साल भर बाद भी सबरीमाला के सवाल बरकरार, आस्था को भौतिकतावादी समाजशास्त्र से बचाने की ज़रूरत

आस्था में हस्तक्षेप को एक साल

ट्विटर पर आज #SaveOurSabarimala ट्रेंड कर रहा है। एक साल पहले आए सुप्रीम कोर्ट के फैसले के विरोध में चंद घंटों के भीतर 23,000 से अधिक बार लोगों ने ट्वीट किया। शीर्ष अदालत ने स्वामी अय्यप्पा के मंदिर में रजस्वला महिलाओं के प्रवेश को अनुमति दी थी। उस समय भी अदालत में फैसले लेते वक्त श्रद्धालुओं की भावना और परंपरा की अनदेखी का आरोप लगा था।

सबसे पहले तो इस मामले का प्रस्तुतिकरण ही गलत तरीके से किया गया। आधी से अधिक समस्या की यही जड़ है। अज्ञान और हिन्दूफ़ोबिया के सम्मिश्रण से सबरीमाला मंदिर में रजस्वला आयु (10-50 वर्ष) की महिलाओं के प्रवेश पर पाबंदी को महिला-विरोधी, पृथक्करण-कारी (exclusivist and alienating), सामाजिक और समाजशास्त्रीय समस्या (social and sociological problem) के रूप में चित्रित किया गया।

असल में यह कोई ‘समस्या’ थी ही नहीं। यह नियम है मंदिर का, जो आस्था के अनुसार मंदिर के देवता का बनाया हुआ है। ऐसा भी नहीं है कि यह केवल ज़बानी किंवदंती है। ‘भूतनाथ उपाख्यानं’ और ‘तंत्र समुच्चयं’ में बाकायदा इसका लिखित वर्णन है। जिसे मंदिर के देवता का नियम नहीं मानना, मंदिर उसके लिए होता ही नहीं है। मंदिर सार्वजनिक स्थल नहीं होते। यहाँ तक कि वे मंदिर भी, जिन पर सरकारी गुंडई से कब्ज़ा होता है। मंदिर सार्वजनिक रूप से उपलब्ध आध्यात्मिक पवित्रता के स्रोत होते हैं।

सबरीमाला मंदिर की परम्परा महिलाओं के विरुद्ध भेदभावकारी भी नहीं थी। यदि ऐसा होता तो सभी महिलाएँ प्रतिबंधित होतीं। लेकिन ऐसा नहीं था। केवल एक आयु विशेष की महिलाएँ अपने अंदर मौजूद ‘रजस’ तत्व के चलते प्रतिबंधित थीं, क्योंकि मंदिर के देवता की अपनी तपस्या का सामंजस्य उस राजसिक तत्व के साथ नहीं बैठता।

आस्था, समाजशास्त्र और कानून

आस्था नितांत निजी विषय है। सार्वजनिक जीवन और समाज जिस तर्क और भौतिक नियम से चालित होते हैं (और होने भी चाहिए), उनसे आस्था समेत निजी विषयों के नियम-कानून नहीं बन सकते। नियम सामाजिक व्यवस्था बनाए रखने के लिए होते हैं जो समाज और सार्वजनिक क्षेत्र में लागू होते हैं।

समाज और तर्क किसी स्त्री या पुरुष को यह नहीं बता सकते हैं कि किसके साथ सेक्स करना चाहिए। अपने घर में किसके सामने कैसे कपड़े पहने। इसी तरह निजी जमीन पर बने मंदिर जिनके निर्माण में सरकारी पैसा नहीं लगा हो उसे भी यह नहीं बताया जा सकता कि वह किसी प्रवेश दे और किसे नहीं। खासकर, जब किसी का प्रवेश उस मंदिर के प्रयोजन के साथ असंगत हो। जबर्दस्ती सरकारी नियंत्रण के बावजूद मंदिरों की धार्मिक प्रथाओं को हॉंका नहीं जा सकता।

कानून भी चूँकि समाज और तर्क के आधार पर बनते हैं तो यह लाजमी है कि उनका अधिकार क्षेत्र सार्वजनिक जीवन तक न हो। निजी जीवन में जैसे सरकारी अधिकारियों को यह ताक-झाँक करने का अधिकार नहीं होना चाहिए कि कौन अपने बेडरूम में क्या कर रहा है, उसी तरह कानून किसी मंदिर में घुसकर यह नहीं बता सकता है कि पूजा कैसे होनी चाहिए, किसे करनी चाहिए।

मंदिरों ने समाज-सुधार का ठेका नहीं लिया है

एक तर्क यह दिया जाता है कि भले ही यह सब बातें सही हों, लेकिन समाज में महिलाओं की बुरी स्थिति को देखते हुए मंदिरों को ‘उदाहरण’ बनना चाहिए। यह एक बार फिर भौतिकतवादी समाजशास्त्र की राय है, जिसका मंदिर, आस्था और धर्म के क्षेत्र में कोई काम नहीं है।

सबसे पहली बात तो यह राय मंदिर के ‘क्षेत्र’ को हुए नुकसान को तुला के दुसरे पलड़े पर रख कर तुलना नहीं करती, क्योंकि उसके लिए महिलाओं के प्रवेश से होने वाला नुकसान ‘असल में’ अस्तित्व में ही नहीं है- यह, भौतिकतावादी गणित के हिसाब से, आभासी (imaginary) नुकसान है, जबकि ‘महिला वहाँ गई जहाँ जाना कल तक वर्जित था’ से हुआ फायदा निस्संदेह शून्य से तो अधिक ही है।

लेकिन यह गणित ही गलत है। आध्यात्मिक क्षति, ‘क्षेत्र’ की पवित्रता की हानि बिलकुल असली हैं- भले ही भौतिक रूप से उनकी गणना नहीं हो सकती।

दूसरी बात, यदि इस आध्यात्मिक क्षति को असली मान लें, और तुला के पलड़े पर रख कर तुलना महिलाओं को होने वाले संभावित सामाजिक लाभ से करें, तो फिर से यह सवाल बन सकता है कि क्या मंदिर को यह नुकसान उठाना चाहिए। तो यहाँ सवाल आएगा, “क्यों? क्या महिलाओं को सामाजिक रूप से सबरीमाला मंदिर ने गिराया है? क्या इसमें अय्यप्पा स्वामी का हाथ है? अगर है तो इसे साबित करिए। अगर नहीं, तो लाभ किसी और को होना है और उसकी कीमत कोई और क्यों चुकाए? वह भी उन महिलाओं के लिए, जिनकी अय्यप्पा में, सबरीमाला में आस्था ही नहीं है- क्योंकि अगर आस्था होती, तो वे शास्त्रों में उल्लिखित देवता की आस्था और मंदिर के नियम का उल्लंघन न करतीं।

समाज सुधार के, महिला सशक्तिकरण के और भी रास्ते हैं। मंदिर और देवता को ही बलि का बकरा क्यों बनाना? वह भी तब, जब पहले ही सरकारी नियंत्रण में बँधे और अपना खजाना सरकारों को देने को मजबूर इकलौते पंथ/मज़हब/आस्था के रूप में मंदिर ‘Disadvantaged’ स्थिति में हैं।

आगे क्या होना चाहिए

इसका कोई लघुकालिक उपाय नहीं है- कोई पार्टी, सरकार, अदालत या संविधान हिन्दुओं के पक्ष में प्रतिबद्ध नहीं हैं। इसलिए इसका उपाय केवल दीर्घकालिक संघर्ष है- पीढ़ी-दर-पीढ़ी, एक सभ्यता के रूप में, भक्तों के रूप में। जैसे बाबरी मस्जिद बन जाने के बाद भी 500 साल से हिन्दुओं ने राम मंदिर के लिए संघर्ष नहीं छोड़ा, उसकी याद नहीं छोड़ी। वैसे ही चाहे इसे लिखने वाला मैं और पढ़ने वाले आप जीवित रहें या न रहें, यह लौ, सबरीमाला दोबारा पाने की ललक जीवित रखनी होगी। हर पीढ़ी को यह विरासत सौंपनी होगी कि सबरीमाला का संघर्ष उसका भी संघर्ष है। सबरीमाला पर हमला उस पर भी हमला है, उसे भी क़ानूनी रूप से दोयम दर्जे का नागरिक बनाया जाना और उसकी आस्था को महत्वहीन घोषित किया जाना है।

इस हर जगह भौतिकतावादी समाजशास्त्र को इकलौते चश्मे के रूप में ‘घुसेड़ने’ की वृत्ति को भी रोकना होगा। यह रोक लगेगी शिक्षा व्यवस्था में हिंदू पक्ष, हिन्दू नज़रिए को उतनी ही वैधता के साथ प्रतिनिधित्व दिए जाने से, जैसा नास्तिक/अनीश्वरवादी या ईसाई या मुस्लिम नज़रिए को मिलता है। अगर सुप्रीम कोर्ट के जजों को बचपन से केवल और केवल “सारी आस्थाएँ/पंथ/उपासना पद्धतियाँ (क्योंकि गैर-हिन्दू पंथों में ‘धर्म’ की धारणा ही नहीं है) एक ही होतीं हैं”, “राम और अल्लाह एक ही चीज़ हैं”, “जो भी वैज्ञानिक नहीं है, वह न केवल गलत है, बल्कि दूसरों को उस ‘गलत’ से (चाहे जबरन ही) ‘मुक्ति’ दिलाना तुम्हारा ‘कर्त्तव्य’ है” ही पढ़ाया जाएगा, तो 50-55 की उम्र में जस्टिस बनने के बाद ऐसा मामला अपनी अदालत में आने पर 2-3 हफ़्ते में हिन्दू धर्म की गूढ़ता और सूक्ष्मता, हर कर्म-कांड और प्रथा का पूर्व पक्ष समझना ज़ाहिर तौर पर असम्भव होगा।

ऐसी सबको एक ही डाँड़ी से हाँकने वाली, एक ही ‘वैज्ञानिकता और भौतिकतावादी तार्किकता” के बुलडोजर से सब कुछ समतल कर देने की इच्छा रखने वाली शिक्षा से पढ़े लोग तो कल को “मंदिर की ज़रूरत ही क्या है? क्या घर में पूजा नहीं हो सकती? सोचो ‘समाज की भलाई’ के लिए कितना सारा धन और ज़मीन मिल जाएगा!” का फ़ैसला न लिख दें, वही गनीमत होगी।