दरभंगा के श्यामा माई मंदिर में बलि प्रदान करने पर लगी रोक हटी, पर प्रशासन ने बदल दी ‘प्रथा’: श्रद्धालु बोले- पुरानी व्यवस्था से कम कुछ स्वीकार नहीं

श्यामा माई मंदिर में बलि प्रथा से रोक हटी, पर श्रद्धालु माँग रहे पुरानी व्यवस्था

हाल ही में ‘बिहार राज्य धार्मिक न्यास परिषद’ ने दरभंगा में स्थित श्यामा माई मंदिर में बलि प्रथा पर रोक लगा दी थी। इसके बाद श्रद्धालुओं ने विरोध प्रदर्शन शुरू कर दिया था। तर्क दिया गया कि शाक्त एवं शैव परंपरा में पशु बलि की अनुमति रही है और बिहार में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की सरकार इस तरह के फैसले हिन्दुओं पर थोक पर धर्म में हस्तक्षेप कर रही है। अब खबर आई है कि बिहार सरकार ने विरोध के आगे झुकते हुए अपने इस फैसले को वापस ले लिया है।

बता दें कि ये मंदिर दरभंगा महाराज रामेश्वर सिंह की चिता पर स्थित है। रामेश्वर सिंह साधक भी थे, इसीलिए उनकी चिता पर माँ काली का ये मंदिर बना। यही कारण है कि इसे रामेश्वरी माई मंदिर भी कहा गया। उनके बेटे कामेश्वर सिंह ने सन् 1933 में इसका निर्माण करवाया था। मंदिर के गर्भगृह की बात करें तो माँ काली की प्रतिमा के दाहिनी ओर महाकाल और और बाईं ओर गणपति एवं बटुकभैरव स्थापित हैं। मीडिया में कहा था रहा है कि श्यामा माई मंदिर में बलि प्रथा पर रोक वाले अपने फैसले को वापस ले लिया है।

अब प्रशासन ने प्रेस कॉन्फ्रेंस कर के कहा है कि जिसकी जैसी श्रद्धा है वो वैसे करें, इसमें कोई आपत्ति नहीं है। ‘दरभंगा न्यास बोर्ड’ का कहना है कि इसमें बलि प्रथा के समर्थकों या विरोधियों दोनों को ठेस नहीं पहुँचेगा। न्यास समिति ने बलि प्रथा का न समर्थन और न विरोध किए जाने की बात कही है। न कोई शुल्क लिया जाएगा, न सहयोग के लिए मंदिर की तरफ से किसी को उपलब्ध कराया जाएगा। बता दें कि श्यामा माई मंदिर में मनोकामना पूर्ति के बाद पशु बलि की परंपरा रही है।

बिहार सरकार के नए स्पष्टीकरण से श्रद्धालु खुश नहीं

हालाँकि, श्रद्धालु इससे खुश नहीं हैं। उनका कहना है कि इस मामले में श्यामा माई की मंदिर प्रबंधन समिति और ‘बिहार राज्य धार्मिक न्यास परिषद’ दोनों ने सही तरीके से काम नहीं किया। ऑपइंडिया ने इस संबंध में उनलोगों से बातचीत की, जो इस प्रदर्शन में शामिल हैं। ‘मिथिला सांस्कृतिक संरक्षण समिति’ के बैनर तले ये विरोध प्रदर्शन चल रहा है। अब दरभंगा के डीएम ने इस पूरे मामले पर प्रेस कॉन्फ्रेंस की है। प्रदर्शनकारी समिति का कहना है कि एक तरह से श्रद्धालुओं पर अलग नियम-कानून सौंपे जा रहे हैं।

समिति ने कहा कि बिहार सरकार के पास कोई अधिकार नहीं है कि वो किसी मंदिर की पूजा पद्धति को बदल दे। साथ ही न्यास बोर्ड पर जिलाधिकारी को लिखे पत्र में By-Laws को छिपाने का आरोप भी लगाया। समिति का कहना है कि तकनीकी रूप से और चतुराई से इस पूरे प्रकरण को खेला गया है। न्यास बोर्ड के अध्यक्ष का कहना है कि मंदिर प्रबंधन ने उन्हें पत्र भेजा कि बलि प्रदान करने के लिए एक पद सृजित किया जाए, यानी एक व्यक्ति की नियुक्ति की जाए।

न्यास बोर्ड के अध्यक्ष ने इसके जवाब में लिखा कि वो ऐसा कोई पद सृजित नहीं कर सकते। इसके लिए पशु क्रूरता अधिनियम का हवाला दिया गया। जबकि समिति का आरोप है कि ‘बिहार राज्य धार्मिक न्यास बोर्ड’ ने जब मंदिरों के अधिग्रहण की नीतियाँ बनाईं तो शैव एवं शाक्त मंदिरों के मापदंड नहीं देखे गए। समिति ने कहा कि By-Laws में शैव-शाक्त मंदिरों की ज़रूरतों को नहीं देखा गया। कहा गया कि By-Laws में बलि का जिक्र ही नहीं है और ये पशु क्रूरता अपराध में आता है।

न्यास बोर्ड का कहना है कि बलि प्रदान का कहीं जिक्र ही नहीं किया गया है, बल्कि जीव हत्या पर बात की गई है। इस संबंध में प्रदर्शनकारी श्रद्धालुओं का कहना है कि जीव हत्या और बलि प्रथा अलग-अलग चीज है। इसे समझाने के लिए उदाहरण दिया गया कि संविधान के अनुच्छेद-25 के तहत सिखों को कृपाण रखने की अनुमति है, अघोरी एवं दिगंबर जैन नग्न रह सकते हैं। न तो सिखों पर हथियारों के प्रदर्शन की धारा लगाई जाती है, न अघोरियों और दिगंबरों पर अश्लीलता फैलाने की।

बलि प्रथा का मतलब समझाते हुए श्रद्धालु कहते हैं कि इसके तहत पशु को पहले मंत्रित किया जाता है, फिर एक विशेष शस्त्र से बलि की प्रक्रिया पूरी की जाती है। लोकाचार का हवाला देते हुए कहा जा रहा है कि इसे मांस नहीं बल्कि ‘महाप्रसाद’ कहा जाता है। जबकि श्यामा माई मंदिर प्रबंधन समिति के 12 में से 9 लोग ‘महाप्रसाद’ नहीं खाते हैं – ऐसा भी आरोप है। बिहार सरकार के फैसले के विरोध में कहा जा रहा है कि हिन्दू धर्म में अलग-अलग पंथ हैं और सबके अलग-अलग नियम-कानून हैं।

पुरानी व्यवस्था बहाल हो: मिथिला संस्कृति संरक्षण समिति

‘मिथिला संस्कृति संरक्षण समिति’ का कहना है कि जब तक एक पूरे समाज पर बात न आए, सरकार का कोई अधिकार नहीं है मंदिरों की पूजा पद्धतियों में हस्तक्षेप करने का। समिति का कहना है कि पुजारी रो रहे हैं, मंदिर प्रबंधन समिति भी अपनी चला रहा है। साथ ही मंदिर की जमीन व्यवसाय को देने के आरोप लगे हैं – वहाँ फूल बेचने और और होटल व विवाह भवन चलाने के अलावा बोटिंग क्लब तक चलाने की बात कही जा रही है। आरोप है कि मंदिर के पुजारी तक को इन सबके लिए भरोसे में नहीं लिया गया।

श्रद्धालुओं का कहना है कि प्रशासन द्वारा अब कहा जा रहा है कि अपने अस्त्र-शस्त्र खुद लाकर बलि दीजिए, कोई आपत्ति नहीं है। जबकि श्रद्धालु इस ज़िद पर अड़े हैं कि पुरानी व्यवस्था बहाल की जाए। श्रद्धालु कह रहे हैं कि ये मंदिर प्रबंधन का काम है कि वो बलि प्रथा की प्रक्रिया को पूरा कराए। जब सब कुछ भक्त ही करेंगे तो मंदिर प्रबंधन किसलिए है? साथ ही मंदिर की प्रबंधन समिति में शाक्त संप्रदाय के लोगों को न रखे जाने के आरोप हैं।

बिहार सरकार के स्पष्टीकरण को भी प्रदर्शनकारियों ने नकार दिया है – इसमें कहा गया है कि आप मंदिर में बलि प्रदान कीजिए और किसी को कोई आपत्ति नहीं है। क्योंकि वो पुरानी व्यवस्था को बहाल किए जाने पर अड़े हैं। बलि प्रथा के लिए जिस फरसे का इस्तेमाल किया जाता था, आरोप है कि उसे भी फेंक दिया गया। शस्त्र को फिर से स्थापित करने की माँग हो रही है। पुरानी व्यवस्था में 500 रुपए की फीस थी, बलि देने वाला व्यक्ति मंदिर की तरफ से उपलब्ध कराया जाता है, पंडित मन्त्र पढ़ते थे और बलि को मंदिर के पुजारी माँ को अर्पित करते थे।

इसमें बलि का मुंड मंदिर के पास रह जाता था और धड़ को ‘महाप्रसाद’ के रूप में श्रद्धालु ले जाते थे। इस व्यवस्था में किसी प्रकार के बदलाव के पक्ष में श्रद्धालु नहीं हैं। हालाँकि, अब पशु क्रूरता अधिनियम लगाने जैसी कोई धमकी नहीं दी गई है। केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह ने भी इस मामले में आवाज़ उठाई थी और कहा था कि बकरीद को लेकर सबका मुँह बंद हो जाता है। उन्होंने कहा था कि मुस्लिम समाज में एकता है, इसीलिए उनके मजहब में कोई हस्तक्षेप नहीं किया जाता।

अनुपम कुमार सिंह: चम्पारण से. हमेशा राइट. भारतीय इतिहास, राजनीति और संस्कृति की समझ. बीआईटी मेसरा से कंप्यूटर साइंस में स्नातक.