बुर्के ही बुर्के: किसान आंदोलन में बुर्के वाले भी आ गए हैं; सनद रहे रतनलाल को बुर्केवालियों ने ही घसीट कर मारा था

किसान आंदोलन में बुर्काधारी महिलाएँ (तस्वीर साभार: सोशल मीडिया)

शाहीन बाग के प्रदर्शन से लेकर दिल्ली दंगों तक का सफर तय करने वाली ‘बुर्केधारियों’ ने अब किसान आंदोलन पर अपना डेरा जमाया है। सोशल मीडिया पर सामने आई तस्वीर में देख सकते हैं कि बुर्के पहनने वाली तमाम महिलाएँ मंच पर जाकर फोटो खिंचवा रही हैं। तस्वीर देखकर नहीं लगता कि इनका संबंध किसान परिवार से है या ये खुद किसानी करती हैं। तो ऐसे में सवाल है कि आखिर ये सब यहाँ कर क्या कर रही हैं?

किसान आंदोलन में बुर्काधारी महिलाएँ (तस्वीर साभार: सोशल मीडिया)

किसान प्रदर्शन की आड़ में पहले ही खालिस्तानी 26 जनवरी को अपना झंडा इंडिया गेट पर फहराने की माँग उठा रहे हैं। वामपंथी भी पहले ही किसान महिलाओं के हाथ में उमर खालिद और शरजील इमाम जैसे कट्टरपंथियों की तस्वीर थमा कर उनकी रिहाई के लिए आवाज उठा चुके हैं। ऐसे में अब इन बुर्के वाली महिलाओं के प्रदर्शन मंच तक पहुँचने के मायने कितने डरावने हो सकते हैं, इसका अंदाजा लगाने के लिए उत्तरपूर्वी दिल्ली में हुए दंगों को याद करने की जरूरत है।

कॉन्सटेबल रतनलाल की हत्या याद है आपको? चाँदबाग से एक वीडियो सामने आई थी। वीडियो में तमाम बुर्केधारी महिलाएँ पुलिस के पीछे जाकर उन पर हमला करते हुए दिखीं थी। इसी भीड़ ने वहाँ दंगों का आगाज किया था और आईपीएस अमित शर्मा को बुरी तरह जख्मी करके कॉन्सटेबल रतन लाल की जान ले ली थी। वीडियो में साफ दिखा था कि कैसे बुर्के में चेहरा छिपा कर इन महिलाओं ने पुलिस पर हमला किया था और बाद में अचानक गोलियाँ चलने की आवाज आई थी।

‘दिल्ली राइट्स 2020: द अनटोल्ड स्टोरी (Delhi Riots 2020: The Untold Story)’ की लेखिका मोनिका अरोड़ा ने भी अपनी किताब में इन बुर्केधारी महिलाओं की पोल पट्टी खोली थी। उन्होंने बताया था कि उस दिन हिंसा से पहले महिलाओं ने बुर्के के भीतर चाकू और तलवार तक छिपा रखे थे और जब रोड जाम खुलवाने डीसीपी अमित शर्मा अन्य पुलिस अधिकारियों के साथ गए तो प्रदर्शन कर रही महिलाओं ने अपने बुर्के में छिपाए पत्थर, चाकू और तलवार से पुलिस अधिकारियों पर हमला कर दिया।

https://twitter.com/seriousfunnyguy/status/1349664427985960962?ref_src=twsrc%5Etfw

घटनाओं से स्पष्ट है कि बुर्केधारी महिलाओं का ‘किसी’ प्रदर्शन तक पहुँचना कितना खतरनाक हो सकता है। वो भी तब जब न इनके चेहरों की पहचान हो सकती है और न इनके मनसूबों की। शाहीन बाग में माहौल बनाने के बाद जो भयावह तस्वीर राष्ट्रीय राजधानी ने इन महिलाओं की देखी क्या उसके बाद भी उपस्थिति पर सवाल उठाना उचित नहीं है कि आखिर इनका किसान प्रदर्शन से क्या लेना-देना है? और ये सब वहाँ किसके समर्थन में मंच तक पहुँची हैं या इनके जरिए क्या संदेश देने की कोशिश हो रही है?

एक ओर किसान यूनियन के नेता हैं कि वो न केंद्र सरकार से बातचीत करना चाहते हैं और न ही सुप्रीम कोर्ट के फैसले से खुश हैं। उनकी मंशा वैसे ही तमाम दिल्लीवासियों के लिए चिंता का विषय है और ऐसे समय में इन तस्वीरों का सामने आना…! लोकतांत्रिक अधिकारों के नाम पर इनका कहीं भी एकत्रित होते जाना इस बात की याद नहीं कराता कि ऐसी तस्वीरें शाहीन बाग प्रदर्शन में भी देखी जा चुकी हैं बल्कि उस दृश्य को ताजा करता है जब शाहीन बाग के विकराल रूप के कारण उत्तर पूर्वी दिल्ली के कम से कम 50 परिवारों ने अपने सपूतों को गँवाया।

ऑपइंडिया स्टाफ़: कार्यालय संवाददाता, ऑपइंडिया