आपने अयोध्या में बने भव्य राम मंदिर को देखा होगा, उसमें रामलला की जो सुंदर प्रतिमा स्थापित की गई है उनका दर्शन भी अपने किया होगा और उनकी तस्वीरें अपने मोबाइल फोन में और सोशल मीडिया हैंडल में भी होंगी। लेकिन, ताज़ा खबर ये है कि अब रामलला का एक स्टाम्प भी जारी हुआ है। ये रामलला की तस्वीर वाला दुनिया का पहला पोस्टेज स्टाम्प है। इससे पहले कि आप समझें कि ये भारत में हुआ है, आपको बता दें कि ये दक्षिण-पूर्वी एशियाई देश में हुआ है। इसे ‘हजार हाथियों की भूमि’ भी कहा जाता है।
लाओस की संस्कृति भारत से काफी प्रभावित है। केंद्रीय विदेश मंत्री S जयशंकर हाल ही में लाओस दौरे पर गए थे, उसी दौरान ये पोस्टेज स्टाम्प जारी किया गया। भारत और ‘लाओ पीपल डेमोक्रेटिक कंट्री’ (LPDR) के बीच प्राचीन काल से ही चली आ रही सांस्कृतिक एवं सभ्यतागत जुड़ाव को भी ये दर्शाता है। वहाँ के उप-प्रधानमंत्री एवं विदेश मंत्री सलेउमक्से कोमासिथ और भारत के विदेश मंत्री ने इस स्मारक पोस्टेज स्टाम्प को साथ मिल कर जारी किया।
ये कार्यक्रम राजधानी व्यिंचन में आयोजित किया गया था। कार्यक्रम में लाओस में भारत के एम्बेस्डर प्रशांत अग्रवाल भी मौजूद थे। असल में S जयशंकर ASEAN (दक्षिण-पूर्वी एशियाई देशों का समूह) की बैठक के लिए वहाँ पहुँचे थे। इस विशेष स्टाम्प सेट में 2 स्टाम्प हैं – एक में लुआंग फाबांग के बुद्ध को दिखाया गया है, दूसरे में अयोध्या के रामलला को दर्शाया गया है। बता दें कि लुआंग फाबांग पुराने समय में लाओस की राजधानी हुआ करती थी।
भारत और लाओ PDR के बीच बौद्ध धर्म एक पुल की तरह रहा है। भारत ही महात्मा बुद्ध की कर्मभूमि रही, उन्होंने यहीं पर यात्राएँ की, ऐसे में दक्षिण एशिया में जहाँ-जहाँ बौद्ध धर्म मजबूत है वहाँ भारत के साथ जुड़ाव बना। बता दें कि अयोध्या में रामलला की जो प्रतिमा स्थापित की है, उसमें उन्हें 5 वर्ष का दर्शाया गया है। कृष्णशिला से बनी इस प्रतिमा को कर्नाटक के अरुण योगीराज ने तराशा है। मंदिर के शिलान्यास और फिर प्राण-प्रतिष्ठा में खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मौजूद रहे थे।
बता दें कि लाओस में पहले जीववाद/सर्वात्मवाद की विचारधारा वाला धर्म चलता था। इसके बाद वहाँ हिन्दू धर्म पहुँचा, फिर बौद्ध धर्म। स्थानीय इतिहासकार मानते हैं कि यीशु मसीह के जन्म के पूर्व ही बौद्ध धर्म वहाँ पहुँच गया था। माना जाता है कि व्यिंचन में स्थित लुआंग को इसीलिए निर्मित किया गया था, ताकि वहाँ राजगीर से आए बौद्ध धर्म के अवशेषों को संरक्षित किया जा सके। बौद्ध भिक्षु फ्रा चाओ चंथाबुरी पसिथिसाक ने इसे बनवाया था।
लाओस में बौद्ध धर्म के साथ-साथ रामायण भी लोकप्रिय हो गया। दक्षिण-पूर्वी एशियाई देशों में संस्कृत राजसभाओं की भाषाएँ बन गईं। इसके बाद दक्षिण-पूर्वी एशियाई देशों में राजाओं ने सम्राट अशोक की नक़ल शुरू कर दी, जिन्हें ‘चक्रवर्ती’ माना जाता था। इसके बाद सर्वमान्य बनने के लिए वहाँ के राजा खुद को विष्णु, शिव और बुद्ध से जुड़ा हुआ दिखाने लगे। इससे वहाँ की राजनीति में स्थायित्व आया, संघर्ष कम हुआ। वहाँ अभिवादन की मुद्रा से लेकर शादी-विवाह की परंपराएँ, सब भारत से मिलती-जुलती हैं।
वहाँ की लाओ भाषा भी संस्कृत-प्राकृत से प्रभावित है। लाओस की विभिन्न लिपियाँ, वर्तमान में उपयोग में आने वाली ‘अक्सन लाओ’ और पुरानी ताई नोई लिपि, साथ ही धार्मिक पांडुलिपियों के लिए इस्तेमाल की जाने वाली तुआ थाम लिपि, सभी पल्लव लिपि से निकली हैं, जिसकी वंशावली खुद ब्राह्मी लिपि से जुड़ी है। ‘अक्सन’ शब्द ही संस्कृत शब्द ‘अक्षर’ से आया है। दोनों भाषाओं में कई शब्द मिलते-जुलते हैं: कुमारा (कुमारा), पतिवत (प्रतिवाद), प्रोम (ब्रह्मा), मित्ताफाब (दोस्ती), शांतिफाब (शांति), पथेट (प्रदेश), प्रणाम (प्रणाम), रुसी (ऋषि), शांति (शांति), श्री (श्री), सुत (सूत्र), सेट्ठी (श्रेष्ठी), युवतनारी (युवनारी), सभा (सभा), चंपा (कैंपा), नंग मेखला (मणि मेखला)।
वहाँ पर ‘विवाह’ को भी ‘विवाह’ ही कहा जाता है। लाओस में रामायण की कथा को कुछ ऐसे विकसित किया गया है, जैसे ये वहीं हुआ हो। वहाँ के बौद्ध विहारों की दीवारों पर आपको रामायण के दृश्य उकेरे हुए मिलेंगे। ओडिशा के विष्णु शर्मा द्वारा रचित ‘पंचतंत्र’ का भी वहाँ फ्रा संघराजा द्वारा सन् 1507 में अनुवादित किया गया था। फोउ लोखोन पहाड़ी पर राजा महेन्द्रवर्मन द्वारा स्थापित शिवलिंग और शिलालेख उपलब्ध है, एक अन्य शिलालेख में श्रीदेवानिका को युधिष्ठिर और धनंजय को इन्द्रद्युम्न की तुलना की गई है।
श्रीदेवानिका ने लाओस में एक ‘कुरुक्षेत्र’ की स्थापना करने का निर्णय लिया, क्योंकि जहाँ महाभारत का युद्ध हुआ था वो जगह उनके लिए ‘महातीर्थ’ जैसा था। भद्रेश्वर शिव वाले वट फु मंदिर में जयवर्मन प्रथम के शिलालेख में उल्लेख है कि पहाड़ी का नाम लिंग पर्वत था। 835 ई. के एक शिलालेख में श्रेष्ठपुरा को एक पवित्र स्थान बताया गया है क्योंकि यह शिव पूजा से जुड़ा था। जयवर्मन VI के ग्यारहवीं शताब्दी के शिलालेख में दर्ज है कि राजा के दरबारी पंडित तिलका की माँ की तुलना उनकी विद्या के कारण देवी सरस्वती से की गई है।