सिर्फ सेहत के सहारे जिन्दगी कटती नहीं, क्योंकि बिरियानी में बोटियाँ तलाशते रहते हैं टुकड़ाखोर

हाल के समय में कई जगहों पर मेडिकल और पुलिस टीम को निशाना बनाया गया है (प्रतीकात्मक तस्वीर)

कहा गया है कि जिन्दगी के लिए एक रोग पाल लो, क्योंकि सिर्फ सेहत से जिन्दगी नहीं कटती। इस शेर में वैसे तो इशारा इश्क की तरफ था, लेकिन पॉलिटिकल करेक्टनेस भी वैसी ही एक बीमारी है। इस बीमारी के मरीज़– नफरती चिंटू, दूसरों के लिए तरह–तरह के नाम गढ़ते हैं। जी हाँ, ये “नफरती चिंटू” भी उनका खुद का गढ़ा हुआ एक नाम है। अब शायद आप कहेंगे कि नाम में क्या रखा है? साहित्य (शेक्सपियर) पढ़ा है आपने। तो जनाब नाम की बड़ी महिमा है।

कई दशक पहले एक मजदूरों के नाम पर बनी समाजवादी पार्टी के आतंक से दुनिया दहल उठी थी। उसे आज भी “नाज़ी” के नाम से लोग याद करते हैं। इस पार्टी के प्रचार तंत्र का मुखिया था पॉल जोसफ गोएबल्स। उसने प्रचार तंत्र के जरिए लड़ाई के कई ऐसे नुस्खे निकाले थे, जिसका इस्तेमाल उसकी नाजायज औलादें आज भी करती हैं। विश्वयुद्ध के बीतने के इतने साल बाद भी संचार और सूचना तंत्र के बारे में पढ़ने वालों ने उसके कम से कम दस नुस्खे आज भी पढ़े होते हैं।

ऐसी तरीकों में से एक था “नेमकाल्लिंग”। यानी अपने विरोधियों का एक ऐसा नाम रख दो जिससे उनको पहचानकर उनकी बेइज्जती की जा सके। उदाहरण के तौर पर “भक्त” शब्द का गोएबल्स पुत्रों द्वारा इस्तेमाल किया जाना देखिए। ये टुकड़ाखोर, चार-छः फेंकी हुई बोटियों के लालच में कैसे एक सम्मानसूचक शब्द को गाली की तरह फेंककर मारते हैं? बिरियानी में पड़े मांस के टुकड़े ढूँढते ये नीच कितना नीचे तक जा सकते हैं, इसका ये केवल एक उदाहरण है। ऐसे अनगिनत नमूने आपको एक शब्द में ही याद आ गए होंगे।

सन 1930 के दौर में जब पोलैंड पर हमले के वक़्त, स्टालिन खुद हिटलर के टैंकों में तेल भरवा रहा था, उसी दौर में आयातित विचारधारा के इन पैरोकारों ने गोएबल्स के सारे नुस्खे सीख लिए थे। समय के साथ-साथ उनका इस्तेमाल करने में भी ये सिद्धहस्त होते गए। संकट के समय में इन भितरघातियों की कुचेष्टाएँ वैसे ही बढ़ती हैं, जैसे रात्रि के आते ही निशाचरों की शक्ति। अलग-अलग जगहों पर भेष बदल कर छुपे ये हमलावर संकट काल में ऐसे किस्म के हमले शुरू करते हैं। इसकी एक बानगी एक “फोबिक” शब्द में भी दिखती है।

थोड़ा ही पीछे चलें तो भारत की पोलियो से जंग बड़ी आसानी से याद आ जाती है। कई विख्यात अभिनेता “दो बूँदें जिन्दगी की” का प्रचार करते दिखते थे। घर-घर जाकर कई स्वास्थ्यकर्मियों ने हर छोटे बच्चे को पोलियो ड्रॉप पिलाने का काम किया था। ये काम उतना आसान नहीं था जितनी आसानी से ये जंग जीत लेने के बाद हम कह सकते हैं। शुरुआती दौर में इसमें कई समस्याएँ आई थीं। ऐसा नहीं था कि इसमें कोई सूई दी जाती थी और बच्चे को बुखार हो जाने जैसी कोई समस्या होती हो।

इसके पीछे “एकमात्र स्रोत” (सिंगल सोर्स) का दुराग्रह था। इन जंतुओं का ख़याल था कि इस दवाई से मर्दाना ताकत पर उल्टा सा असर हो जाता है। इससे वो ज्यादा बच्चे पैदा करने में असमर्थ हो जाएँगे। इस किस्म की अफवाहों की वजह से सिंगल सोर्स की आबादी वाले इलाकों में पोलियो ड्रॉप पिलाना करीब-करीब नामुमकिन हो गया। इससे निपटने के लिए स्वास्थ्य के क्षेत्र में काम करने वाले राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय संगठनों ने उनके मजहबी रहनुमाओं से चिट्ठियाँ लिखवाई। उसके बाद कहीं जाकर दवाएँ पिलाना मुमकिन हो पाया।

आज भी ऑपरेशन इन्द्रधनुष जैसे कार्यक्रम जो टीकाकरण के लिए चलते हैं, उसमें ऐसी चिट्ठियों का इस्तेमाल आम है। मजहबी नेताओं को इकट्ठा करके उनसे टीकाकरण के लिए आह्वान करवाना बिलकुल आम बात है। इसके वाबजूद बिरियानी में बोटियाँ तलाशते टुकड़ाखोर किसी “फोबिया” शब्द को बिलकुल वैसे ही पत्थरों की तरह चलाते हैं, जैसे अभी-अभी यूपी के किसी जिले में स्वास्थ्यकर्मियों पर चलाए गए। गोएबल्स की ये औलादें गाँधीवादी नहीं हैं। आपको ये भी पता है कि नाज़ियों से किसी गाँधीवादी तरीके से निपटा नहीं गया था।

बाकी इन वेटिकन फण्ड पर पल रहे टुकड़ाखोरों का खात्मा कैसे जल्दी से जल्दी किया जा सके, इस बारे में सोचना भी जरूरी है। सोचिएगा जरूर, क्योंकि सोचने पर फ़िलहाल जीएसटी नहीं लगता!

Anand Kumar: Tread cautiously, here sentiments may get hurt!