का ठेका दिया था। उसी के तहत ये झूठी गवाही दिलवाई गई थी।

मशहूर संस्था एमनेस्टी इंटरनेशनल ने भी इस गवाही को जम कर बेचा था। बाद में एमनेस्टी इंटरनेशनल के तत्कालीन प्रमुख जॉन हेअले ने, पोल खुलने पर पलटते हुए कहा कि ये अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकारों की मुहिम को कमजोर करने की साजिश है। ये बयान आने तक इराकी मानवाधिकारों को अमेरिकी पेट्रियट मिसाइलों ने चपटा कर दिया था।

प्रोपगेंडा के हथियारों को इसी रूप में इस्तेमाल होते देखना है तो आप आज के भारत में जरूर देखिए। जब भी किसी को नरभक्षी भेड़िया बताया जाता है तो यही किया जा रहा होता है। जब बार-बार किसी तथाकथित जुल्मों की दास्तान की पोल खुलने लगे तो यही इस्तेमाल हो रहा होता है। जब घटना के सत्य होने या ना होने पर सवाल उठाते ही आपको जालिमों-आततायियों का समर्थक घोषित किया जाए तो मान लीजिए कि असली पिशाचों का हमला हुआ है आप पर।

गौर कीजिए आसपास। किसी पर तेज़ाब से, किसी पर सरकारी तंत्र से हमले हो रहे हैं? क्या लोगों को आत्महत्या के लिए मजबूर किया जा रहा है? कहीं कोई तथाकथित इतिहासकार “शिक्षा के भगवाकरण” का शिकार होता तो नहीं सुनाई दे रहा? ऐसा होता दिखे तो सोचिएगा कि जहाँ कुछ ही दिन पहले प्रधानमंत्री से डिग्री दिखाओ जी कहा जा रहा था, वहाँ एक रिटायर हो चुके प्रोफेसर से, सीवी माँगना गलत क्यों है? अगर वो कहें कि ये ऐसी जगह है जहाँ डिग्री की जरूरत ही नहीं होती, तो ये भी पूछिएगा कि प्रधानमंत्री होने के लिए कौन सी शैक्षणिक योग्यताएँ जरूरी हैं?

बाकी इस बार जो शिक्षा के नाम पर किन्हीं कपोल-कल्पित जुल्मों की दास्तान सुनाई जा रही है, उस विधा को भी एट्रोसिटी प्रोपगेंडा (Atrocity Propaganda) कहते हैं। ऐसी चीज़ों को ध्यान से सीखिए, हम फोर्थ जेनेरशन (चौथी पीढ़ी) के युद्धों के दौर में हैं, यहाँ सूचना भी हथियार होती है।

Anand Kumar: Tread cautiously, here sentiments may get hurt!