कल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बाड़मेर में चुनावी रैली को संबोधित करते समय कहा कि भारत ने अब पाकिस्तान के परमाणु बम से डरना बंद कर दिया है। उन्होंने कहा कि हमेशा पाकिस्तान के परमाणु बम से हमें डराया जाता था लेकिन हमारे पास भी परमाणु बम हैं और हमने वो दिवाली के लिए नहीं रखे हैं।
बस फिर क्या था, प्रधानमंत्री के इस बयान पर उदारवादी-वामपंथी बुद्धिजीवियों के खेमे के सरदार रामचंद्र गुहा ने ट्विटर पर त्वरित प्रतिक्रिया दी कि नरेंद्र मोदी परमाणु युद्ध छेड़ना चाहते हैं और उन्हें किसी की चिंता नहीं वो केवल अपनी ‘गद्दी’ (पद) की चिंता करते हैं। दूसरी तरफ महबूबा मुफ़्ती ने यहाँ तक कह दिया कि अगर भारत ने अपने परमाणु बम दिवाली के लिए नहीं रखे हैं तो पाकिस्तान ने भी अपने बम ईद के लिए नहीं रखे हैं। यह कहकर महबूबा भारत की जनता को पाकिस्तान के बम से डरा रही थीं।
A sitting Prime Minister who speaks so cold bloodedly of starting a nuclear war: merely to win re-election:https://t.co/etjdjecdW8
— Ramachandra Guha (@Ram_Guha) April 21, 2019
Let’s be absolutely clear; this man does not care for India, Indians, the globe, humanity. All he cares is for his own gaddi.
महबूबा और गुहा के अलावा भी बहुत से लोगों ने प्रधानमंत्री की केवल इस बात को लेकर आलोचना की कि उन्होंने भारत के पास भी परमाणु हथियार होने की बात कही। वास्तव में इस प्रकार की आलोचना शुद्ध अकादमिक रोमांस जैसी होती है, जो प्रायः मार्क्सवाद सी अनुभूति प्रदान करती है। मैं मजाक नहीं कर रहा हूँ। परमाणु युद्ध और उसके आसपास घूमती विवेचनाएँ ऐसे ही रोमांस का एक अंग हैं।
बार-बार ये कहना कि भारत पाकिस्तान के बीच परमाणु युद्ध हो जाएगा और दक्षिण एशिया समाप्त हो जाएगा ये सब निहायत ही बचकानी बातें हैं। वास्तविकता यह है कि कोई भी देश परमाणु युद्ध नहीं चाहता। परमाणु युद्ध का डर दिखाकर देश का मनोबल तोड़ा जाता है और जनता को भयभीत कर लिबरल-वामपंथी एजेंडा सेट किया जाता है। वास्तव में विश्व के हर बड़े देश ने परमाणु अस्त्र इसलिए बनाए ताकि उनके ऊपर परमाणु हमला करने से पहले दूसरा देश दस बार सोचे। इसे ‘deterrence’ कहा जाता है। अब यदि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी देश की जनता को इस बात की याद दिलाते हैं कि हमारे पास भी परमाणु अस्त्र हैं इसलिए हम दूसरों के बम से सुरक्षित हैं तो इसमें बुरा क्या है?
जनता को परमाणु युद्ध का डर दिखाना आज की बात नहीं है। शीत युद्ध के समय भी अमरीकी बच्चों को स्कूलों में सिखाया जाता था कि जब रूस परमाणु हमला करेगा तो क्या करना होगा। सन ’45 के पश्चात किसी भी देश ने परमाणु बम का प्रयोग किसी अन्य देश पर नहीं किया फिर भी ‘अप्रसार’ तथा ‘निरस्त्रीकरण’ का पाठ प्रत्येक विश्वविद्यालय में जोर-शोर से पढ़ाया जाता है।
जब अमरीका ने बम बनाया तो रूस को मिर्ची लग गई। दक्षिण एशिया में सर्वप्रथम चीन ने बम बनाया तो भारत ने भी बनाया। भारत ने बम बनाया तो पाकिस्तान जल गया। फिर आरंभ हुआ दक्षिण एशिया में शक्ति संतुलन किस प्रकार बिगड़ रहा है इस पर विवेचना की बकैती करने का दौर। विश्वविद्यालयों में Nuclear Disarmament और Non-proliferation पर जमकर शोध किया गया और मोटी-मोटी पुस्तकें लिखी गईं।
बड़े-बड़े विशेषज्ञों ने भारत-पाकिस्तान के मध्य परमाणु युद्ध की संभावनाओं पर प्रश्नोत्तरी के स्वरूप में पुस्तक लिखी। और भी बहुत कुछ लिखा गया और दशकों तक विश्लेषणात्मक टीका-टिप्पणी प्रकाशित की गई। किन्तु इसका प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष लाभ क्या हुआ यह किसी को ज्ञात नहीं। परमाणु युद्ध की आशंकाओं पर इतनी बुद्धि खर्च करने के बाद कोई बहुत बड़ी पॉलिटिकल थ्योरी विकसित नहीं हुई न ही शक्ति संतुलन पर कोई समाधान प्राप्त हुआ। मेरे विचार से इसी को ‘बुद्धिविलासिता’ कहा जा सकता है। प्रख्यात विद्वान प्रो० कपिल कपूर ‘बुद्धिजीवियों’ को बुद्धि बेचकर जीविका कमाने वाला कहते हैं।
परमाणु युद्ध की संभावना के प्रपंच में विज्ञान के उन विषयों पर नीतिगत शोध नहीं हुआ जिनसे जनता का सीधा सरोकार था। उदाहरण के लिए ‘साइंस पॉलिसी’ विषय को लेते हैं। यह ऐसा विषय है जिस पर लेबोरेटरी में शोध नहीं होता। यह विज्ञान के सामाजिक पक्षों के अध्येता सामाजिक विज्ञान फैकल्टी में पढ़ते हैं। विज्ञान को समाज से जोड़ने का कार्य इंडस्ट्री का है लेकिन भारत में उद्योग जगत सदैव उपेक्षित रहा। इसी का लाभ लेकर सरकारी वेतन पर पलने वाले वामपंथी बुद्धिजीवी और सलाहकार जिन पर सरकार को दिशा देने का दायित्व था उन्होंने बेकार के विषयों पर मंथन किया और देश को भ्रमित किया।
सरकार का दृष्टिकोण पूर्णतः विज्ञान की उपलब्धियों पर गाल बजाना नहीं होता अपितु उस अविष्कार का साधारण जनमानस के लिए क्या उपयोग है इस पर केन्द्रित होता है। दुर्भाग्य से साइंस पॉलिसी के संस्थान वामपंथी गिरोह के खेमे के अधीन हैं और वामी गिरोह का मुख्य काम प्राचीन भारतीय ज्ञान-विज्ञान को गाली देना ही रहा है। उनकी समूची ऊर्जा इसी पर खर्च होती है कि भारत के प्राचीन ज्ञान को किस प्रकार ‘छद्म’ तथा महत्वहीन सिद्ध किया जाए।
केमिस्ट्री और कम्प्यूटर साइंस आज के उद्योग जगत की रीढ़ हैं। किन्तु प्रोग्रेसिव सोच के ‘साइंस फिलोसोफर’ इन विषयों पर बात नहीं करते। उदाहरण के लिए जेएनयू में साइंस पॉलिसी के शिक्षक कभी इस पर शोध नहीं करते कि देश में रसायन विज्ञान की किन विधाओं पर शोध हो जिससे इंडस्ट्री को लाभ पहुँचे। वे कभी स्पेस साइंस, साइबर सुरक्षा, रोबोटिक्स अथवा आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, स्मार्ट सिटी आदि पर बात नहीं करते।
देश के विश्वविद्यालयों में अंतरराष्ट्रीय सम्बंध विभाग के अध्ययन क्षेत्र में ‘साइंस डिप्लोमेसी’ जैसा विषय शायद ही पढ़ाया जाता हो। इक्का-दुक्का अध्येता अंतरराष्ट्रीय सम्बंध पर विज्ञान एवं तकनीक के प्रभाव पर निम्न स्तरीय पेपर लिखते मिल जाएँगे जो इधर-उधर से कॉपी पेस्ट किया गया होता है। ये उन्हीं लिबरल-वामपंथी गिरोह के चेले चपाटे हैं जो परमाणु युद्ध की आशंका उत्पन्न कर फर्जी भय बनाते रहते हैं।
परमाणु युद्ध के भय का वातावरण बनाने के अलावा एक और बात गौर करने लायक है। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात का इतिहास देखें तो ज्ञात होगा कि लिबरल बुद्धिजीवियों से समर्थन प्राप्त माओवाद-नक्सलवाद का विस्तार देश के उन्हीं क्षेत्रों में हुआ जहाँ प्राकृतिक एवं खनिज संसाधन प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं। खनिज और जंगल के उत्पाद उद्योग में वृद्धि करते हैं।
उद्योग होगा तो आर्थिक सम्पन्नता होगी। देश आर्थिक रूप से समृद्ध हो यह वामपंथी कैसे होने देंगे? इसीलिए इन्होंने पीछे से नक्सलवाद को समर्थन देकर स्वयं बुद्धिविलासी होना स्वीकार किया ताकि विज्ञान का समाज से कटाव हो सके। जनता यही समझती रही कि विज्ञान तो हमारे किसी काम का नहीं है। ऊपर से परमाणु युद्ध का भय भरा माहौल बनाया गया, इसीलिए भारत द्वारा 1974 में ही परमाणु बम बनाने के बावजूद परमाणु शक्ति का अर्थ विध्वंसक ही समझा जाता रहा। जबकि वास्तविकता यह है कि परमाणु शक्ति संपन्न देश होना गर्व की बात है और तकनीकी दक्षता राष्ट्र की आर्थिक सम्पन्नता के लिए आवश्यक है।