भूख से कितने मर-मरा गए, कोई गिनती नहीं: पी चिदंबरम ने कोरोना पर बोलते-बोलते कॉन्ग्रेस की ही खोल दी पोल

चीनी माल के बहिष्कार का चिदंबरम ने किया विरोध (फाइल फोटो)

पूर्व केंद्रीय गृह मंत्री पी चिदंबरम ने ‘इंडियन एक्सप्रेस’ में एक लेख लिखा है, जिसमें उन्होंने कोरोना और इससे निपटने के सरकार के प्रयासों पर चर्चा की है। चर्चा नहीं, इसे अनर्गल प्रलाप कह लीजिए। उन्होंने दावा किया है कि लॉकडाउन न तो इस वायरस का इलाज है और न ही इसे रोक सकता है। बकौल चिदंबरम, लॉकडाउन स्वास्थ्य सुविधाओं को मजबूत करने का समय है। इस अवधि में जागरूकता फैलाना चाहिए। उन्होंने सवाल किया कि सरकार को मेडिकल व्यवस्था चुस्त-दुरुस्त करने के लिए और कितना समय चाहिए? उन्होंने दावा किया कि अस्पतालों में पर्याप्त जगह नहीं है।

पी चिदंबरम का लेख या ‘रिसर्च पेपर’?

यहाँ पी चिदंबरम, जो कि एक राजनेता हैं, एक मेडिकल साइंटिस्ट की तरह बातें करते दिख रहे हैं। दुनिया भर के कई देशों ने लॉकडाउन किया है, क्या वो सभी मुर्ख थे? दुनिया भर के विशेषज्ञों ने लॉकडाउन की सलाह दी है ताकि इस वायरस का प्रसार रुक सके, यूरोप में स्पेन और इटली सहित कई देश लॉकडाउन की स्थिति में हैं। कई मेडिकल विशेषज्ञों ने इसे सही भी बताया है। ऐसे में क्या चिदंबरम ने कोई मेडिकल रिसर्च किया है, जिसके आधार पर वो लॉकडाउन को कोस रहे हैं? अगर पर्याप्त संसाधन आज भी नहीं हैं तो क्या इसके लिए कॉन्ग्रेस जिम्मेदार नहीं?

अमेरिका और इटली जैसे देशों में तो संसाधन की कोई कमी नहीं है। मेडिकल सुविधाएँ भी विश्वस्तर की हैं। वैज्ञानिकों और डॉक्टरों के मामले में भी एक से बढ़ कर एक प्रतिभा और विशेषज्ञ भरे पड़े हैं। फिर भी वहाँ तबाही क्यों आई? वहाँ भी लॉकडाउन हुए। अगर संसाधन प्रचुर होने से ही कोरोना ख़त्म हो जाता तो फिर उन देशों में इतनी बड़ी तबाही होती ही नहीं? और क्या भारत सरकार ने पीपीई किट्स, मास्क, वेन्टिलेटरों और उपकरणों को जुटाने के बड़े स्तर पर काम नहीं किया? रेलवे ने भी क्वारंटाइन फैसिलिटी सक्रिय की।

पी चिदंबरम लिखते हैं कि मजदूरों को शेल्टर होम्स में अच्छी व्यवस्था नहीं दी जा रही है। वहाँ पंखे तक नहीं लगे हुए हैं। चिदंबरम दिल्ली की जिस रिपोर्ट का जिक्र कर रहे हैं, वो यहाँ के पुलिस अधिकारियों ने ही तैयार की थी। जिला प्रशासन ने पुलिस को उन शेल्टर होम्स में जाकर स्थिति से अवगत होने और रिपोर्ट तैयार करने को कहा था। ये रिपोर्ट तैयार करने का मकसद ही था कि उन सेंटरों में अच्छी सुविधाएँ उपलब्ध कराई जाएँ लेकिन चिदंबरम इसे लेकर राजनीति कर रहे हैं। हाँ, उन्होंने इस मामले में एक बार भी अरविन्द केजरीवाल का नाम नहीं लिया है।

क्या दिल्ली की जनता के प्रति यहाँ की राज्य सरकार की जिम्मेदारी नहीं बनती? इसके बाद तिहार से लौट कर आए पी चिदंबरम ने उस रिपोर्ट की कुछ बातें हूबहू पेस्ट कर दी हैं। वो पूछ रहे हैं कि मजदूरों को वापस भेजने के बजाए इन्हीं शेल्टर होम्स में सुविधाएँ क्यों दी गईं? असल में मजदूरों ने ही वापस जाने की माँग की थी। तब यही कॉन्ग्रेस नेतागण कह रहे थे कि मजदूरों को जबरदस्ती क्यों रोका जा रहा है? आज ये कह रहे कि क्यों भेजा जा रहा है? दिल्ली, मुंबई और सूरत में मजदूरों ने विरोध प्रदर्शन किए थे, ताकि उन्हें वापस भेजा जाए।

कोरोना के बहाने नौकरी, भूख और उद्योग के लिए मोदी की आलोचना

जैसे सरकार नहीं बताती है क्राइम का डेटा तो सोशल मीडिया के दौर में वो भी छुप जाता है क्या? पहले इन लोगों ने कहा कि टेस्टिंग कम हो रहा है, वो प्रपंच नहीं चला। भारत में अब तक 10 लाख की टेस्टिंग हो चुकी है। फिर नौकरियों के जाने की बात की गई, वो भी लोगों ने स्वीकारा कि ये एक असामान्य परिस्थिति है, तो वो भी नहीं चला। अब भूख से मरने की बात फैलाई जा रही है, ताकि लोग ये कहें कि सरकार भोजन पहुँचाने में भी नाकाम है। लेकिन सोशल माडिया के दौर पर ऐसी बातें अगर होने लगीं, तो वो छुप नहीं सकती।

चिदंबरम लिखते हैं कि भूख से कितने लोग मर गए, इसका आँकड़ा कोई भी राज्य सरकार सार्वजनिक नहीं करेगी। आज जब सौ तरह की सामाजिक संस्थाएँ रोज सर्वे पर सर्वे करती रहती हैं, क्या राज्य सरकारों के आँकड़ों का न जारी होना कोई बहुत बड़ा मुद्दा है? चिदंबरम अपनी पार्टी व गठबंधन की सरकारों से कह के अपने शासन वाले राज्यों के आँकड़े जारी करवाएँ लेकिन ऐसा नहीं होगा क्योंकि इन्हें सिर्फ बातें करनी है।

आज भी लाखों भूखे मर रहे हैं। आज भी अस्पतालों के पास संसाधन नहीं हैं। आज भी शेल्टर होम्स में अच्छी व्यवस्थाएँ नहीं हैं। आज भी मजदूर पलायन को मजबूर हैं। आज भी नौकरियाँ नहीं हैं। इस तरह की बातें कर के क्या चिदंबरम अपनी ही पार्टी की दशकों तक चली सरकार की पोल नहीं खोल रहे? 2019 में आई संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट में कहा गया है कि पिछले 10 सालों में ग़रीबी दर 55% से घट कर 28% तक आ गया है। भारत में लगभग 27 करोड़ लोग ग़रीबी से बाहर निकले हैं।

बड़े इंडस्ट्रियों और नौकरियों के लिए भी चिदंबरम ने मोदी सरकार ऊपर ही आरोप लगाया है। भारत सरकार आर्थिक पैकेज लेकर भी आई। प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना के तहत ग़रीबों के खाते में डायरेक्ट ट्रांसफर की व्यवस्था की गई। उन्हें खाद्य सुरक्षा उपलब्ध कराया गया। लॉकडाउन के 36 घंटे के भीतर सरकार 1.7 लाख करोड़ रुपए का राहत पैकेज लेकर आई, क्या ये कबीले तारीफ नहीं है? 80 करोड़ लाभार्थियों के लिए अगले 3 महीने तक के राशन की व्यवस्था की गई। चिदंबरम इन बातों की चर्चा क्यों नहीं करते?

कॉन्ग्रेस शासित राज्यों में चिदंबरम की सीख काम नहीं आती?

सबसे बड़ी बात कि चिदंबरम अपना मॉडल महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़ और पंजाब में लागू क्यों नहीं करते, जहाँ उनकी पार्टी की या गठबंधन की सरकार है। महाराष्ट्र में तो स्थिति सबसे बुरी है। अकेले वहाँ जितने कोरोना मरीज हैं, उसके आधे भी किसी राज्य में नहीं। छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री पूछते हैं कि मजदूरों को वापस बुलाने का ख़र्च राज्य सरकार क्यों वहन करे? पंजाब में कॉन्ग्रेस नेताओं की यही चिंता है कि दारू के ठेके कब खुलेंगे, ऐसे में क्या ये सारी अच्छी-अच्छी बातें केवल केंद्र सरकार के लिए ही है? महाराष्ट्र और पंजाब की सरकारें आपस में लड़ रही हैं। अशोक चव्हाण कहते हैं कि नांदेड़ में पंजाब ने कोरोना फैलाया।

पी चिदंबरम लिखते हैं कि केंद्र सरकार ने दूसरे पैकेज का वादा किया है और अभी तक इस सम्बन्ध में कुछ नहीं हुआ है। क्या इसकी रूपरेखा तैयार करने में समय नहीं लगेगा? हड़बड़ी में घोषणा हो तो उनकी ही पार्टी कहेगी कि इतनी जल्दबाजी क्या थी, ‘एग्जेक्यूटिव प्लान’ क्यों नहीं बनाया? चिदंबरम जनता को जागरूक करने की बात करते हैं। जब यही काम केंद्र सरकार ‘आरोग्य सेतु ऐप’ के माध्यम से करती है तो उनके बेटे कार्ति कहते हैं कि ये जर्मनी का हिटलरशाही वाला मॉडल है। वो अपने मनी लॉन्ड्रिंग आरोपित बेटे को ये बातें नहीं सिखाते?

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कोरोना के चक्कर में उन्होंने जीएसटी और नोटबंदी को भी घसीट लिया है, जबकि सरकार कई बार बता चुकी है कि इन दोनों क़दमों से क्या फायदे हुए। लाखों फर्जी कंपनियों के पकड़े जाने से लेकर टैक्स कलेक्शन में अभूतपूर्व वृद्धि तक, चिदंबरम को ये बातें रास नहीं आएँगी क्योंकि उनके समय में तो ‘फोन बैंकिंग’ चलती थी, जिससे विजय माल्या और नीरव मोदी जैसों को तुरंत लोन मिल जाता था। हाँ, इन चीजों का आरोप अब मोदी सरकार पर ज़रूर लादा जा रहा है। जबकि एनपीए के प्रावधान इसी सरकार ने कड़े किए हैं।

अनुपम कुमार सिंह: चम्पारण से. हमेशा राइट. भारतीय इतिहास, राजनीति और संस्कृति की समझ. बीआईटी मेसरा से कंप्यूटर साइंस में स्नातक.