ग़ाज़ीपुर में निषाद जाति के लोगों ने सुरेश वत्स नाम के पुलिसवाले को डंडों से पीट कर मार दिया। पुलिसवालों की गलती यह थी कि वो कहीं से ड्यूटी करके लौट रहे थे। निषाद आरक्षण माँगनेवालों ने दिन भर कुछ ढंग का किया नहीं था, तो पीएम की रैली से लौटते पुलिस की गाड़ी पर धावा बोल दिया। पहले पत्थरबाज़ी की, और जब पुलिसवाले बाहर आए रास्ता क्लियर कराने तो डंडों से बुरी तरह से पीटा। इसमें एक की मौत हो गई, कई घायल हैं।
अप्रैल में ऐसे ही कॉन्ग्रेस-सपा-बसपा-वामपंथी पार्टियों के फैलाई गई अफ़वाह के बाद जब भारत के सताए हुए, वंचितों और आरक्षितों ने जब अपना रूप दिखाया तो चौदह लोगों की जानें गई थीं। अफ़वाह एक सुनियोजित षड्यंत्र था जिसमें सुप्रीम कोर्ट के आदेश को बिलकुल ही मरोड़कर ऐसा बताया गया कि आरक्षण की व्यवस्था खत्म की जा रही है। व्हाट्सएप्प का सहारा लिया गया और देश को शोषितों, वंचितों, और आरक्षितों का एक और रूप दिख गया कि इन्हें भी इकट्ठा करके दंगा कराया जा सकता है।
हाल ही में बुलंदशहर में भी एक ऐसी ही भीड़ ने कई गौहत्यायों के मद्देनज़र पास के पुलिस स्टेशन के सामने धरना दिया। उसी में किसी ने भीड़ में होने का फायदा उठाया और गोली चलने से एक पुलिस अफसर की मौत हो गई। इसके साथ ही, एक नवयुवक की भी मृत्यु हो गई।
बुलंदशहर वाले कांड पर बहुत बवाल हुआ जब योगी आदित्यनाथ ने कहा कि गौहत्या करनेवालों को सजा दी जाएगी और अफसर की हत्या की जाँच होगी। इसमें से पहले हिस्से को वामपंथी लम्पट पत्रकार और तथाकथित बुद्धिजीवी गिरोह के सरगनाओं ने ऐसे पोस्ट करना शुरु किया जिसमें ऐसा दिखा कि योगी आदित्यनाथ को गायों से मतलब है, पुलिसवाले से नहीं। जबकि ऐसा कहीं नहीं कहा गया कि पुलिसवाले की मौत की जाँच नहीं होगी।
निषाद पार्टी के कार्यकर्ताओं द्वारा की गई इस भीड़ हत्या पर इसी गिरोह का कोई व्यक्ति कुछ नहीं बोल रहा क्योंकि इसमें न तो गाय का एंगल है, न ही मरने वाला समुदाय विशेष से या दलित है। इस भीड़ हत्या, या लिंचिंग, में वैसे विशेषण नहीं हैं जिससे कुछ ढंग की ख़बर मैनुफ़ैक्चर की जा सके। इसलिए ऐसी भीड़ से न तो नसीरुद्दीन शाह जैसे लोगों को डर लगेगा, न ही माओवंशी कामपंथी वामभक्तों को।
अप्रैल वाला आंदोलन एक दंगा था, जो कराया गया। यहाँ खाली बैठी जनता पाँच सौ रुपए लेकर सेना की गाड़ियों पर पत्थरबाज़ी के लिए हर शुक्रवार पत्थर लेकर मस्जिदों से बाहर निकलती है। वैसी ही खाली जनता हर जगह उपलब्ध है। बड़े नेताओं की लिस्ट में अपना नाम ऊपर उठाने के लिए, समाज पर उसके प्रभाव की चिंता किए बिना, छुटभैये नेता ‘इंतज़ाम हो जाएगा’ के नाम पर गाँव-घर के नवयुवकों को गाड़ी में पेट्रोल के नाम पर इकट्ठा करके आग लगवाते हैं।
जातिगत आरक्षण एक ऐसा कोढ़ है जो हर समझदार आदमी को दिखता ज़रूर है, लेकिन उसी समझदार आदमी को पब्लिक में ये स्वीकारने में समस्या होती है क्योंकि अगर वो नेता है तो उसका करियर खत्म है। अवसर देकर बेहतर बनाने की जगह कमतर लोगों को आगे धक्का देने की परम्परा ने ऐसी भीड़ तैयार कर दी है जहाँ हर कोई अपने को दूसरे से ज़्यादा नकारा दिखाने की होड़ में है। यहाँ हालत यह है कि एक के बाद एक जातियाँ अपनी बेहतरी के लिए शिक्षा का लाभ लेने की जगह, अपने आप को बेकार साबित करने पर तुली हुई है।
चूँकि, बाकी तरह के आरोपों से भाजपा सरकार बरी हो जा रही है तो अब हिंसा का ही रास्ता बचा है जिसका सहारा लेकर अव्यवस्था फैलाई जा सकती है। अख़लाक़ की मौत को कैसे भुनाया गया वो सबको पता है। रोहित वेमुला की माँ को चुनावों के दौरान कितना घुमाया गया ये उसकी आत्मा जानती है। नजीब अहमद को कहाँ गायब कर दिया गया किसी को पता नहीं लेकिन उसकी माँ हर मंच पर घसीटी गई। जुनैद का नाम लेता रहा गया जबकि सीट के झगड़े की लड़ाई थी। ऐसे ही कई मामले हुए जो सामाजिक थे, निजी झगड़ों का नैसर्गिक परिणाम, लेकिन उसे राजनैतिक रंग देकर चुनावों में बढ़त ली गई। एक पूरे समाज को बताया गया कि तुम्हारे ख़िलाफ़ साज़िश चल रही है।
ये आज़माया हुआ हथियार है। इसका परीक्षण कई बार करके देख लिया गया है। अफ़वाहों का इस्तेमाल हिंसा भड़काने के लिए सबसे ज़रूरी होता है। कुछ ऐसा कह देना जिस पर विश्वास करना मुश्किल हो पर जाति और धर्म के नाम पर कश्मीर में हुई बात सुनाकर कन्याकुमारी के लोगों को सड़क पर रॉड लेकर उतारा जा सकता है।
रेल की पटरियों कभी जाटों की भीड़ आ जाती है, कभी गूजरों की भीड़ दिल्ली पर चढ़ाई कर देती है, कभी SC/ST एक्ट के बारे में अफ़वाह फैलाकर दंगा करा दिया जाता है। इन सबके बाद केन्द्र की सरकार को हर जाति के विरोध में दिखाया जाता है। हर धर्म के विरोध में केन्द्र सरकार को विरोधी बताते हैं, कभी ये कहकर कि समुदाय विशेष को अपने हिसाब से चलने दो, कभी ये कहकर कि राममंदिर क्यों नहीं बन रहा! जबकि सारे मामलों में सुप्रीम कोर्ट के निर्देश या आदेश होते हैं जड़ में।
घोटालों पर इस सरकार को खींचना असंभव हो गया, और सुप्रीम कोर्ट ने राफ़ेल पर फ़ैसला दे ही दिया तो अब अंतिम शस्त्र छोटे समूहों को भड़काना है। पहले इन्हें भड़काया जाएगा कि तुम दूसरी जातियों से ज़्यादा बुरी स्थिति में हो, भीड़ इकट्ठा होगी किसी बैनर तले, फिर पुलिस सुरक्षा व्यवस्था को सुचारु रखने के लिए हथकंडे अपनाएगी तो उससे होने वाले नुकसान का दोषी भी पुलिस और सरकार को ही ठहराया जाएगा। उसके बाद सरकार हर उस अनियंत्रित भीड़ के विरोध में खड़ी दिखेगी, जो हिंसक होकर आग लगाने से लेकर, जान लेने के लिए सक्षम है, और लेती रही है।
ये इंतज़ार है कि कैसे एक ‘सही’ भीड़, ‘सही’ व्यक्ति की हत्या कर दे। क्योंकि ‘गलत’ (मजहब विशेष/दलित) भीड़ो ने ‘गलत’ (हिन्दू/सवर्ण) लोगों की जानें खूब ली हैं, लेकिन उस पर बात नहीं होती। ‘सही’ व्यक्ति की हत्या के बाद देश में ऐसा माहौल बनाया जाएगा जिससे लगेगा कि हर जगह पर वैसा व्यक्ति असुरक्षित है। अभी आनेवाले दिनों में भीड़ हिंसा बढ़ सकती है क्योंकि राजस्थान और मध्यप्रदेश में नई सरकारों के आते ही भीड़ लगनी शुरु हो गई है। यूरिया से लेकर गैस सिलिंडर के लिए लोग अब लाइनों में खड़े हो रहे हैं। ऐसी भीड़ों को किसी भी उपाय से केन्द्र की तरफ मोड़ा जाएगा कि तुम्हारे हर समस्या की जड़ में मोदी है।
जब तक ‘सही’ भीड़, ‘सही’ व्यक्ति की हत्या नहीं करती है तब तक पुलिसकर्मी की मौत पर लोग चुप रहेंगे। क्योंकि यहाँ ‘गलत’ भीड़ ने ‘गलत’ आदमी की जान ले ली। यहाँ अगर पुलिस के लोग जान बचाने के चक्कर में गाड़ी से किसी को धक्का भी मार देते तो इस्तीफा मोदी से ही माँगा जाता। यहाँ न तो दलित मरा, न समुदाय विशेष का शख्स। उल्टे तथाकथित दलितों ने पुलिस वाले की जान ले ली क्योंकि उन्हें लगा कि वो जान ले सकते हैं। ये मौत तो ‘दलितों/वंचितों’ का रोष है जो कि ‘पाँच हज़ार सालों से सताए जाने’ के विरोध में है। है कि नहीं लम्पटों?