टीवी ने रवीश को जो काम था सौंपा, इस शख़्स ने उस काम की माचिस जला के छोड़ दी (भाग २)

रवीश कुमार खुद को पत्रकारिता का स्वघोषित मापदंड बताकर स्वयं एक ट्रॉल बन चुके हैं

पत्रकारिता के साथ ही, तमाम तरह की नौकरियों और व्यवसायों में एथिक्स का एक हिस्सा होता है। एथिक्स यानी नैतिकता। पत्रकारिता में नैतिक तो ख़ैर बहुत ही कम लोग हैं, और जो हैं उनके नाम कोई नहीं जानता। लेकिन, कुछ लोग ऐसे हैं जिन्होंने इस चैप्टर पर किरासन तेल डालकर आकर लगाया और 2014 की जलती गर्मियों में तन-बदन सेंक लिया। ऐसी गर्मी में आग से देह सेंका और शरीर जलने पर मोदी को गरियाना शुरु किया, जो अभी तक नहीं रुका है। 

पिछले लेख की कड़ी से आगे बढ़ते हुए, दूसरे हिस्से में हम बात करेंगे कि किस तरह से रवीश कुमार ने अपनी पूरी स्पीच के दौरान एक के बाद एक लगातार ऐसे झूठ बोले जो कि किसी भी तर्क, सर्वेक्षण या आँकड़ों पर आधारित नहीं है, बल्कि वह एक विचार है जिसकी बुनियाद में खोखलापन है। आप कहेंगे कि आदमी विचार रखने को स्वतंत्र है। आप सही कह रहे हैं, लेकिन जो व्यक्ति एक ऊँचे प्लेटफ़ॉर्म से झूठ बोलता है, तो वो महज़ अभिव्यक्ति नहीं रह जाती, वो अजेंडा या प्रोपेगेंडा कहलाता है।

रवीश का अजेंडा किसी से छुपा नहीं है: अजेंडा और प्रोपेगेंडा चिल्लाते हुए खुद ही गोएबल्स की नीति का अनुसरण करना। उन्होंने कहा कि मीडिया में लगातार एक नज़रिया बनाया जा रहा है कि ‘देश में ही ग़द्दार छुपे हुए हैं’। उनका इशारा इस तरफ था जहाँ सोशल मीडिया और मेनस्ट्रीम मीडिया में पाकिस्तान की तरफ़दारी करने वाले लोगों को आम जनता और कुछ एंकर ग़द्दार कहते नज़र आते हैं। 

ये होता है, और आम जनता की भावना पाक अकुपाइड पत्रकारों के लिए कमोबेश यही रही है। लेकिन हाँ, ग़द्दार कहना गलत है। ये लोग ग़द्दार नहीं हैं। ग़द्दार लोगों की ईमानदारी कम से कम दूसरे देश के लिए तो होती है, ये लोग ठीक से ग़द्दारी भी नहीं कर पा रहे। इनका पूरा फ़ोकस किसी एक व्यक्ति या पार्टी के विरोध में हर वो बात कह देनी है, जिसके कारण विरोध होता रहे। इस विरोध के चक्कर में ऐसे व्यक्ति अपने देश, देश की जनता, वहाँ के लोकतंत्र के चुने हुए प्रधानमंत्री या फिर अपने अंदर के विवेक आदि सब के विरोध में हो जाते हैं। ये अपने आप को विरोध में दिखाकर ही अपनी निष्पक्षता के सिक्के बनाते हैं, जबकि विरोध में होना ही आपको निष्पक्ष नहीं बनाता। 

आगे रवीश जी ने भाजपा को अंग्रेज़ों से भी बदतर बताते हुए कहा है कि न्यूज चैनल पर भाजपा का ही अजेंडा चल रहा होता है। यहाँ पर उन्होंने बताया कि भारत में लगभग 900 न्यूज चैनल हैं, और लगभग सब भाजपा का ही अजेंडा चला रहे हैं। मज़े की बात यह है कि उन्होंने स्वयं ही कहा कि उन्हें तो बस चार-पाँच ही दिखते हैं। फिर ये 900 पर, या जो चैनल खोलिएगा ‘पता चलेगा कि भाजपा का अजेंडा चल रहा है’, का सर्वेक्षण कहाँ से किया?

फिर उन्होंने वही किया जो उन्होंने ‘आपातकाल’ जैसे भयावह दौर के साथ किया। उस समय की भयावहता को इतना नीचे गिरा दिया कि अब ‘आपातकाल’ सुनकर लोग मज़े लेने लगते हैं। रवीश जी ने कहा कि मीडिया में इस तरह का हस्तक्षेप अंग्रेज़ों के दौर में भी नहीं था। ये तर्क इतना बेहूदा और घटिया है कि आप चुप हो जाएँगे। चुप इसलिए हो जाएँगे कि ग़ुलामी के उस दौर को रवीश बेहतर बता रहे हैं जब हमारे सारे संस्थानों को बेकार बनाया गया; बोलने, चलने, इकट्ठा होने की आज़ादी नहीं थी; अख़बारों के संपादकों, प्रकाशकों और लिखने वालों को जेल में डाल दिया जाता था। 

आज रवीश कुमार बिना किसी पुख़्ता तर्क के, बिना किसी आधार के, सरेआम अपनी बात कह रहे हैं, लगभग हर शाम सरकार को कोसते हैं, और फिर भी उन्हें ये दौर अंग्रेज़ों के दौर से भी बदतर लग रहा है। ये किस तरह का प्रोपेंगेंडा है जहाँ ग़ुलामी के दिनों में सकारात्मकता ढूँढी जा रही है? और ऐसे में आपको कोई ग़द्दार या भारत विरोधी कहता है, तो आप ‘डर का माहौल’ करने लगते हैं! ये पत्रकारिता नहीं, लूसिफर को अपनी आत्मा बेचने जैसा कृत्य है।  

“इन्फ़ॉर्मेशन को हटाकर परसेप्शन ला दिया है” कहते हुए रवीश ने अगला ब्रह्मज्ञान दिया। जबकि, ये बात नकारात्मक तो बिलकुल नहीं। हाँ, कुछ लोगों के वन-वे विचारों को अब जवाब मिलने लगा है, और परसेप्शन के खेल में वो अकेले नहीं रह गए, तो इसे अब ऐसे बताया जा रहा है मानो कुछ गलत हो रहा हो। शाम के प्राइम टाइम आखिर किस कार्य के लिए होते हैं? अख़बारों के सम्पादकीय पन्नों पर लिखे गए स्तम्भ क्या हमेशा विश्लेषण ही होते हैं, या उसमें भी नज़रिया होता है?

फिर आज कई चैनल जब अपने विचारधारा को पकड़कर चल रहे हैं तो ऐसी कौन सी आग लग गई? या, माओवंशी कामपंथियों की ये सामंती सोच कि वामपंथ ही एकमात्र सही विचारधारा है, ऐसा मानकर आप लोग चलते रहेंगे? या फिर, आप जैसों को लगता है कि जो स्पेस सिर्फ आप जैसों का था, वहाँ फेसबुक पर पोस्ट लिखने वाले लोग आ गए हैं, और आप से तथ्यों के साथ जिरह करते हैं तो आप उन्हें शाखा जाने को कहते हैं। आखिर शाखा जाने वालों से आपको क्या समस्या है? क्या कुछ प्रचारित वाक्यों का सहारा लेकर आप लोगों की रिडिक्यूल मशीनरी चलती रहेगी, या कभी इस पर कुछ तथ्य भी आएँगे कि शाखा वाले दंगे करा रहे हैं, उन पर केस चल रहा है। और फिर ये भी बताइएगा कि मदरसे वालों पर कितने केस हैं, कितने दंगों के नाम हैं, कितने बम विस्फोट हैं, कितने आतंकी हमले हैं। 

परसेप्शन के खेल में जब आप पिछड़ रहे हैं तो आप नई शब्दावली रचे जा रहे हैं। आपने कहा कि अब दर्शक नहीं, समर्थक आ गए हैं। आ ही गए हैं, तो क्या दिक्कत है? क्या भारत की तमाम जनता के दिमाग में रवीश कम्पनी का चिप लगा दिया जाए कि भैया आप देखिए सब, लेकिन सोचिए वही जो रवीश कहेंगे। ज़ाहिर तौर पर आप मीडिया की वर्तमान स्थिति पर क्षुब्ध हैं क्योंकि वहाँ जो आपके गिरोह के लोगों का एकतरफ़ा संवाद चल रहा था, उसे बंद किया जा रहा है। 

आपके अवसाद के स्तर की झलक, और पत्रकारिता छोड़कर हर तरह के बेकार सवालों को उठाते हुए आपने दर्शकों को यह सलाह दी कि लोगों को सवाल पूछना चाहिए। यहाँ तक तो आपका कहा ठीक लगा क्योंकि पत्रकारिता और नागरिकों की चर्चा में सवाल पूछना नितांत आवश्यक बात है। लेकिन आपने जो उदाहरण दिए उससे खीझ और निराशा दिखी, “आप मोदी से सवाल पूछिए कि कितने कपड़े पहने थे, रैलियों के डिज़ायनर कपड़े कहाँ से आते हैं।” 

मतलब, पत्रकारिता जिसे ‘वॉचडॉग’ कहा जाता है, उसके पास मुद्दों के नाम पर मोदी के कपड़ों की क़ीमत की बात बची है? मोदी के कपड़ों की क़ीमत या डिज़ाइनर का नाम जान लेने से समाज या देश का क्या हित हो जाएगा? क्या मोदी नाड़ा वाला धारीदार चड्डी पहनकर घूमे ताकि आपको लगे कि गरीब देश का प्रधानमंत्री ग़रीबों की तरह रहता है? ये कैसे सवाल हैं जो पूछने को उकसा रहे हैं आप?

ये आप इसलिए कर रहे हैं क्योंकि आपके द्वारा उठाए गए तमाम फर्जी प्रश्नों और प्रोपेगेंडा का कुल जमा निकल कर शून्य ही आया है। आपने जिन ख़बरों को अपने इंटरव्यू के अगले हिस्से में कालजयी टाइप का स्टेटस दिया है, उनमें से एक भी भारतीय न्याय व्यवस्था के प्रांगण में टिक नहीं सके। इसीलिए आप बहुत ही सहजता से कोर्ट पर भी उँगली उठा गए कि आखिर जजों ने आपके फ़ेवरेट पत्रकारों और संस्थानों पर किए गए मानहानि के दावों पर केस को मान्यता ही क्यों दे दी? मतलब, आप यही कहना चाह रहे हैं कि सारी संस्थाएँ बर्बाद हैं क्योंकि वो आपके गुर्गों की पत्रकारिता पर होते सवालों पर चर्चा करने को तैयार हैं?

आपकी स्थिति दयनीय होती जा रही है। आप उन बातों के लिए दूसरों के घेर कर विक्टिम कार्ड खेल लेते हैं, जो आप हर बार खुद ही करते हैं। आपने पूरे इंटरव्यू के दौरान जो किया, वही कोई और करता है, तो आप विलाप की स्थिति में आ जाते हैं। ये पब्लिक स्पेस है, सोशल मीडिया है, जहाँ किसी को कुछ पसंद नहीं आता तो वो बोलता है कि आप कॉन्ग्रेस का अजेंडा चला रहे हैं, कोई नक्सली है, कोई अर्बन नक्सल है। 

ये लोकतंत्र है, इसमें हर व्यक्ति की अभिव्यक्ति का मूल्य बराबर है। आपने बहुत ख़ूबसूरती से ये कह दिया था कि मानहानि सवा रुपए की होनी चाहिए सबकी, चाहे वो अम्बानी हों या रवीश। फिर अभिव्यक्ति के मामले में आपकी अभिव्यक्ति किसी सामान्य नागरिक की अभिव्यक्ति से ऊपर कैसे हो जाएगी? आपको लगता है कि जो ज्ञानधारा आप बहाते हैं, वही निर्मल है, और आम जनता सीवेज़ का पानी फेंक रही है। 

आप दिन में हर बारहवें साँस पर आईटी सेल बोल देते हैं, किसी को शाखा भेज देते हैं, मोदी का अजेंडा कहते रहते हैं, तो फिर उन लोगों से भिन्न कैसे हैं जो किसी को कॉन्ग्रेसी अजेंडा चलाने वाला, नक्सल या शहरी नक्सल कहता है? 

ऐसे काम नहीं होता साहब, सोशल मीडिया ने सबको आवाज दी है। हर व्यक्ति सवाल कर सकता है। मोदी से भी सवाल होंगे, आपसे भी होंगे। सवाल पूछने की, उसे डिज़ाइन करने की, उसे बार-बार दोहराने की कलाकारी आपको ही नहीं आती। ‘जाँच करवाने में क्या जाता है’ कहकर आप जिस धूर्तता से ये कह देते हैं, उसके बाद की बात आपको पता है कि सुप्रीम कोर्ट से आगे जाँच हो नहीं सकती और संसदीय समिति के अधिकार क्षेत्र से यह बाहर है। 

आपने इस चर्चा में नैतिकता के जो प्रतिमान तोड़े हैं, उन्हें अगले हिस्सों में लोगों तक लाया जाएगा।  

अजीत भारती: पूर्व सम्पादक (फ़रवरी 2021 तक), ऑपइंडिया हिन्दी