हरामी महुआ: सस्ती भी है, चढ़ती भी मस्त है, फर्र-फर्र अंग्रेजी निकालती है!

बोतलबंद महुआ (फोटो साभार: aranyapurefood.com और memsahibinindia.com)

तू है मेरी दुल्हन, आज होगा मिलन… मेरी महुआ, ओ मेरी जाना!

मोहम्मद रफी ने जब ये गाना गाया होगा, शायद महुआ की गिरफ्त में होंगे। जिस सुर-तान-दर्द के साथ हर शब्द निकला है, वो बिन महुआ संभव नहीं। महुआ ही जीवन है, महुआ ही प्रेमी भी और प्रेमिका भी… इस गीत ने पूरी दुनिया को बता दिया था। इसके मर्म को जानने-समझने वालों में मैं भी एक था।

झारखंड में पला-बढ़ा। टाटा-रांची जैसे शहरों में नहीं। जंगलों से घिरे गाँव में। इसके अपने नफा-नुकसान रहे। बाल जब पक कर सफेद हो गए हैं तो नुकसान की बात कर जिंदगी को और तकलीफ क्यों देना! इसलिए आज बात खुशियों की। जिंदगी जीने की। आज बात महुआ की।

महुआ से मेरी दोस्ती हाई स्कूल के दिनों में हो गई थी। गजब का मोहपाश था उसका। बिन डोर खींचा चला जाता था मैं उसकी ओर। उसकी मादकता मेरे नथुनों में उतरती चली जाती थी और मैं उसकी आगोश में खुद को ढीला कर सिमट जाता था।

जंगलों के बीच झारखंड के गिरिडीह में जिंदगी मजे में कट रही थी। महुआ के साथ मेरा प्यार परवान चढ़ रहा था। किसी की नजर लग गई लेकिन। एक हरामखोर (मतलब नॉटी) से जीवन में पाला पड़ गया। ज्ञान मिला कि पापी पेट के लिए लंबी पढ़ाई जरूरी है। महुआ का साथ छूट गया।

हरे-भरे जंगलों से निकल मॉल, फ्लाईओवर, कॉन्क्रिट वाले जंगल में आ गया। लोगबाग इसे दिल्ली कहते हैं। शरीर ने तो इस शहर को अपना लिया लेकिन मन महुआ के लिए हमेशा बेचैन रहा। इस बेचैनी को आप ऐसे समझ सकते हैं कि फर्र-फर्र अंग्रेजी वाली कॉल सेंटर के जॉब का इंटरव्यू मैंने महुआ के आगोश में ही दिया था, फ्लाइंग कलर्स (मतलब गर्दा उड़ाके) के साथ पास हुआ था मैं।

सुना है दिल्ली दिलवालों की है! स्कॉच, व्हिस्की, बीयर, वाइन, रम, जिन, वोडका… क्या-क्या नहीं मिलता है यहाँ। पब-बार में बैठ पंजाबी-अंग्रेजी-बॉलीवुड के तड़कते-भड़कते संगीत के साथ गटकने वालों की भीड़ देखते बनती है। क्या कोई भी लेकिन महुआ को टक्कर दे सकता है?

‘स्कूल के टेम पे, आना गोरी डेम पे’ और ‘मोर 18 साल होई गेलक रे, मोर शादी कराय दे, मोर जोड़ी जुमाय दे’ बैकग्राउंड में बज रहा हो, हाथ में सखुआ के पत्तों से बने दोने में महुआ हो, चखने में टंगरी कबाब या रोस्टेड चिकेन की जगह कच्चा प्याज-हरी मिर्च-उबले चने का मिक्स्चर हो, प्याज की पकौड़ी हो… इससे आगे अब लिखा नहीं जा रहा! अफसोस कि महुआ से मिलने की बेचैनी पर अब किसी कुमार कवि को विश्वास ही नहीं। कोई लिख दे तो गाने वाला कोई रफी नहीं। सब लगे पड़े हैं पंजाबी ‘दारू विच प्यार मिला दे’ के पीछे।

झारखंड के मेरे सब दोस्त भी घर-गृहस्थी में बिजी हैं। पहले वाली बात नहीं रही कि कोई आ रहा हो दिल्ली तो ले आया, मन को तर कर लिया! अब बस तरसता रहता हूँ। यहाँ के दोस्त-यार तरस खाकर कहीं-कहीं से जुगाड़ कर महुआ लाते हैं, ब्रांडेड बोतल वाली। उनका दिल रखने को पी तो लेता हूँ लेकिन जो महुआ ब्रांड में लिपट गई, ब्रांड पर बिक गई, वो हरामी हो गई… ऐसा मेरा मानना है।

हरामी तो हालाँकि वो महुआ भी हो गई मेरे लिए, जिसका साथ छूट गया। वो गले से उतर दिल में समा जाती थी। अब मैं उसका बस दिलजला आशिक रह गया हूँ, दिल्ली की सड़कों पर आरोप लगाता हुआ, गुनगुनाता हुआ। महुआ की बेवफाई पर रफी ने भी गाया था, पढ़िए और गुनगुनाइए:

तूने मुझसे किया था कभी वादा
मेरी ताल पे तू दौड़ी चली आएगी
कैसा बंधन है, प्यार का ये बंधन
इसे छोड़ के तू कभी नहीं जाएगी
क्या यही है वफ़ा, मुझे ये तो बता
मेरी महुआ, वो तेरे वादे क्या हुए

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