कश्मीर में ‘रिलिजियस आइडेंटिटी’ पर नहीं, तुम्हारी राजनैतिक थेथरई पर खतरा है

महबूबा मुफ़्ती और मीरवाइज़ उमर फ़ारूक़ (फाइल फोटो )

जब से NIA ने अलगाववादी मीरवाइज़ उमर फ़ारूक़ पर शिकंजा कसा है तब से कश्मीर में मज़हबी तंज़ीमों ने हल्ला करना शुरू कर दिया है। खबर है कि शिया सुन्नी सलाफ़ी सूफ़ी सब अपनी दुश्मनी भुलाकर सरकार के विरोध में खड़े हो गए हैं। मीरवाइज़ की हिम्मत इतनी बढ़ी हुई है कि उसने जाँच एजेंसी के सम्मुख उपस्थित होने से ही मना कर दिया।

इस प्रकरण के बीच महबूबा मुफ़्ती का कहना है कि NIA द्वारा मीरवाइज़ उमर फ़ारूक़ को समन जारी किया जाना कश्मीर की ‘रिलिजियस आइडेंटिटी’ पर हमला है। हालाँकि यह भी सच है कि मीरवाइज़ पर केस पीडीपी-बीजेपी गठबंधन सरकार के समय ही दर्ज़ हुआ था। इसलिए महबूबा के घड़ियाली ऑंसू मौकापरस्त राजनीति से अधिक कुछ भी नहीं हैं।

ध्यान देने वाली बात यह है कि आज सभी कश्मीरी नेताओं को अपनी रिलिजियस आइडेंटिटी खोने का खतरा सता रहा है। यह सिद्ध करता है कि आज तक कश्मीर में नेताओं ने मज़हबी राजनीति ही की है। फिर चाहे वह 1963 में हज़रतबल दरगाह से बाल गायब होने के बाद तत्कालीन मीरवाइज़ मौलवी फ़ारूक़ और ख्वाजा शम्सुद्दीन द्वारा की गई राजनीति हो या सलमान रूश्दी की किताब के विरोध में की गई हिंसा। विक्टिम कार्ड हमेशा इस्लामी रिलिजियस आइडेंटिटी को लेकर ही खेला जाता है।

अपनी रिलिजियस आइडेंटिटी और श्रीनगर की जामिया मस्जिद का तीन सौ साल पुराना इतिहास याद करने वाले अलगाववादी नेता कश्मीरी पंडितों का 5000 साल पुराना इतिहास भूल जाते हैं। इन्हें हिन्दुओं की रिलिजियस आइडेंटिटी याद नहीं आती जब हरि पर्वत का नाम बदल कर कोह-ए-मारान और शंकराचार्य पहाड़ी का नाम बदल कर तख़्त-ए-सुलेमान रख दिया जाता है। इसी प्रकार अनंतनाग को इस्लामाबाद कहने की प्रथा चल पड़ी है। कश्मीर में स्थानों के हिन्दू नाम बदल कर इस्लामी आइडेंटिटी थोपने का काम वहाँ की सरकारों ने सोची समझी साजिश के तहत किया है।

राहुल पंडिता अपनी पुस्तक Our Moon Has Blood Clots में पुराने जमाने में पंडितों को जलील करने के तरीकों के बारे में लिखते हैं। कश्मीरी पंडित के सर पर मल से भरा घड़ा रख दिया जाता था और लड़के उसपर पत्थर मारते थे। शायद महबूबा मुफ़्ती को इन सबका ज्ञान नहीं इसीलिए वे अपनी कौम की रिलिजियस आइडेंटिटी की चिंता करती हैं लेकिन हिन्दू आइडेंटिटी भूल जाती हैं।

कश्मीर में इस्लामी रिलिजियस आइडेंटिटी पर खतरे की रट लगाने वाले यह भूल जाते हैं कि मार्तण्ड सूर्य मंदिर हिन्दू आइडेंटिटी का प्रतीक था जिसे इस्लामी शासक ने तोड़ा था। इसी प्रकार कश्मीर में स्वतंत्रता के बाद भी सैकड़ों मंदिर तोड़े गए जिनका कोई हिसाब नहीं। किसी स्थान की हिन्दू आइडेंटिटी को चरणबद्ध तरीके से मिटाना और उसके बाद अपनी आइडेंटिटी को लेकर दिनरात विक्टिम कार्ड खेलना थेथरई का अजब नमूना है।

कानून व्यवस्था और राष्ट्रीय सुरक्षा जैसे मुद्दों पर देश ने कभी किसी रिलिजियस आइडेंटिटी को ऊपर नहीं माना है। क्या महबूबा मुफ़्ती यह भूल गईं कि एक मर्डर केस में कांची के शंकराचार्य जयेन्द्र सरस्वती को आधी रात में पुलिस ने उठवा लिया था। उस समय यदि रिलिजियस आइडेंटिटी के नाम पर पूरे देश का हिन्दू समाज खड़ा हो जाता तो क्या होता इसकी कल्पना करना कठिन है।

किन्तु हिन्दू एक सहनशील कौम है इसलिए बार-बार उत्पीड़न होने पर भी शांत रहता है। राष्ट्रीय सुरक्षा के मामले में इंदिरा गाँधी ने स्वर्ण मंदिर में मिलिट्री ऑपरेशन करने की भी इजाज़त दे डाली थी। यदि उस समय सिख रिलिजियस आइडेंटिटी का ख्याल रखा जाता तो पंजाब में आतंकवाद और अलगाववाद कभी खत्म ही नहीं होता।    

कश्मीर में अलगाववादियों पर प्रतिबंध, गिरफ़्तारी और खाते सीज़ करने पर उठी बिलबिलाहट का ही नतीजा है कि आज महबूबा को रिलिजियस आइडेंटिटी याद आ रही है। उन्हें याद नहीं है कि पूरे जम्मू कश्मीर राज्य की रिलिजियस आइडेंटिटी मुस्लिम नहीं है, उसमें सिख, हिन्दू, बौद्ध, दरदी, बल्ती आदि भी सम्मिलित हैं।