बिहार चुनाव 2020: जमुई की 4 सीटों पर ‘बंगला’ और ‘बागी’ से उलझे समीकरण

जनसंपर्क के दौरान जमुई से बीजेपी की प्रत्याशी श्रेयसी सिंह

बिहार के 14 जिलों की जिन 71 सीटों पर पहले चरण यानी 28 अक्टूबर को वोट डाले जाने हैं, उनमें जमुई की भी चार सीटें हैं। ये हैं: जमुई, सिकंदरा, झाझा और चकाई। 2015 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी को इनमें से केवल एक सीट झाझा में सफलता मिली थी। दो सीटें (जमुई और चकाई) तत्कालीन महागठबंधन की साझेदार राजद और एक सीट (सिकंदरा) कॉन्ग्रेस के खाते में गई थी।

हालाँकि इस बार समीकरण बदले-बदले से दिख रहे हैं। इसके तीन बड़ी वजहें जमीन पर दिख रही हैं। पहली वजह, पिछला चुनाव राजद और कॉन्ग्रेस के साथ लड़ने वाली जदयू इस बार एनडीए में है। दूसरी, पिछले चुनाव में बीजेपी के साथ रही लोजपा अकेले लड़ रही है। ध्यान रहे कि यह वह इलाका है जहाँ लोजपा का प्रभाव है। बीते साल जमुई (सुरक्षित) लोकसभा सीट से लोजपा के चिराग पासवान ने महागठबंधन के प्रत्याशी को करीब 2.41 लाख मतों के अंतर से पराजित किया था। अंतिम नतीजों के लिहाज से जो तीसरा कारण निर्णायक साबित हो सकता है, वह है इस इलाके में प्रभाव रखने वाले पूर्व मंत्री नरेंद्र सिंह के बेटों का मैदान में होना।

जमुई की सीट से बीजेपी ने पूर्व केंद्रीय मंत्री दिवंगत दिग्विजय सिंह की शूटर बेटी श्रेयसी सिंह को मैदान में उतारकर इसे इस चरण की सबसे चर्चित सीट में बदल दिया है। श्रेयसी हाल ही में बीजेपी में शामिल हुईं थी। लेकिन उनकी पारिवारिक सियासी पृष्ठभूमि काफी मजबूत है। जमीन पर युवाओं और महिलाओं के बीच उनका आकर्षण भी जनसंपर्क के दौरान देखने को मिल रहा है।

2015 में चकाई छोड़ शेष तीन सीटों पर एनडीए और महागठबंधन के प्रत्याशी के बीच सीधा मुकाबला था। इस बार सभी सीटों पर त्रिकोणीय मुकाबला दिख रहा है। जीत और हार के बीच का फर्क इसी तीसरे कोण के प्रदर्शन से तय होगा।

जमुई सीट पर राजद ने मौजूदा विधायक विजय प्रकाश पर ही दाँव लगाया है। विजय इस सीट से कई बार लड़ चुके हैं। पहली बार फरवरी 2005 में जीते। उसके बाद लगातार दो बार बड़े अंतर से हारे। लेकिन 2015 में जदयू के साथ होने का लाभ उन्हें मिला और उन्होंने करीब आठ हजार वोटों के अंतर से यह सीट जीती। महागठबंधन की सरकार में वे मंत्री भी थे। उनकी पत्नी विनीता प्रकाश जुमई जिला परिषद की अध्यक्ष है, जबकि बड़े भाई जय प्रकाश नारायण यादव बगल की बाँका सीट से सांसद और केंद्र में मंत्री रह चुके हैं।

पिछली बार इस सीट से हारे बीजेपी के अजय प्रताप इस बार रालोसपा की तरफ से मैदान में हैं। पराजित होने से पहले अजय लगातार दो बार यहाँ से विधायक रहे थे। वे नरेंद्र सिंह के बेटे हैं। विजय और अजय अपनी-अपनी जीत के दावे कर रहे हैं, पर जमुई की कोई भी राजनीतिक चर्चा आजकल सिमट कर श्रेयसी सिंह पर ही आती है। उनके पक्ष में यहाँ से लोजपा के उम्मीदवार का नहीं होना भी है। इसे खुद श्रेयसी ने भी ऑपइंडिया के साथ बातचीत में स्वीकार किया।

ठीक इसके विपरीत झाझा की सीट पर लोजपा के उम्मीदवार का होना एनडीए की परेशानी बढ़ा रहा है। पिछला चुनाव यहाँ से बीजेपी के रवींद्र यादव जीते थे। उन्हें 65,537 वोट मिले थे। जदयू के दामोदर रावत 43,451 वोट पाकर दूसरे नंबर पर थे। इस बार यह सीट जदयू के खाते में गई है और दामोदर रावत एनडीए उम्मीदवार हैं। रवींद्र यादव लोजपा के चुनाव निशान ‘बंगला’ पर मैदान में हैं। लोजपा के उम्मीदवार जिन सीटों पर मजबूत बताए जा रहे हैं, उनमें से एक झाझा भी है। हालाँकि क्षेत्र के सुदूर ग्रामीण इलाकों में मतदान से करीब दो हफ्ते पहले भी अपने भ्रमण के दौरान हमने पाया कि मतदाताओं का एक वर्ग रवींद्र यादव की पार्टी और चुनाव निशान को लेकर भ्रम में हैं। राजद से राजेंद्र प्रसाद प्रत्याशी हैं। लेकिन जीत और हार के बीच का फैक्टर रवींद्र यादव हैं।

चकाई की सीट पर निर्णायक फैक्टर एक निर्दलीय उम्मीदवार हैं। इनका नाम सुमित सिंह है। ये भी नरेंद्र सिंह के बेटे हैं। पिछली बार बतौर निर्दलीय करीब 35 हजार वोट पाकर दूसरे नंबर पर रहे थे। करीब 47 हजार वोट पाकर राजद की सावित्री देवी जीती थीं। इस बार भी राजद ने उन्हें मौका दिया है। एनडीए में यह सीट भी जदयू के खाते में गई है और उसने संजय प्रसाद को उम्मीदवार बनाया है। यहाँ से 2015 में लोजपा के विजय कुमार सिंह 28,535 वोट पाकर तीसरे नंबर पर रहे थे। इस बार लोजपा ने संजय मंडल को मैदान में उतारा है। जाहिर है इस सीट पर भी लोजपा का अच्छा-खासा प्रभाव है। लेकिन सबसे ज्यादा चर्चा सुमित सिंह की है।

हमें स्थानीय लोगों ने बताया कि चुनाव हारने के बावजूद सुमित सिंह 5 साल इलाके में लगातार सक्रिय रहे। पिता के प्रभाव के अलावा उन्हें इसका फायदा होता दिख रहा है। वैसे यह कहना मुश्किल है त्रिकोणीय मुकाबले में जीत किसकी होगी पर यह बिहार की उन सीटों में से एक होगी जहाँ 10 नवंबर को नतीजे सामने आने के बाद जीत-हार बेहद मामूली अंतर से होगा।

सिकंदरा की सीट सुरक्षित है। यहाँ कॉन्ग्रेस से सुधाीर कुमार उर्फ बंटी चौधरी मैदान में हैं। 2015 में उन्हें करीब 59 हजार वोट मिले थे। दूसरे नंबर पर लोजपा के सुभाष पासवान करीब 51 हजार वोट लाकर रहे थे। बंटी इन पाँच सालों में अपने काम की बजाए अन्य वजहों से चर्चा में रहे हैं। इस बार लोजपा ने रविशंकर पासवान को उतारा है। एनडीए में यह सीट जीतनराम माँझी के ‘हम’ को मिली है। ‘हम’ पार्टी के प्रत्याशी प्रफुल्ल माँझी हैं। पिछली बार लोजपा के उम्मीदवार रहे सुभाष पासवान इस बार बागी हैं। शुरुआत में इस सुरक्षित सीट से खुद चिराग पासवान के भी विधानसभा चुनाव लड़ने की चर्चा थी। यहाँ लोजपा की मजबूत पैठ मानी जाती है। रामविलास पासवान के निधन के बाद पार्टी के पक्ष में मतदाताओं के एक वर्ग में सहानुभूति भी देखने को मिल रही है।

दिलचस्प यह है कि जमीन पर मतदाता सरकारी योजनाओं का लाभ नहीं मिलने और भ्रष्टाचार को लेकर शिकायत कर रहे हैं। लॉकडाउन से जीवन प्रभावित होने का दुखड़ा सुनाते हैं। लेकिन हर चर्चा आखिर में उम्मीदवार के नाम पर ही खत्म हो रही है। जिले के जिस एकमात्र सीट पर बीजेपी की उम्मीदवार हैं, वहां लोजपा एनडीए के लिए एक्स फैक्टर है। अन्य तीन सीटों पर वह एनडीए की सँभावनाओं पर असर डाल सकती है।

जैसा कि स्थानीय पत्रकार मुरली दीक्षित कहते हैं, “कागज के समीकरण और जमीनी हकीकत अलग-अलग हैं। इसका बड़ा कारण जदयू का इस बार महागठबंधन से अलग होना और लोजपा का एनडीए से अलग होकर चुनाव लड़ना है। जदयू के एनडीए में आने से पिछली बार राजद और कॉन्ग्रेस को मिले वोट में से उसका आधार खिसकना तय है। इसी तरह जिन सीटों पर लोजपा लड़ रही है, उसका भी प्रभाव पड़ना तय है। साथ ही सुमित सिंह और अजय प्रताप जैसों की दावेदारी भी आसानी से खारिज नहीं की जा सकती।”

झारखंड से सटे इसे पिछड़े जिले में एक नाम जो हर जगह चर्चा में है, वह है प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का। आश्चर्यजनक तौर पर जिन मतदाताओं को यह भी नहीं पता है कि राजद और जदयू अब साथ नहीं रहे वह भी नरेंद्र मोदी और बीजेपी के चुनाव चिह्न को पहचानते हैं।

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