संसद का शीतकालीन सत्र बुद्धवार (जनवरी 09, 2019) को समाप्त हो गया जिसकी वजह से ट्रिपल तलाक़ (तीन तलाक़) बिल पर राज्यसभा की मुहर नहीं लग सकी, और ट्रिपल तलाक़ संबंधी अध्यादेश एक क़ानून बनने से वंचित रह गया। ऐसा होने से यह अध्यादेश स्वत: निरस्त हो गया।
अध्यादेश के निरस्त हो जाने से ट्रिपल तलाक़ अपराध के दायरे से बाहर निकल आया है, साथ ही तलाक़शुदा महिलाओं के संरंक्षण की बात का भी अस्तित्व मिट गया है। यह बिल लोकसभा में पास हो गया था, लेकिन राज्यसभा में विपक्ष के कड़े विरोध और अल्पमत के चलते पास होने से रह गया।
क़ानूनी भाषा में इसे समझें तो यह नियम होता है कि किसी भी अध्यादेश को लाने के बाद उसे पहले ही संसदीय सत्र में पेश करना होता है। उसके बाद ही उसे क़ानून का रूप दिया जाता है।
मुस्लिम समाज की महिलाओं को बराबरी के स्तर पर लाने और उन्हें डर के साये से दूर रखने के लिए मोदी सरकार द्वारा इस अध्यादेश को सितंबर 2018 में जारी किया गया था। अब, सरकार इस अध्यादेश को 31 जनवरी से शुरू होने वाले बजट सत्र में फिर से लाएगी ताकि 2019 के चुनाव के दौरान इसे पूर्ण रूप से प्रभावी बनाया जा सके।
क़ानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने कहा कि पड़ोसी देश पाकिस्तान और बांग्लादेश सहित लगभग 22 देशों ने इस प्रथा पर प्रतिबंध लगा दिया है। वहीं, कॉन्ग्रेस ने अपराधियों के लिए तीन साल की सज़ा का पुरज़ोर विरोध किया और इस मुद्दे पर आम सहमति बनाने पर चर्चा करने की माँग की।
ट्रिपल तलाक़ संबंधी इस बिल का उद्देश्य मुस्लिम महिलाओं को तीन बार तलाक़ बोलकर पारिवारिक संबंधों से जबरन निकाल फेंकने की कुप्रथा से मुक्त करना था। सदियों से चली आ रही तीन तलाक़ से जुड़ी इस बेतुकी प्रथा की वजह से मुस्लिम महिलाएँ हमेशा से ही डर के साये में जीवन जीने को मजबूर रही हैं। ऐसे में इस विधेयक का क़ानून बनते-बनते रह जाना मुस्लिम महिलाओं के लिए काफ़ी निराशा भरा साबित होगा।