ईरान के सूत्रों के मुताबिक़, तेहरान अफ़गान सरकार की ओर से तालिबान पर अपने प्रभाव का इस्तेमाल करने के लिए तैयार है। अगर भारत आतंकवादी संगठन के साथ बातचीत के लिए तेहरान की मदद का इस्तेमाल करना चाहता है तो वो हमेशा इसके लिए तैयार हैं।
ईरानी विदेश मंत्री जावेद ज़रीफ़ ने द्विपक्षीय वार्ता के लिए भारतीय नेताओं से मुलाक़ात की, और साथ ही ‘रायसीना डायलॉग’ को संबोधित भी किया। इस द्विपक्षीय वार्ता के मद्देनज़र तेहरान के तालिबान के साथ संबंध होने की बात का ख़ुलासा हुआ।
तालिबान पर अपने प्रभाव के इस्तेमाल को ईरान ने स्वीकारा
हाल ही में, एक ईरानी प्रतिनिधिमंडल तेहरान में तालिबान से मिला, हालाँकि उच्च-स्तरीय ईरानी सूत्रों का कहना है कि पहली बैठक मॉस्को में हुई थी। उन्होंने कहा, “तालिबान पर हमारा कुछ प्रभाव है, लेकिन हम आमतौर पर अफ़ग़ान सरकार की तरफ से इसका इस्तेमाल करते हैं। हमें भारत के लिए भी इसका इस्तेमाल करके खुशी मिलेगी।”
फ़िलहाल, भारत द्वारा ऐसे किसी भी प्रकार के प्रस्ताव को स्वीकारने की बात सामने नहीं आई है। अनुमान के तौर पर पिछले 17 वर्षों में भारत ने कुछ संपर्क बनाए हैं, हालाँकि इस बात की कोई पुष्टि नहीं है कि ये संपर्क कितने व्यापक और गहरे हैं।
किसी भी मामले में, भारत की स्थिति काबुल सरकार की तरफ से चारो तरफ से घिरी है। सूत्रों की मानें तो तालिबान के साथ किसी तरह का संपर्क आवश्यक रूप से इस स्थिति पर प्रभाव डालेगा।
अफ़ग़ानिस्तान में अपने क़दम पीछे ले सकता है ट्रम्प प्रशासन
वाशिंगटन से ‘लीक’ हुई एक रिपोर्ट के अनुसार, ट्रम्प प्रशासन अफ़ग़ानिस्तान में अपने क़दम पीछे ले सकता है, क्योंकि अमेरिका को ऐसा लगता है कि 7,000 अफ़ग़ानी सेनानियों ने तालिबान के साथ मिलकर क्षेत्रीय युद्धाभ्यास को फिर से शुरू कर दिया है।
सूत्रों से मिली जानकारी के अनुसार, अमरीका ने तालिबान के साथ सीधी बातचीत की थी, जिसका चौथा दौर बुधवार को क़तर में होगा। ख़बरों के अनुसार, अमेरिका ने क़तर में वार्ता आयोजित करने की तालिबानी माँग के आधार पर रियाद जाने से इनकार कर दिया, जिसकी योजना पहले निर्धारित थी।
अमेरिका बना पड़ोसी देशों के उपहास का पात्र
रिपोर्टों के मुताबिक़, समझौते के मसौदे में देश के नागरिकों के हस्तक्षेप के चलते अमेरिकी सैनिकों की वापसी शामिल थी। अन्य लोगों के मुताबिक़ मुख्य शहरी केंद्रों को तालिबान से दूर रखते हुए, अमेरिका आतंकवाद-विरोधी भूमिका के लिए ख़ुद पर प्रतिबंध लगा सकता है। लेकिन, अभी तक इस मुद्दे पर किसी भी प्रकार की स्थिति साफ़ नहीं हो सकी है, इस कारण से अमेरिका पड़ोसी देशों के उपहास का पात्र बन गया है।
दूसरी ओर, ईरानी सूत्रों के मुताबिक़ यह ‘समझौता’ देशों के पुराने समूह – सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात और पाकिस्तान को एक साथ एक ही मंच पर वापस लाया है, ये वो देश हैं जिन्होंने तालिबान सरकार का समर्थन किया था।
संयुक्त अरब अमीरात और सऊदी अरब ने की थी पाकिस्तान की आर्थिक मदद
1990 के दशक में, अमरीकी विशेष दूत जलमय ख़लीलज़ाद का भी तालिबान के साथ बातचीत करने का एक लंबा इतिहास रहा है, जो तब अमेरिकी तेल हितों के लिए काम कर रहा था। पाकिस्तान की मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक़, संयुक्त अरब अमीरात और सऊदी अरब ने पाकिस्तान की आर्थिक मदद भी की थी जिससे वो तालिबानी वार्ता के लिए इस्लामाबाद को आगे ला सके।
वार्ता के लिए अफ़ग़ान के साथ मंच साझा करने से तालिबान का इनकार
अफ़ग़ानिस्तान के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार (NSA), हमदुल्ला मोहिब, जो पिछले सप्ताह भारतीय अधिकारियों के साथ बातचीत के लिए दिल्ली आए थे, उनसे किसी भी तरह की बातचीत के लिए मना कर दिया गया था, जिसमें प्रभावकारिता संबंधी शांति वार्ता शामिल थी।
इसके बाद हमदुल्ला मोहिब ने दिसम्बर के अंत में यूएई, सऊदी अरब और अमेरिका के साथ हुई बैठक में अफ़ग़ान सरकार का प्रतिनिधित्व किया। लेकिन अफ़ग़ान सरकार द्वारा वार्ता में शामिल होने की माँग के बावजूद, तालिबान ने उसे एक मंच पर आने से दूर रखा।
अफ़ग़ान सरकार के लिए, तालिबान वार्ता एक ‘जल्दबाज़ी’ का मामला है, इसकी वजह अमेरिका के भीतर अलग-अवग विचारधारा का होना है।
तालिबान का बढ़ता क़द, देशों पर मँडराता ख़तरा
ईरान और अफ़ग़ानिस्तान सरकार ने एक विश्वास पत्र आपस में साझा किया है जो उन्होंने भारत सरकार के साथ भी साझा किया, कि तालिबान अफ़ग़ानिस्तान और भारत दोनों देशों की सुरक्षा के लिए तो ख़तरा साबित होगा ही, लेकिन ‘पाकिस्तान के लिए तो उसके अस्तित्व को नष्ट करने के समान होगा’।
अब यह पाकिस्तान पर निर्भर करता है कि वो इस स्थिति को किस नज़रिये से देखता है। लेकिन इस कटु सत्य से भी मुँह नहीं मोड़ा जा सकता कि तालिबान एक अन्य महाशक्ति के रूप में तेजी से उभर रहा है, जिसका आकार दिन-ब-दिन बढ़ता जा रहा है।
इस बाबत, भारत सरकार ने रूस के विशेष दूत ज़मीर काबुलोव के साथ बातचीत की और आने वाले दिनों में इस मुद्दे पर अमेरिकी दूत जलमय ख़लीलज़ाद के शामिल होने की भी उम्मीद है।