शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी (एसजीपीसी) ने 6 अक्टूबर, 2023 को द संडे एक्सप्रेस, दिनांक 24 सितंबर 2023 को प्रकाशित “भारत की कनाडाई समस्या” शीर्षक से तवलीन सिंह द्वारा लिखित एक ऑप-एड पर आपत्ति जताई। एसजीपीसी ने इस लेख पर कई आपत्तियाँ उठाईं, जो मुख्य रूप से दो के इर्द-गिर्द घूमती हैं- पहला श्री गुरु गोबिंद सिंह जी के बारे में था और दूसरा खालिस्तानी आतंकवादी जरनैल सिंह भिंडरावाले के बारे में था।
Rebuttal to @IndianExpress for publishing article by @tavleen_singh with highly objectionable and false propaganda material about Guru Gobind Singh, the tenth Sikh Guru and Sant Jarnail Singh Bhindranwale, 14th head of Damdami Taksal. The national daily has been asked to give… pic.twitter.com/4fz2osesCz
— Shiromani Gurdwara Parbandhak Committee (@SGPCAmritsar) October 8, 2023
एसजीपीसी ने दावा किया कि तवलीन के ऑप-एड में सिख धर्म को लेकर गलत बातें लिखी गईं थीं। एसजीपीसी ने जो पहला मुद्दा उठाया वह यह दावा था कि श्री गुरु गोबिंद सिंह जी ने मुगल सम्राट के दमन से लड़ने के लिए खालसा की स्थापना की थी, और वह एक ‘हिंदू’ थे। एसजीपीसी ने इस बात पर जोर दिया कि श्री गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा पंथ को अकाल पुरख (द टाइमलेस वन) को समर्पित संत-सैनिक भावना के अवतार के रूप में बनाया था और वह किसी विशेष धर्म से जुड़े नहीं थे। गुरु गोबिंद सिंह की शिक्षाओं में इस बात पर जोर दिया गया कि वह न तो हिंदू थे और न ही मुस्लिम।
इसके अलावा, उन्होंने जरनैल सिंह भिंडरावाले के चरित्र-चित्रण पर आपत्ति जताई, खासकर उस बिंदु पर जहाँ उन्होंने कहा कि वह आतंक का राज चलाता था और उसके पास जासूसों का एक कुशल नेटवर्क था जो उससे असहमत लोगों को दंडित करता था। एसजीपीसी का तर्क है कि भिंडरावाले के संघर्ष ने मुख्य रूप से पंजाब के राजनीतिक, आर्थिक और पानी से संबंधित मुद्दों को केंद्र में रखा। उनका तर्क है कि भिंडरावाले के ऐसे चरित्र-चित्रण उपलब्ध ऐतिहासिक तथ्यों और सन्दर्भों से मेल नहीं खाते।
इतना ही नहीं एसजीपीसी ने सिंह से माफी माँगने को कहा और दावा किया कि उनका ऑप-एड दुर्भावनापूर्ण लेख था और इसमें सिख समुदाय को नकारात्मक रूप से चित्रित किया गया था। उन्होंने अखबार से तवलीन द्वारा अपने लेख में की गई “गलत बयानी” के खंडन के रूप में अपने न्यूज़ पेपर में सही तथ्यों को प्रकाशित करने के लिए कहा।
एसजीपीसी के इस दावे का खंडन करते हुए कि श्री गुरु गोबिंद सिंह जी ने हिंदुओं को बचाने के लिए खालसा की स्थापना नहीं की थी, सिख इतिहास विशेषज्ञ पुनीत साहनी ने बताया कि तवलीन सिंह ने जो कहा वह तथ्य थे। उन्होंने गुरु गोबिंद सिंह जी की रचना उग्रदंती का हवाला दिया, जो स्पष्ट रूप से दुर्गा से उनकी सेना को तुर्क और मुगल सेना को नष्ट करने और हिंदुओं के वेदों और धर्म के पुनरुत्थान के लिए मदद करने का अनुरोध करती है। उग्रदंती का पंजाबी संस्करण यहाँ देखा जा सकता है। जो लोग अनजान हैं, उनके लिए उग्रदंती एक रचना है जो सिख धर्म की पवित्र पुस्तकों में से एक, दशम ग्रंथ का हिस्सा है।
What you’re presenting are outbursts. What @tavleen_singh stated are facts. #GuruGobindSingh in his composition Ugradanti (one in which Khalsa finds mention) explicitly pleads to Durga to help his army destroy Turks & Mughal canopy, and for resurgence of Vedas & Dharma of Hindus. pic.twitter.com/X4fX2F6ub9
— Puneet Sahani (@puneet_sahani) October 8, 2023
तवलीन सिंह के ऑप-एड ने खालिस्तान आंदोलन को बताया ‘मिथक’
जबकि तवलीन सिंह द्वारा लिखे गए ऑप-एड के साथ एसजीपीसी की अपनी समस्याएँ हैं, यह बताना आवश्यक है कि तवलीन ने स्पष्ट रूप से खालिस्तानी अलगाववाद और भारत की संप्रभुता के लिए इसके खतरों को एक ‘मिथक’ कहा था। अपने ऑप-एड में, उन्होंने चर्चा की कि कनाडाई सिखों के संदर्भ में, भारत में खालिस्तान का पुनरुद्धार एक मिथक था। उन्होंने खालिस्तान के अलगाववादी आंदोलन पर ध्यान केंद्रित करने पर भारत सरकार से सवाल किया। उन्होंने दिल्ली के राजनीतिक हलकों में फैली घबराहट पर चिंता व्यक्त की। खासतौर से तब जब कनाडाई सिख खालिस्तान के झंडे उठाते हैं या अन्य देशों, विशेष रूप से कनाडा में खालिस्तान समर्थक विरोध प्रदर्शन में शामिल होते हैं।
तवलीन ने कहा कि भारतीय सिखों के बीच खालिस्तान के लिए कोई महत्वपूर्ण समर्थन नहीं है। वह पंजाब क्षेत्र की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर प्रकाश डालती हैं, इस बात पर जोर देती हैं कि श्री गुरु गोविंद सिंह ने दमन से लड़ने के लिए खालसा बनाया और इसमें हिंदू और सिख दोनों शामिल थे। तवलीन सिंह लिखती हैं कि जरनैल सिंह भिंडरावाले के शासनकाल के दौरान भी, भारत में सिखों के बीच अलगाव के लिए कोई व्यापक समर्थन नहीं था। इस हिस्से पर भी एसजीपीसी ने आपत्ति जताई है।
कनाडाई सिखों के बीच खालिस्तान समर्थकों की मौजूदगी और पाकिस्तान के सैन्य शासकों से वित्तीय सहायता की संभावना को स्वीकार करते हुए, तवलीन सिंह का तर्क है कि अगर भारत को अपनी खुफिया एजेंसियों का इस्तेमाल विदेशी धरती पर परेशानी पैदा करने के लिए करना है, तो ऐसा पड़ोसी देशों में किया जाना चाहिए, न कि भारत से बहुत दूर कनाडा जैसे देशों में।
इसके अलावा, वह आतंकवाद की स्पष्ट परिभाषा और भारत में अल्पसंख्यक समुदायों, विशेषकर मुस्लिमों और सिखों के बीच “अन्याय और अशांति” के तथाकथित मुद्दों पर जोर देते हुए उन्होंने सुझाव दिया कि भारत सरकार को खालिस्तान के निर्माण पर बहुत ज़्यादा रिएक्ट करने के बजाय इन समुदायों की शिकायतों को दूर करने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए।
एसजीपीसी को जवाब देते हुए तवलीन ने लिखा, “क्या मैं यह सुझाव दे सकती हूँ कि एसजीपीसी कुछ सिख इतिहास की किताबें पढ़े। जहाँ तक माफी की बात है तो एसजीपीसी को दरबार साहिब को हत्यारों की शरणस्थली बनाने की इजाजत देने के लिए सिख समुदाय से माफी माँगनी चाहिए। मुझे पता है। मैं वहाँ थी।”
May I respectfully suggest that the SGPC read some Sikh history books. As for apologies it is the SGPC that must apologise to the Sikh community for allowing the Durbar Sahib to be turned into a refuge for killers. I know. I was there. https://t.co/tfNFI3cKzZ
— Tavleen Singh (@tavleen_singh) October 9, 2023
एसजीपीसी और तवलीन सिंह ने अपने-अपने तरीके से किया खालिस्तानी अलगाववाद का बचाव
यह देखना दिलचस्प है कि कैसे दो वर्गों ने, एक-दूसरे का विरोध करते हुए, आसानी से खालिस्तानी अलगाववाद और भारत की संप्रभुता और सुरक्षा के लिए उत्पन्न खतरों को नजरअंदाज कर दिया। तवलीन ने दावा किया कि वह 80 के दशक से खालिस्तानी आंदोलन देख रही हैं और उन्हें इस आंदोलन की गहरी जानकारी है। उन्होंने आगे दावा किया कि भिंडरावाले काल के दौरान और उसके बाद खालिस्तानी आंदोलन को कोई समर्थन नहीं मिला या न्यूनतम समर्थन मिला। तवलीन के अनुसार, यह भिंडरावाले के गहरे जासूसी नेटवर्क के कारण था कि वह सिख समुदाय के भीतर खालिस्तानी आंदोलन के खिलाफ उठे आवाजों को दबाने में कामयाब रहा।
ठीक है तवलीन को अपने विचार रखने का पूरा अधिकार है, लेकिन यह अजीब है कि वह भूल गई कि कैसे खालिस्तानी आतंकवादियों द्वारा दशकों तक हिंदुओं की बेरहमी से हत्या की गई थी। पंजाब से खालिस्तानी आंदोलन को खत्म करने में भारत सरकार को लगभग 30 साल लग गए, इस दौरान हजारों हिंदुओं की हत्या कर दी गई। बम विस्फोट, सामूहिक गोलीबारी, पत्रकारों की हत्याएँ और न जाने क्या-क्या हुआ। खालिस्तानी आंदोलन के कारण हमने एक प्रधानमंत्री और एक मुख्यमंत्री खो दिया। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद 1984 में दिल्ली में हुए राजनीतिक दंगों में हजारों निर्दोष सिख भी मारे गए थे।
तवलीन सिंह ने दावा किया कि वर्तमान भारत सरकार ने खालिस्तानी मिथक को पुनर्जीवित किया और कहा कि भारत में खालिस्तानी अलगाववाद के लिए कोई समर्थन नहीं है। पिछले 8-10 वर्षों में राज्य में जो कुछ हुआ है, उसे देखकर यह सुझाव देना उचित है कि तवलीन को बुलबुले से बाहर आकर कॉफी की गंध महसूस करने की जरूरत है। खालिस्तानी आंदोलन कोई मिथक नहीं है और इसे पंजाब में खुला समर्थन प्राप्त है। दरअसल, 90 के दशक में आंदोलन को दबा दिए जाने के बावजूद इसके लिए समर्थन लगातार बना रहा।
समर्थन के बिना, भिंडरावाले के पोस्टर, अमृतपाल सिंह का उदय, संगीत के माध्यम से युवा पंजाबियों का लगातार ब्रेनवॉश करना और खालिस्तानी आतंकवादी संगठन सिख फॉर जस्टिस को समर्थन संभव नहीं होता। तवलीन शायद इस बात से चूक गईं कि अमृतपाल सिंह कथित तौर पर नशा मुक्ति केंद्र की आड़ में राज्य के खिलाफ लड़ने के लिए एक मिलिशिया खड़ा कर रहा था। क्या यह खालिस्तानी विद्रोह नहीं था, या इसे “मिथक” के नाम पर दबा दिया जाना चाहिए था?
एसजीपीसी का खालिस्तानी अलगाववाद के बचाव का रहा है इतिहास
गौरतलब है कि एसजीपीसी खालिस्तानी आंदोलन और खालिस्तान समर्थक तत्वों के प्रति नरम रुख रखती है। वे इसे छिपाने की कोशिश भी नहीं करते। वे खालिस्तानी समर्थकों का समर्थन करने और गुरुद्वारा परिसर के अंदर खालिस्तानी आतंकवादियों के बलिदान होने का दावा करते हुए उनके पोस्टर लगाने के लिए जाने जाते हैं। कनाडा द्वारा भारत पर खालिस्तानी आतंकवादी हरदीप सिंह निज्जर को कनाडा की धरती पर मारने का आरोप लगाने के बाद भी, जिसे भारत ने स्पष्ट रूप से नकार दिया है, एसजीपीसी ने कनाडा के समर्थन में खड़े होने का फैसला किया।
एसजीपीसी और तवलीन दोनों ने खालिस्तानी आंदोलन और उससे उत्पन्न खतरों को नजरअंदाज कर दिया, जिसके लिए दोनों तरह के विचारों की निंदा की जानी चाहिए। खालिस्तान समर्थक तत्वों को कनाडा, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका जैसे देशों में पर्याप्त समर्थन मिला है। पाकिस्तान की फंडिंग से खालिस्तान समर्थक तत्वों को तेजी से पनपने में मदद मिल रही है। ऐसे समय में, यह बात फैलानी कि खालिस्तान आंदोलन सिर्फ एक मिथक है, न केवल समस्याग्रस्त है बल्कि खतरनाक रूप से भ्रामक भी है।