देशद्रोहियों और दंगाइयों की हिंसा के बीच पिसता कौन है? गरीब छात्र जो किसी पार्टी के नहीं

JNU जैसे शिक्षण संस्थानों पर विरोध के नाम पर बढ़ता हिंसा

पिछले दिनों जेएनयू में आंदोलनों और विरोध के नाम पर हुए हिंसक प्रदर्शनों ने यहाँ की शिक्षा व्यवस्था पर एक बार फिर सवाल खड़े कर दिए हैं। पहले तो जेएनयू में लगे ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे’ के नारों ने यहाँ रहने वाले देशद्रोहियों की पहचान कराई थी। लेकिन हाल ही में सीएए के खिलाफ़ विरोध प्रदर्शन के नाम पर हुई हिंसक घटनाओं ने यहाँ रहने वाले ‘दंगाइयों’ की पहचान करा दी है।

साथ ही इस बीच जेएनयू जैसे विश्वविद्यालय में एक प्रचलन तेज़ी से उभरा है। जिसमें पहले तो कैंपस में मौजूद मासूस छात्र-छात्राओं की भीड़ को इकठ्ठा किया जाता है और फिर उस भीड़ को हिंसा पर उतारू करने के लिए सुनियोजित तरीके से बरगलाया जाता है। यह कार्य उन तथाकथित और टुटपुंजिए छात्र नेताओं द्वारा किया जाता है जो अपने साथ विरोध प्रदर्शनों में भीड़ इकठ्ठा करने वाले ठेकेदार का तमगा लिए घूमते हैं। अब सवाल खड़ा होता कि यह सब जेएनयू में ही क्यों तो ध्यान में आता है कि पूरे देश से समाप्ति की ओर बढ़ रहे वामपंथियों को साँस लेने की जगह एकमात्र सिर्फ जेएनयू में ही बची है। कहने को तो यहाँ देशहित में भी बहुत सी गतिविधियाँ चलती हैं लोकिन वह किसी को दिखाई नहीं देतीं। दिखाई देता है तो यहाँ सिर्फ हर महीने किसी न किसी को लेकर विरोध-प्रदर्शन और फ़िर उसके नाम पर सड़कों पर उतरकर हिंसा।

देश में विश्वविद्यालयों की स्थापना इसलिए की जाती है कि देश का युवा उसमें उच्च शिक्षा ग्रहण कर सके और ऐसे संस्थानों में विभिन्न कोर्सों की फीस भी इसलिए कम से कम रखी जाती है कि ग़रीब से ग़रीब का बच्चा उसकी ज़द में आकर अपने सपनों को साकार कर देश के सुनहरे भविष्य को गढ़ सके। लेकिन आज देश के उच्च और प्रमुख शिक्षण संस्थान ही वामपंथियों, देशद्रोहियों और अब भीड़ इकठ्ठा करने वाले ठेकेदारों का गढ़ बनते जा रहे हैं। यह सब कोई बीते ज़माने की बात नहीं बल्कि कुछ वर्षों के भीतर ही हमने यह सब होते हुए देखा है।

देश में एक नहीं बल्कि सैकड़ों विश्वविद्यालय हैं जिनमें से किसी विश्वविद्यालय के छात्र-छात्राओं ने तो सीएए के खिलाफ़ शांति पूर्वक विरोध प्रदर्शन किया तो किसी के छात्र-छात्राओं ने सीएए के समर्थन में रैली निकाली। लेकिन इनमें से 3 से 4 ही ऐसे विश्वविद्यालय थे जिनमें हिंसक प्रदर्शन हुए। जहाँ विरोध के नाम पर मजहबी नारे लगाए गए। इस बात की जानकारी खुद गृहमंत्री अमित शाह ने एक मीडिया चैनल के कार्यक्रम में दी। जिसमें अमित शाह ने बताया कि देश भर में 224 विश्वविद्यालय हैं जिसमें अगर निजी विश्वविद्यालयों को जोड़ दिया जाए तो यह आँकड़ा 300 के पार हो जाता है। इनमें से 22 विश्वविद्यालय ऐसे हैं जिनमें अपने-अपने तरीके से प्रदर्शन हुआ। लेकिन इनमें से 4 विश्वविद्यालयों में गंभीर और हिंसक प्रदर्शन हुए। जिसमें जामिया मिलिया इस्लामिया, जेएनयू, एएमयू और लखनऊ के नदवा कॉलेज और इंटीग्रल विश्वविद्यालय प्रमुख रूप से शामिल है।

विरोध के नाम पर जेएनयू में की गई तोड़फ़ोड़ की एक तस्वीर

अब सवाल यह खड़ा होता है कि देश में जब 300 से अधिक विश्वविद्यालय हैं तो इन चार विश्वविद्यालयों में ही क्यों बात बे बात पर हिंसक प्रदर्शन हुए। क्या मान लिया जाए कि यहाँ पढ़ने वाले लोग ज़्यादा विचारवान है या ज़्यादा जागरुक हैं या फिर मान लिया जाए कि यहाँ के लोग पढ़ाई के नाम पर कुछ और ही करते हैं। यह तो आप खुद ही तय करें। क्योंकि यह बात किसी से छिपी नहीं कि देश की संसद पर हमला करने वाले अफ़जल गुरु को फाँसी देने के बाद सबसे पहले उसके समर्थन में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में ही मार्च निकाला गया था। यह भी सब जानते हैं कि देश की सुप्रसिद्ध विश्वविद्यालय एएमयू से पढ़ने के बाद मन्नान वानी कैसे आतंकवादी बनता है और अपने ही देश के ख़िलाफ ऐके-47 उठाता है। यह भी सब जानते हैं कि वह जेएनयू ही है जहाँ कितने अफ़जल मारोगे हर घर से अफ़जल निकलेगा, और भारत तेरे टुकड़े होंगे इंशा अल्लाह… इंशा अल्लाह के नारे लगाए गए थे।

लेकिन दुख तब होता है कि जब देश के ऐसे उच्च संस्थानों में आंदोलनों के नाम पर हिंसक प्रदर्शन किए जाते हों और शिक्षा के नाम पर उसमें अड्डा जमाकर देश के टुकड़े-टुकड़े करने के नारे लगाए जाते हों। यह सब यहीं खत्म नहीं होता। एक सवाल इसके आगे भी जो किसी को भी सोचने पर मजबूर कर सकता है। वह यह कि इन घटनाओं में एक वर्ग तो वह होता है जो सुनियोजित ढंग से शामिल होता है और एक वर्ग वह होता है जो कि जाने-अनजाने में घटनाओं में शामिल तो हो जाता है लेकिन इसके बाद कानूनी कार्यवाई में फँसने के बाद वह अपने आप को निर्दोष बताते हुए पहले तो दर-दर की ठोकरें खाता है और फ़िर अपनी ही आँखों से अपने भविष्य को चौपट होते हुए भी देखता है।

अब बात आती है कि वह कौन छात्र होते हैं जो इतनी आसानी से विरोध के नाम पर हो हल्ला करते हुए पहले तो सड़क तक आते हैं और फ़िर वह छात्र सरकारी संपत्तियों को नुकसान पहुँचाते हुए हिंसा पर उतारू हो जाते हैं। उदाहरण के तौर पर याद करें तो कुछ ऐसे ही छात्रों की एक भीड़ दिल्ली में गाँधी परिवार से एसपीजी हटाने के विरोध में देखने को मिली थी। जो गाँधी परिवार से एसपीजी हटाने का विरोध तो कर रही थी लेकिन इन विरोध करने वाले अधिकांश छात्रों को ये नहीं पता था कि वह विरोध आख़िर किसका कर रहे हैं और वह वहाँ क्यों इकठ्ठा हुए हैं। इस बात का खुलासा तब हुआ था कि जब एक टीवी पत्रकार ने उनसे पूछा था कि वह किसका विरोध कर रहे हैं और उनकी माँगे क्या हैं।

इस बीच एक छात्र ने तो यहाँ तक कह दिया हमें अपनी सुरक्षा चाहिए और हमें नौकरी भी। हम इसलिए यहाँ आए हुए हैं। वहीं जब वहाँ विरोध कर रहे छात्र-छात्राओं से पूछा गया कि एसपीजी का पूरा नाम क्या है तो अधिकांश छात्राऐं अपने चेहरे को छिपाती हुई नज़र आईं। खैर, सोचने वाली बात यह कि विश्वविद्यालय में दूर शहरों से पढ़ाई करने के लिए आए छात्र आख़िर कैसे हज़ारों की संख्या में इकठ्ठा हो जाते हैं। वास्तव में ये छात्र विरोध प्रदर्शन के लिए ही हॉस्टल से बाहर आते हैं या फ़िर इसके पीछे का मदसद कुछ औऱ ही होता है? अग़र इनको विरोध ही करना था तो ये छात्र शांतिपूर्ण तरीके से ही सरकार की नीतियों के ख़िलाफ में अपना विरोध जता सकते थे।

जेएनयू में फीस वृद्धि को लेकर हो रहे विरोध में शामिल छात्रों की भीड़ (फ़ाईल फ़ोटो)

लेकिन, विरोध के नाम पर की गई हिंसा किसी दूसरी ओर इशारा करती है। वह यह कि जेएनयू जैसे शिक्षण संस्थान में कुछ ऐसे ठेकेदार पैदा हुए हैं जो कि भीड़ इकठ्ठा करने का काम करते हैं। यह काम वह किसी समाज सेवा के लिए नहीं बल्कि इसके लिए करते हैं कि वह कैंपस के उभरते हुए तथाकथित छात्र नेता कहला सकें। जिसके बाद विश्वविद्यालय में पढ़ने वाले छात्र इन तथाकथित नेताओं के चुंगल में आ जाते हैं। वहीं ये तथाकथित नेता सीधे-साधे छात्रों का फ़ायदा उठाकर उनको भलीभाँति उकसाने और बरगलाने का काम करते हैं। आख़िर देश का भविष्य किस ओर जा रहा है। यह बेहद चिंता का विषय है।