ट्विटर जगत में हाय तौबा मची हुई है। जो ट्विटर लिबरल-वामपंथियों की नई लंका लगभग बन ही चुका था, अचानक एक पूंजीपति ने खरीद लिया। अधिग्रहण की खबर आते ही दक्षिणपंथियों को लगने लगा था कि पवनसुत ही हैं जो मस्क का रूप धर कर वामपंथियों की लंका जलाने निकल पड़े हैं।
“मस्क” समान रूप कपि धरी।
लंकहि चलेउ सुमिरि नरहरी॥
पूंजीवादी के हाथ में आते ही उसने कमाई के साधन ढूँढने शुरू कर दिए। मुफ्त न रहने से दुखी तो सभी नील मुकुटधारी हुए, लेकिन चंदे की उगाही से धंधे की कमाई के बारे में सोचते ही ट्विटर के वामपंथी कर्मचारियों के हाथ पाँव फूल गए। रिसेशन में जाते अमेरिका में ट्विटर के वामपंथी और झुके कर्मचारी चाहकर भी नौकरी छोड़कर नहीं जा सकते। हाँ उन्हें निकाला जरूर जा सकता है। कुछ निकाले भी गए , कुछ पर नकेल भी कसी गई। कुल मिला कर पूंजीपति मस्क के हाथ में आते ही ट्विटर पर वामपंथियों की टाँय-टाँय ऐसे शुरू हो गई जैसे उनके टें बोलने के दिन आ गए हों। सबसे अधिक दुःख तो पत्रकारों को हुआ।
कल तक जो नील मुकुट “लिबरल प्रिवलेज” हुआ करता था, अचानक अब आठ डॉलर का हो गया। भारत ही नहीं दुनिया भर के नील मुकुटधारी जो इसको अपना विशेषाधिकार समझते हुए इतराते थे अचानक बिलबिला उठे। आठ डॉलर केवल नील मुकुट के?
‘केवल नील मुकुट’, अगर अर्थहीन है तो चाहिए ही क्यों? अगर चाहिए ही है तो मूल्य देकर क्यों नहीं ले सकते? लिबरल प्रिवलेज था भाई, चुन-चुन कर दिया जाता था, अब कोई भी ऐरा-गैरा आठ डॉलर में ले लेगा। फिर विशेष वाली बात रह कहाँ जाएगी? लेने को तो वामपंथी जहर का भी चंदा इकठ्ठा कर के ही लेते हैं, सो ये आठ डॉलर भी कहीं न कहीं से चंदा इकठ्ठा करके जुटा ही लेंगे। उनके लिए तो कल भी पैसे पप्पू देगा वाली बात थी, आगे भी रहेगी। कल तक पाँच रूपए माँगते थे, अब छह माँग लेंगे। क्राउड फंडिंग से लेकर लिंगपरिवर्तन से लेकर विदेश यात्राओं तक के लिए पैसा जमा करने वालों के लिए यह कौन सी नई बात होगी? उन्हें कौन सा अपनी जेब से देना है, लेकिन समस्या आठ डॉलर नहीं है, समस्या है जो इस नील मुकुट के साथ जुड़ी हुई प्रतिष्ठा थी अब उतनी नहीं रह जाएगी।
ऊपर से नील मुकुट देखकर यह तो पता चल ही जाएगा कि किसके पास पैसा है। फिर किस मुँह से वो गरीबी वाली कहानियाँ बनाएँगे? किस मुँह से टमाटर आलू के भाव पर रोना रोएँगे? उससे बड़ी बात तो ये कितने ऐसे महानुभाव होंगे जो मुफ्त न होने की वजह से अपना नील मुकुट त्याग पाएँगे? त्याग देंगे तो अपने उठने बैठने वालों को क्या मुँह दिखाएँगे? क्या कहेंगे अपने चेले चपाटों से जिन्हें अपना नील मुकुट दिखा कर रौब दिखाते थे?
जैसे मध्यम वर्ग में कोई वस्तु बजट से बाहर और आवश्यकता न होने पर भी लेना पड़ती है, क्योंकि पडोसी उसे प्रतिष्ठा का प्रश्न बना देते हैं, वैसे ही क्या अब नील मुकुट हो जाएगा? क्या इसी होड़ में ये आज के नील मुकुटधारी पैसे देकर भी अपना नील मुकुट बचाएँगे?
बचाएँ न बचाएँ, हज़ारों सरकारी और निजी संस्थाओं से तो ट्विटर की कमाई तो भरपूर हो ही जानी है।
एक भूतपूर्व पत्रकार टाइप आवेदक नील मुकुट न मिलने से परेशान थे, लेकिन अब अचानक पैसे की बात आने से सोच में डूब गए हैं – लें, कि न लें? कहते फिर रहे हैं षड्यंत्र के तहत हमारा अकाउंट वेरीफाई नहीं किया जा रहा।
उधर ट्विटर के आधुनिक मंडल जी बिफर पड़े हैं। कह रहे हैं इसमें EWS को कोई छूट तो देनी थी? वैसे मस्क किस्मतवाले हैं कि वो भारत में न हुए। हुए होते तो उन्हें न जाने कितनों को नील मुकुट बस इसलिए देना पड़ता कि उनकी कम्पनी चल पाए। नहीं तो लोग ‘छीन के लेंगे’ पर उतर आते। सरकार इसमें भी आरक्षण लागू कर देती। हो सकता है कोई नील मुकुट सेस लगाकर गरीबों, पिछड़ों, दलितों अल्पसंख्यकों के साथ मंत्रियों, संतरियों के नील मुकुट का खर्चा निकाल लेती।
केजरीवाल मुफ्त बिजली के साथ मुफ्त नील मुकुट का वादा चुनाव में कर देते। या हैंडसम सिसोदिया जी एक बोतल ब्लू लेबल के साथ ब्लू-टिक मुफ्त की योजना निकाल देते। बंगाल में नील मुकुट के नाम पर कोई चिटफंड शुरू हो जाता। तृणमूल सरकार बांग्लादेशियों को चुन चुन कर आधार कार्ड, राशन कार्ड के साथ नील मुकुट भी देने लगती। पंजाब वाले सरकार से नील मुकुट पर न्यू.स.मू माँगने धरने पर बैठ जाते। दक्षिण भारत में चुनाव में कोई द्रमुक पार्टी घर घर जाकर नील मुकुट घर घर लगा आती। पास्टर लोग प्रार्थना सभा में नील मुकुट ऐसे दिलवाते जैसे व्हीलचेयर से लंगड़ों को उठाकर चला देते हैं।
उत्तर प्रदेश वाले कहते सिर्फ अयोध्या, काशी मथुरा को नील मुकुट दे दो बाकि सब भाड़ में जाओ। बिहार में कोई नील मुकुट दिलवाने के लिए कोचिंग सेंटर शुरू हो जाता। मध्य प्रदेश में मामाजी नील मुकुट को समग्र कार्ड से जोड़ देते। पटवारी परीक्षा में नील मुकुट अनिवार्य कर दिया जाता।
कोई न कोई गुजराती मस्क से कोई डील कर के डीलरशिप ले लेता और नील मुकुट दिलवाने का बिजनेस डाल देता।
ब्लू-टिक न मिलने पर आत्मदाह की धमकी देने वालों की ख़बरें अखबारों में आतीं। ऐसी भी ख़बरें आती कि फलाँ मास्टर के लड़के ने पंचर की दूकान पर काम करके पैसे जोड़े और ब्लू-टिक लिया।
उधर पाकिस्तानी अपनी आदत के अनुसार ब्लू-टिक जिहाद शुरू कर देते। मौलवी बताने लगते कि जेहाद में मरने के बाद हूरों के साथ ब्लू-टिक भी मिलता है। नील मुकुट मुफ्त होने पर हलाल और पैसे लगने पर कुफ्र घोषित कर दिया जाता। JNU में एडमिशन के साथ नील मुकुट दिया जाने लगता। कोई दावा करता की ब्लू-टिक में जो ब्लू है वो बाबा साहब के कोट का ब्लू है, इसलिए ब्लू-टिक पर पहला अधिकार मूलनिवासियों का है।
हो सकता है कुछ नव बौद्ध यह दावा कर डालते कि नील मुकुट को बौद्ध धर्म से चुराया गया है। चालीस हज़ार साल पहले की किसी बौद्ध मूर्ति में पहले से लगा हुआ नील मुकुट वाली तस्वीरें वायरल हो रही होती। दो चार दन्त कथाएँ भी किसी ग्रन्थ में निकल आतीं। जैसे कहीं बुद्ध प्रवचन दे रहे थे तभी अचानक एक कुत्ता आ गया, कुत्ता प्रवचन सुनने लगा। प्रवचन सुनते सुनते ही उसे ब्लू-टिक प्राप्त हो गया और वह वेरिफाइड कुत्ता घोषित हो गया।
प्राचीन काल में अंगुलिमाल उन सबकी उँगलियाँ काट लेता था जिनके पास ब्लू-टिक होता था। क्योंकि वे उस समय भी फिल्दी-रिच लोग होते थे। बाद में वही अंगुलिमाल ने थ्रेड लिखना शुरू कर दिया और लेखक बन गया।
कोई यह दावा भी कर ही देता कि ब्लू-टिक दरअसल मुगलों की देन है। तैमूर भारत को लूटने नहीं ब्लू-टिक देने ही भारत आया था। ब्लू-टिक बाबर ऊँट पर लादकर अफगानिस्तान से लेकर आया था और अकबर दरबार लगाकर लोगों को ब्लू-टिक बाँटता था। औरंगजेब के पास खुद के ब्लू-टिक थे।
कुछ आधुनिक इतिहासकार इसका श्रेय नेहरू, गाँधी या राजीव जी को दे देते। राजीव जी कम्प्यूटर लाए थे इसलिए आज ब्लू-टिक मिल रहा है,लेकिन उनके योगदान को वर्तमान सरकार आदर नहीं देती। हालाँकि उनका लड़का खुद को कोड़े मारता घूम रहा है। जो सबसे ज्यादा कोड़े खाएगा राहुल जी अपने हाथ से उसे ब्लू-टिक देंगे। खुद को कोड़े मारने से तो ब्लू-टिक मिलता है ऐसा सुनते ही कॉन्ग्रेस कार्यकर्ताओं में खुद को कोड़े मारने की होड़ लग जाती।
ईद पर बचकर मुहर्रम पर नाचने की बात करने वाले ताज़ा-ताज़ा अध्यक्ष बने खड़गे जी यह सोचकर प्रसन्न होते कि मुहर्रम के जुलूस में ऐसे ही खुद हो कोड़े मारते हुए सभी कॉन्ग्रेसी निकलेंगे। ब्लू आइस वाले थरूर की बाँहें खिल जातीं। दिग्विजय सिंह सोचते कैसे जुलूस में दस्तखत करके हाजिरी लगाई जाए और बिना कोड़े खाए ब्लू-टिक लिया जाए।
वैसे तो पुलिस और प्रशासन के लोग ट्विटर के दफ्तर पर दबिश देकर हर महीने पूरे स्टाफ के लिए ब्लू-टिक ले ही आते। बाकी सरकारी संस्थाओं को डर के मारे खुद ही दे दिया जाता। न देने पर अगर सुप्रीम कोर्ट संज्ञान लेकर केस दर्ज न करता तो कोई न कोई वीर पीआईएल डाल ही देता कि जहाँ अस्सी करोड़ लोगों के पास खाने के पैसे नहीं हैं उनके पास ब्लू-टिक के लिए पैसे कहाँ से आएँगे? जिसपर कोर्ट आदेश देता कि जब तक मामला कोर्ट में है तब तक किसी से आठ डॉलर न वसूले जाएँ। मामला कोर्ट में एक बार जाता तो सालों तक न सुलझता और ब्लू-टिक से कमाई की योजना धरी रह जाती।
फिलहाल तो स्थिति यह है कि जहाँ दुनिया भर के लोग तरह तरह की बात कर रहे हैं, वहीं मस्क हर बात पर विनोदपूर्ण उत्तर देते हुए कुशल व्यापारी की तरह कह रहे हैं मुफ्त कुछ नहीं – लाओ मेरा आठ डॉलर।