सुखदेव थापर: जिनके भगत सिंह पर किए तंज ने क्रांतिकारियों को अमर बना दिया

देखा जाए तो कॉलेज के युवा छात्रों को क्रांतिकारी बनाने में अहम भूमिका सुखदेव की ही थी

सुखदेव थापर की आज 113वीं जयंती मनाई जा रही है। सुखदेव थापर और भगत सिंह, दोनों ही ‘लाहौर नेशनल कॉलेज’ के छात्र थे। यह भी संयोग ही है कि दोनों ही एक ही साल में लायलपुर में पैदा हुए थे और एक ही साथ बलिदान भी दिया।

सुखदेव थापर सबसे चर्चित क्रांतिकारियों में से एक रहे हैं, जिन्हें अंग्रेजों ने मार्च 23, 1931 को भगत सिंह, शिवराम राजगुरु के साथ लाहौर के जेल में फाँसी दे दी थी।

रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाकउल्लाह खान और रोशन सिंह, चंद्रशेखर आजाद आदि ने जब हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (HSRA) का गठन किया, तब भगत सिंह और सुखदेव उसमें भी साथ-साथ ही थे।

इस दल में चंद्रशेखर आजाद सबसे वरिष्ठ नेता थे और उनके बाद भगत सिंह और सुखदेव ही वैचारिक रूप से सर्वाधिक प्रखर माने जाते थे।

सन 1919 में हुए जलियाँवाला बाग के भीषण नरसंहार के कारण देश में भय तथा उत्तेजना का वातावरण बन गया था। इस समय सुखदेव 12 वर्ष के थे। पंजाब में लाला लाजपत राय पर लाठीचार्ज के बाद उनके देहांत की घटना ने सुखदेव और भगत सिंह को बदला लेने के लिए प्रेरित किया।

सुखदेव थापर बेहद जोशीले युवा थे और यही वो वजह थी, जिसने भगत सिंह को अप्रैल, 1929 को असेम्बली में बम फेंकने की उस ऐतिहासिक घटना के लिए प्रेरित भी किया था। सुखदेव चाहते थे कि जो भी काम हो, उसका उद्देश्य सभी के सामने स्पष्ट रूप में होना चाहिए। इसके लिए उन्हें सरदार भगत सिंह को एक ताना भी मारना पड़ा था, जिसे लेकर वो बाद में बहुत पछताए भी थे।

भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव

सुखदेव चेहरे से जितने सरल लगते थे, उतने ही विचारों से दृढ़ व अनुशासित थे। अंग्रेज अधिकारी साण्डर्स को मार गिराने में सुखदेव, भगत सिंह और राजगुरु ने मिलकर काम किया।

नवंबर, 1928 को लाला लाजपत राय का देहांत हो गया। एक महीने बाद ही स्कार्ट को मारने की योजना थी, परन्तु गलती से उसकी जगह सांडर्स मारा गया। इस सारी योजना के सूत्रधार सुखदेव ही थे।

सांडर्स की हत्या के अगले ही दिन अंग्रेज़ी में एक पत्र बाँटा गया, जिसमें लिखा था – “लाला लाजपत राय की हत्या का बदला ले लिया गया।”

हालाँकि, सुखदेव थापर और भगत सिंह अच्छे मित्र थे, फिर भी उनके बीच वैचारिक वाद-विवाद कॉलेज के समय से ही होते रहते थे। जेल में लिखे गए उनके कुछ पत्र में इस बात की झलक भी मिलती है।

दिलचस्प बात यह है कि, नेशनल कॉलेज के छात्रों में, इतिहासकार और प्रोफेसर जय चंद विद्यालंकार के क्रांतिकारी आदर्शों से प्रभावित हो विशेष रूप से भगत सिंह और सुखदेव भी लाला लाजपत राय के साथ ही भारत के लिए गहरा प्रेम रखने लगे थे।

उन्होंने ब्रिटिश उपनिवेशवाद और भारत की स्वतंत्रता पर व्याख्यान के लिए विभिन्न राजनीतिक हस्तियों को आमंत्रित करना शुरू कर दिया। इन प्रयासों ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को नई दिशा देने वाले सुखदेव, भगत सिंह और अन्य लोगों को राष्ट्रीय राजनीतिक हस्तियों के रूप में स्थापित करने का काम किया।

1921 में लाला लाजपत राय द्वारा असहयोग आंदोलन के लिए छात्रों को प्रशिक्षित करने के लिए लाहौर के नेशनल कॉलेज में कर्मचारियों और छात्रों की तस्वीर। दाईं ओर से चौथे, भगत सिंह

‘भगत सिंह! तुम मरने से डरते हो और ऐसा उस लड़की की वजह से है’

कॉलेज के दिनों में सरदार भगत सिंह की एक लड़की से मित्रता थी, जो भगत सिंह के कारण ही क्रांतिकारियों से जुड़ी थी। जब क्रांतिकारी मिलकर असेम्बली में बम फेंकने की योजना बना रहे थे तो सरदार भगत सिंह पहले इसके लिए आगे नहीं आए।

शुरुआती बैठकों में सरदार भगत सिंह इस बात पर चुप ही रहे, फिर एक दिन बैठक में सुखदेव ने सरदार भगत सिंह पर इस लड़की को लेकर कटाक्ष करते हुए कहा कि कॉलेज की वो लड़की, जो तुम्हें देख कर मुस्कराया करती थी, तुम उसके इश्क में गिरफ्तार हो गए हो और इसीलिए मरना नहीं चाहते क्योंकि तुम्हें जिंदगी से प्यार हो गया है।

इस कटाक्ष के अगले ही दिन सरदार भगत सिंह ने क्रांतिकारियों की मीटिंग बुलाकर असेम्बली में बम फेंकने के लिए स्वीकृति जताई थी। दल के नेता चन्द्रशेखर आजाद नहीं चाहते थे कि भगत सिंह ऐसा कोई कदम उठाएँ लेकिन वो पीछे नहीं हटे।

आखिरकार अप्रैल 08, 1929 को असेंबली में बम फेंका गया। इस घटना के कुछ दिन पहले ही सरदार भगत सिंह ने अपने मित्र सुखदेव को एक बेहद भावुक पत्र लिखते हुए स्वीकार किया था कि वो किसी लड़की से प्रेम करते थे।

भगत सिंह ने पत्र लिख कर दिया था जवाब

भगत सिंह ने इस पत्र में लिखा था कि उस प्रेम में जो पवित्रता थी वो उनको साहस देती थी, उनके क्रांतिकारी विचारों को संबल देती थी। अंग्रेजों ने 13 अप्रैल को सुखदेव से यह पत्र उनकी गिरफ्तारी के दिन बरामद किया था।

भगत सिंह ने इस पत्र के एक हिस्से में लिखा –

“किसी व्यक्ति के चरित्र के बारे में बातचीत करते हुए एक बात सोचनी चाहिए कि क्या प्यार कभी किसी मनुष्य के लिए सहायक सिद्ध हुआ है? मैं आज इस प्रश्न का उत्तर देता हूँ – हाँ, यह मेजिनी था। तुमने अवश्य ही पढ़ा होगा की अपनी पहली विद्रोही असफलता, मन को कुचल डालने वाली हार, मरे हुए साथियों की याद वह बर्दाश्त नहीं कर सकता था। वह पागल हो जाता या आत्महत्या कर लेता, लेकिन अपनी प्रेमिका के एक ही पत्र से वह, यही नहीं कि किसी एक से मजबूत हो गया, बल्कि सबसे अधिक मजबूत हो गया।”

‘प्यार पाशविक वृत्ति नहीं, एक मानवीय अत्यंत मधुर भावना है’

“जहाँ तक प्यार के नैतिक स्तर का संबंध है, मैं यह कह सकता हूँ कि यह अपने में कुछ नहीं है, सिवाए एक आवेग के, लेकिन यह पाशविक वृत्ति नहीं, एक मानवीय अत्यंत मधुर भावना है। प्यार अपने आप में कभी भी पाशविक वृत्ति नहीं है। प्यार तो हमेशा मनुष्य के चरित्र को ऊपर उठाता है। सच्चा प्यार कभी भी गढ़ा नहीं जा सकता। वह अपने ही मार्ग से आता है, लेकिन कोई नहीं कह सकता कि कब?”

“हाँ, मैं यह कह सकता हूँ कि एक युवक और एक युवती आपस में प्यार कर सकते हैं और वे अपने प्यार के सहारे अपने आवेगों से ऊपर उठ सकते हैं, अपनी पवित्रता बनाये रख सकते हैं। मैं यहाँ एक बात साफ़ कर देना चाहता हूँ की जब मैंने कहा था की प्यार इंसानी कमजोरी है, तो यह एक साधारण आदमी के लिए नहीं कहा था, जिस स्तर पर कि आम आदमी होते हैं।”

सुखदेव, भगत सिंह और राजगुरु को मार्च 23, 1931 को जेल में सामूहिक रूप से फाँसी दी गई थी। लेकिन इससे पहले जेल की प्रताड़नाओं, लगातार पिटाई और मानसिक वेदनाओं से तंग आकर सुखदेव आत्महत्या करने तक का निश्चय कर चुके थे लेकिन भगत सिंह ने उन्हें ऐसा करने से रोका था।

उनका उत्तर यह मिला कि निर्धारित तिथि और समय से पूर्व जेल मैनुअल के नियमों को दरकिनार रखते हुए 23 मार्च 1931 को सायंकाल 7 बजे सुखदेव, राजगुरु और भगत सिंह तीनों को लाहौर सेंट्रल जेल में फाँसी पर लटका दिया, इस प्रकार भगत सिंह तथा राजगुरु के साथ सुखदेव भी मात्र 23 साल की आयु में शहीद हो गए।

महात्मा गाँधी को पत्र लिखकर पूछे थे सवाल

सुखदेव ओजस्वी व्यक्तिव के धनी और कुशल रणनीतिकार थे। एक ओर फाँसी से कुछ दिन पहले भगत सिंह निरंतर यह कह रहे थे कि वो आतंकवादी नहीं बल्कि क्रांतिकारी हैं, वहीं सुखदेव ने गाँधी-इरविन समझौते के सन्दर्भ में एक खुला पत्र महात्मा गाँधी के नाम लिखकर बेहद गम्भीर प्रश्न किए थे।

इस पत्र में सुखदेव ने महात्मा गाँधी से सवाल किए थे कि उन्होंने आखिर किस से पूछ कर और क्या सोच कर सविनय अवज्ञा आंदोलन वापस लिया? सुखदेव थापर ने पूछा कि जितने राजनीतिक कैदी थे, वो तो आपके आंदोलन के चलते रिहा हो गए हैं लेकिन ऐसे में क्रांतिकारी कैदियों का क्या होगा?

आन्दोलन वापस लेने से बौखलाए और इरविन समझौते को बेबुनियाद बताते सुखदेव थापर ने गाँधी जी को इस पत्र में बताया था कि 1915 से जेलों में बंद गदर पार्टी के दर्जनों क्रांतिकारी अभी भी कैद में सड़ रहे हैं, कई लोगों की सजा की अवधि भी पूरी हो चुकी है और कई तो जैसे जेलों में ही जिंदा दफनाए जा चुके हैं।

इस पत्र का यूँ भी कोई नतीजा सामने नहीं आया और इन तीन क्रांतिकारियों को आखिरकार फाँसी दे दी गई।

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