चूँकि हलाल कानूनी है, इसलिए दूसरे धर्मों द्वारा ‘हम समुदाय विशेष को काम नहीं देते’ लिखना भी जायज है

'मजहब हितैषी' हलाल (साभार- सिएटल ग्लोबलिस्ट)

हाल ही में हलाल प्रमाणन के मामले पर बहुत कुछ कहा गया है। एक कथित विज्ञापन को लेकर हुए बवाल के बाद जिसमें ये क्लेम था कि जैन बेकरी में किसी भी मजहब विशेष के व्यक्ति को काम पर नहीं रखा गया है। जिसके बाद चेन्नई में जैन बेकरी के मालिक की गिरफ्तारी भी हुई। इस गिरफ्तारी के बाद पता चला कि वो विज्ञापन ही फोटोशॉप करके दुर्भावना के कारण वायरल किया गया था। गूगल पर सर्च करने पर दुकान बंद करने की भी नौबत आ गई। इसी की प्रतिक्रिया परिणाम स्वरूप सोशल मीडिया पर हलाल उत्पादों का बहिष्कार करने की माँग बढ़ गई है।

इस्लामिक मीडिया पोर्टल मिल्ली गज़ेट ने दावा किया कि इस तरह की माँगें ‘इस्लामोफोबिया’ और ‘कट्टरपन’ को दर्शाती हैं, हालाँकि इस की निंदा का कोई असर इस बहिष्कार की माँग पर पड़ता नहीं दिखाई दे रहा है।

ऐसे कई मुद्दे हैं जिन पर ध्यान देने की आवश्यकता है। क्या हलाल उत्पादों के बहिष्कार का आह्वान करना कट्टरता है? क्या इस तरह की माँगें इस्लामोफोबिया हैं? क्या चेन्नई पुलिस द्वारा जैन बेकरी के मालिक को गिरफ्तार करना ठीक था? क्या इस तरह कथित विज्ञापन निकालना अवैध या असंवैधानिक है? क्या हलाल प्रमाणीकरण का बहिष्कार करना अनैतिक है? ये ऐसे प्रश्न हैं जिन पर बात होनी चाहिए।

जैसा कि हम पहले भी कई बार बता चुके हैं कि हलाल प्रमाणन एक तरह का भेदभाव है। यह मांस उद्योग पर समुदाय विशेष के लिए एकाधिकार स्थापित करता है। जब एक मजहब वाले इस बात पर जोर देते हैं कि हलाल मीट ही खाना चाहिए, इसके साथ ही वह यह भी सुनिश्चित करते हैं कि जहाँ से आप मांस खरीद रहे हैं। उस प्रतिष्ठान पर केवल समुदाय विशेष के कर्मचारी ही कार्य करते हैं, क्यों कि उनका मानना है कि हलाल केवल मजहब का व्यक्ति ही इसे तैयार कर सकता है। इस तरह हलाल मीट सिर्फ भोजन सामग्री ही नहीं रह जाता बल्कि यह एक ही समुदाय के लोगों को रोजगार सुनिश्चित करने का तरीका भी है।

जो जानवर इस्लामी नियमों के अनुसार कत्ल किए जाते हैं सिर्फ उन्ही को हलाल माना जा सकता है, क्योंकि उसे कत्ल करने से पहले कुरान की आयत पढ़ी जाती है। वहीं दूसरे धर्म वालों द्वारा किया गया कोई भी कत्ल इसकी परिभाषा के अनुसार हलाल नहीं माना जाता। इस तरह हलाल मीट को ही खाने योग्य बताना दुर्भावनापूर्ण और गुमराह करने वाली मानसिकता को दर्शाता है। हलाल प्रमाणन मीट उद्योग में समुदाय विशेष के लिए एकाधिकार भी स्थापित करता है।

हालाँकि, शाकाहारी उत्पादों के प्रमाणन प्रक्रिया हलाल प्रमाणन से थोड़ी सी भिन्न है, जबकि मूल प्रक्रिया समान है। प्रमाणन के लिए एक प्रतिष्ठान को हलाल प्रमाणीकरण प्राप्त करने के लिए एक इस्लामी प्रमाणन प्राधिकरण को एक निश्चित राशि का भुगतान करना पड़ता है। इस प्रकार यदि कोई व्यावसायिक संस्थान समुदाय विशेष के साथ व्यापार करना चाहता है, तो उन्हें पहले समुदाय विशेष के ‘ठेकेदारों’ को ‘हफ्ता’ देना होगा।

वास्तव में इस तरह के प्रमाण पत्र प्राप्त करने की लागत को समुदाय विशेष और अन्य धर्मों के लोग, दोनों तरह के ग्राहकों से वसूल किया जाता है। इस प्रकार दूसरे धर्मम का ग्राहक समुदाय विशेष के ‘ठेकेदारों’ की आजीविका का माध्यम हैं।

इन स्थितियों को देखते हुए यह समझना आसान है कि अन्य धर्म इस तरह की व्यवस्था से संतुष्ट नहीं होंगे। दूसरे मजहब वाले समुदाय विशेष की मजहबी मान्यताओं के कारण भुगतान के लिए बाध्य नहीं हैं, क्योंकि हलाल प्रमाणीकरण साफ तौर पर एक आर्थिक गतिविधि है, इसलिए विरोध भी आर्थिक क्षेत्र में होगा। इस प्रकार, हमारे तीन सवालों का जवाब दिया जा चुका है।

अब आगे बात करे तो, अगले सवाल का जवाब है कि हलाल उत्पादों के बहिष्कार का आह्वान करना कोई गलत बात नहीं है और यह निश्चित रूप से ‘इस्लामोफोबिया’ नहीं है और ये अनैतिक भी नहीं है। इसलिए हर एक जागरूक नागरिक की जिम्मेदारी है कि वह सभी प्रकार के भेदभावों के खिलाफ अपनी आवाज उठाए।

अब हम अन्य दो प्रश्नों की ओर आते हैं जो खास मजहब के कर्मचारियों को न रखने वाले कथित विज्ञापन की संवैधानिकता व वैधता की बात करते हैं और चेन्नई पुलिस द्वारा की गई गिरफ्तारी पर सवाल खड़ा करते हैं। हलाल मीट पर जोर देना आर्थिक बहिष्कार का ही एक रूप है। समुदाय विशेष के उपभोक्ता मीट उद्योग में केवल अपने ही मजहब की भर्ती के लिए अपने समुदाय के लोगों को ही प्रोत्साहित करते हैं।

इससे यह प्रभाव पड़ेगा कि मीट इंडस्ट्री हलाल मीट का उत्पादन बढ़ाने पर जोर देगी, क्योंकि ज्यादातर उपभोक्ताओं को हलाल मीट खाने में कोई परेशानी नहीं होगी, लेकिन दूसरे मजहब का आदमी कभी गैर-हलाल मीट नहीं खाएगा। इस प्रकार हलाल मीट कारोबार का दायरा ज्यादा बढ़ जाता है। इसी प्रकार की व्यवस्था को नसीम निकोलस तालेब के शब्दों में ‘अल्पसंख्यकों की तानाशाही’ कहा गया है।

इस प्रकार, मजहब विशेष की हलाल मीट की माँग के कारण मीट इंडस्ट्री का झुकाव सिर्फ हलाल मीट के उत्पादन की तरफ है। इस तरह समुदाय विशेष को मांसाहार में अन्य धर्मों के साथ भारी भेदभाव करके रोजगार में एकाधिकार देता है। जितनी कि यह व्यवस्था खतरनाक है उनता ही देश का संविधान इस पर मौन है।

इस तरह के मामलों में आज तक कोई गिरफ्तारी नहीं हुई है, जबकि तथ्य यह है कि मीट उत्पादों पर हलाल प्रमाणीकरण का नियम यह घोषणा करता है कि मीट उत्पाद बनाने में किसी अन्य धर्म वालों को काम पर नहीं रखा गया था। इसलिए यदि व्यावसायिक प्रतिष्ठान बिना किसी कानूनी भय और संविधान की सहमति से दूसरे धर्म को रोजगार से वंचित करने की खुली घोषणा कर सकते हैं, तो किसी दूसरे धर्म प्रतिष्ठान के द्वारा इसी तरह की घोषणा करने पर कार्रवाई क्यों की जानी चाहिए?

अगर हलाल प्रमाणीकरण कानूनी है, तो अन्य व्यावसायिक प्रतिष्ठानों को भी यह अधिकार है कि वह भी अपने प्रतिष्ठान में धर्म के आधार पर दूसरे मजहब को रोजगार देने से इनकार कर सकता है। यदि समुदाय मीट उद्योग में अपने ही मजहब वालों के रोजगार को प्रोत्साहित कर सकता है, जो हलाल मीट अनिवार्य रूप से जोर देता है, तो दूसरे धर्मों को भी अपने व्यवसायिक प्रतिष्ठानों में विशेष धर्म के लोगों को नौकरी पर रखने के लिए प्रोत्साहित करने का अधिकार है।

यदि हलाल कानूनी और संवैधानिक है तो, उदाहरण के तौर पर अगर कोई हिंदू ज़ोमैटो या अमेज़ॅन या किसी ई-कॉमर्स सेवा पर ख़ास मजहब के डिलीवरी वाले व्यक्ति से डिलीवरी नहीं लेता है, तो ऐसा करना एक ग्राहक के रूप में उनका अधिकार है।

अन्य धर्म भी अन्य मोर्चों पर भी इस तरह विचार कर सकता है, यदि वे अपने स्वयं के धर्म वाले विक्रेताओं से किराने का सामान और सब्जी खरीदना चाहते हैं, तो ऐसा करना उनका अधिकार है। यदि हलाल कानूनी और संवैधानिक है, तो ऐसा व्यवहार कानूनी रूप से या नैतिक रूप से गलत नहीं है। जब तक हलाल की भेदभावपूर्ण प्रथा के खिलाफ विरोध केवल आर्थिक क्षेत्र तक ही सीमित है, तब तक यह पूरी तरह से उचित है।

भारतीय संविधान में समानता को परिभाषित किया गया है और समानता के सिद्धांत निर्धारित करते हैं कि प्रत्येक नागरिक को कानून के समक्ष समान होना चाहिए। हालाँकि, पुलिस कभी-कभी यह भूल जाती है कि जैन बेकर्स के मालिक की गिरफ्तारी और झारखंड में हिंदू विक्रेता के खिलाफ कानूनी कार्रवाई कहीं न कहीं एकतरफा प्रतिक्रिया है।

यह उल्लेख करना भी उचित है कि इन दोनों अवसरों पर मजहब विशेष के कुछ लोगों द्वारा सोशल मीडिया पर आपत्ति दर्ज कराने पर पुलिस ने कार्रवाई की है। खास समुदाय को यह अहसास होना चाहिए कि यदि वे आर्थिक मोर्चे पर अन्य धर्मों के खिलाफ सक्रिय रूप से भेदभाव करते हैं, तो दूसरा पक्ष भी समान रूप से जवाबी कार्रवाई का अधिकार रखता है।

यह इस्लामोफोबिया नहीं है, यह प्रतिक्रिया का स्वाभाविक नियम है। ख़ास समुदाय को यह भी अहसास होना चाहिए कि अन्य धर्म उनके मजहबी विश्वासों को सब्सिडी देने के लिए बाध्य नहीं हैं और उन्हें उम्मीद करना भी बंद कर देना चाहिए।

दुर्भाग्यवश खास समुदाय ने पीड़ितों की तरह रोने की आदत बना ली है, जबकि वो हर तरफ हावी हैं। भारतीय कानून एजेंसियों को इस तरह की आपत्तियों को बढ़ावा नहीं देना चाहिए, क्योंकि इस तरह की कार्रवाई निश्चित रूप से समुदायों के बीच भेदभाव व कड़वाहट पैदा करती है।

खास समुदाय यदि तर्क में यकीन रखता है तो उम्मीद है कि खास समुदाय को अपने भेदभाव पूर्ण व्यवहार एहसास होगा और वे भेदभावपूर्ण प्रथाओं को या तो छोड़ देंगे या दूसरे को भी वैसा ही अधिकार देने पर सहमत होंगे। अंत में इतना ही कि इन सभी बातों पर विचार किया जाना चाहिए, जिसमें कि पूरे देश की भलाई है।

K Bhattacharjee: Black Coffee Enthusiast. Post Graduate in Psychology. Bengali.