सोवियत संघ (USSR) के विघटन (1991) के बाद संयुक्त राज्य अमेरिका खुद को दुनिया की इकलौती महाशक्ति के तौर पर पेश करता है। अमेरिका खुद को मानवाधिकार का चैंपियन, न्याय का रक्षक और अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्थाओं को लागू करने के नेता के तौर पर दिखाता है, जिसमें नैतिकता और अंतर्राष्ट्रीय कानूनों को सबसे ऊपर बताता है। वो अपने साथियों जैसे इजरायल, यूएई और भारत को भी नैतिकता पर चलने की दुहाई देता है।
अमेरिका खुद को ‘बड़ा भाई’ दिखाने के लिए अपनी ताकत का इस्तेमाल करने से नहीं चूकता, चाहे वो ओसामा बिन लादेन जैसे दुश्मन को दूसरे देश में घुसकर मारने की बात हो, या खुली व्यापारिक व्यवस्था की दुहाई देकर समंदर में निगाहबानी करने की बात हो। वो खुद तो ऐसा करता है, लेकिन भारत जैसे उभरते देश जब अपने खिलाफ खतरे को कम करने के लिए कोई कदम उठाते हैं, तो ‘ज्ञान’ देने चला आता है। ये उसके दोहरे रवैये को दिखाता है।
चीन और भारत इस समय एशिया की दो महाशक्तियों के तौर पर उभर रहे हैं। जिसमें अमेरिका भारत का सहयोगी होने का दिखावा करता है और कहता है कि दोनों देशों के समान लोकतांत्रिक मूल्य हैं। दोनों देशों के आदर्श एक जैसे हैं, तो दूसरी तरफ वो चीन की राजनीतिक व्यवस्था को कम्युनिष्ट बताकर उसका विरोध करता है। चीन और अमेरिका एक-दूसरे के कट्टर दुश्मन बन चुके हैं। दोनों एक-दूसरे के खेमे वाले देशों में अपना दबदबा बनाने की भी कोशिश करते हैं।
ऐसी ही एक जगह है पैसिफिक आईलैंड्स.. यानी प्रशांत महासागर का द्वीपीय इलाका। जहाँ कई सारे छोटे-छोटे द्वीप समूहों वाले देश बसे हुए हैं। पैसिफिक आईलैंड्स में अमेरिका के सामने चीन खड़ा हो रहा है। ये वही देश या द्वीपीय जगह हैं, जहाँ से द्वितीय विश्व युद्ध में अमेरिका ने जापान पर शिकंजा कसा था। लेकिन अब चीन वहाँ अपना प्रभाव बढ़ा रहा है, ताकि ताईवान जैसे मुद्दे पर वो अमेरिकी युद्धक नीति की काट तैयार कर सके। ये बात अमेरिका को बिल्कुल भी पसंद नहीं आ रही, क्योंकि उसकी दादागिरी को चुनौती मिल रही है।
पैसिफिक आईलैंड्स कहाँ पर स्थित हैं? क्यों ये महत्वपूर्ण हैं…
सबसे पहले ये जानिए कि प्रशांत द्वीपीय इलाका क्या है? क्योंकि इस इलाके को जाने-बगैर पूरे विवाद की जड़ को समझ पाना बड़ी चुनौती होगी। पैसिफिक आईलैंड्स प्रशांत महासागर के इलाकों में फैले द्वीपों के समूह हैं, जिन्हें मूल रूप से मेलानेशिया, माइक्रोनेशिया और पोलिनेशिया में बाँटा जाता है। ये पूरा इलाका 8 लाख वर्ग किमी से अधिक का है। इसका 9वाँ-दसवाँ हिस्सा न्यूजीलैंड और न्यू गिनी द्वीप समूह के अंदर भी आता है। इस इलाके में कई देश हैं, तो कई ऐसे द्वीप समूह हैं, जिनपर यूरोपीय देशों, अमेरिका या अन्य किसी का कब्जा है।
इस इलाके को बेहतर तरीके से समझने के लिए सबसे पहले हमें ऑस्ट्रेलिया की तरफ नजर डालनी होगी। ऑस्ट्रेलिया के मुख्य भूभाग से पूर्व और उत्तर की तरफ, पूर्वी दिशा में विस्तार लिए सैकड़ों-हजारों द्वीप हैं। इन्हें न्यू गिनी आईलैंड, बिस्मार्क द्वीप समूह (आईलैंड्स), सोलोमन आईलैंड्स, वानुअतु देश, न्यू कैलेडोनिया हैं। जिन्होंने मोटा-मोटी मेलानेशिया की पहचान दी जाती है। इसके बगल में माइक्रोनेशिया का इलाका है, जिसमें पलाऊ, गुआम से लेकर कैरोलन आईलैंड्स, नौरू, मार्शल द्वीप समूह और किरिबाती जैसे देश आते हैं।
वहीं, पोलिनेशाई इलाके में हवाई आईलैंड्स (अमेरिका का नौसैनिक अड्डा, जिसपर जापान ने आक्रमण किया था), उसके दक्षिण पश्चिम में न्यूजीलैंड, तुवालु, वालिस, समाओ, अमेरिकन समोआ, टोंगा, फ्रेंच पॉलिनेशिया (फ्रांस द्वारा शासित) देश या इलाके आते हैं। इस पूरे में स्थानीय निवासियों के साथ यूरोपीय मूल के लोगों की संख्या अधिक है, साथ ही ईसाईयत मुख्य धर्म है। अधिकतर देशों में अंग्रेजी या फ्रेंच भाषा इस्तेमाल की जाती है, इसके बावजूद इस इलाके में सैकड़ों स्वतंत्र बोलियाँ-भाषाएँ हैं। इसी इलाके के बीच में माइक्रोनेशियाई पहचान वाले इलाके में जो मार्शल द्वीप समूह हैं, उसी पर हुई ज्यादतियों को सामने लाने के लिए ये लेख लिखा गया है।
अमेरिका के परमाणु धमाकों की विभीषिका से अब तक कराह रहे मार्शल आईलैंड्स के निवासी
चीन इस इलाके में अमेरिकी दबदबे को चुनौती दे रहा है, उसकी काट खोजने के लिए अब अमेरिका ने उस इलाके पर ध्यान देना शुरू किया है। इसके लिए उसने सितंबर में एक कानून बनाया। जिसमें अमेरिका और इस इलाके के इतिहास की दुहाई दी गई है। ये अलग बात है कि अमेरिका ने इस इलाके को वैसे ही भुला दिया था, जैसे अफगानिस्तान से निकलने के बाद पूरे देश को छोड़ दिया। ये पूरा मामला अमेरिकी नीतियों के विश्वासघात को भी सामने लाता है।
अमेरिका ने किए थे 67 परमाणु परीक्षण, हिरोशिमा पर गिराए गए बम से 1000 ज्यादा ताकतवर बम भी फोड़ा
द डिप्लोमैट की रिपोर्ट के अनुसार, संयुक्त राज्य अमेरिका ने मार्शल द्वीप पर 67 परमाणु और थर्मो न्यूक्लियर परीक्षण किए, जो 12 साल के दौरान हर दिन हिरोशिमा में हुए परमाणु बम विस्फोट से 1.6 गुना ज्यादा बड़े धमाके के बराबर रहे। यह ध्यान देने योग्य बात ये है कि किसी भी देश ने अमेरिका से अधिक परमाणु परीक्षण नहीं किए हैं, लेकिन अमेरिका के इन परमाणु परीक्षणों ने पूरे इलाके की विनाशलीला की दर्दभरी कहानियों को अनदेखा कर दिया।
मार्शल आईलैंड्स के लोग उन परमाणु परीक्षणों की वजह से आज भी कैंसर, परमाणु विकिरण जैसी समस्याओं से जूझ रहे हैं, लेकिन अमेरिका ने जो गलतियाँ अतीत में की, उन्हें सुलझाने की जगह, पीड़ितों से माफी माँगने की जगह, उन लोगों को उनके हाल पर छोड़ दिया है। मार्शल आईलैंड्स के निवासी आज भी अमेरिका से न्याय और नुकसान की भरपाई की माँग कर रहे हैं, लेकिन अमेरिका को इन सबसे कोई असर नहीं पड़ रहा, वो आँख-कान बंद कर अपने हितों की रक्षा करने में व्यस्त है।
हालाँकि अगस्त में अमेरिका की नींद तब खुली, जब प्रशांत आईलैंड्स के देशों के एक मंच से चीन की तरफ झुकाव वाले कदम उठाए गए। इसके तुरंत बाद पश्चिमी देशों की मीडिया की भी नींद खुल गई और वो उन देशों (ओशिनियाई देशों) की बुराई में जुट गया। इसके बाद ही अमेरिका की भी नींद खुली और सितंबर 2024 वाला कानून बनाया। इसके बाद अमेरिका ने मार्शल आईलैंड्स को ‘उचित’ सहायता की बात कही।
इस बीच, मार्च 2024 में अमेरिका के अब तक के सबसे बड़े परमाणु बम विस्फोट की 70वीं वर्षगाँठ भी वहाँ मनाई गई, जिसमें प्रशांत द्वीपीय देशों के संघ के महासचिव हेनरी पूना भी पहुँचे। अमेरिका ने 1945 में यहाँ ‘कैसल ब्रावो’ नाम के परमाणु बम का परीक्षण किया था, जो जापान के हिरोशिमा पर गिराए गए परमाणु बम से 1000 गुना ज्यादा ताकतवर था। इस वर्षगाँठ के मौके पर हेनरी पूना ने भाषण दिया और अमेरिका समेत उन पश्चिमी ताकतों को मार्शल आईलैंड्स की तबाही का जिम्मेदार ठहराया, जिन्होंने मार्शल आईलैंड्स पर परमाणु धमाके तो किए, लेकिन स्थानीय लोगों को मरने के लिए छोड़ दिया।
यही नहीं, अमेरिका ने अपने वैज्ञानिकों को वहाँ स्थानीय लोगों पर हो रहे परमाणु विकिरणों के अध्ययन के लिए भी भेजा, लेकिन परमाणु विकिरण से मर रहे लोगों को राहत देने के लिए कोई कदम नहीं उठाया। उन्होंने अमेरिकी कदमों को अपर्याप्त बताते हुए कहा कि इस क्षेत्र को अमेरिका ने ‘लगभग’ अनदेखा ही किया है।
वाशिंगटन डीसी के अनुसार, किसी विशेष क्षेत्र में लगातार परमाणु परीक्षण और उससे होने वाले नुकसान, पर्यावरण और भूविज्ञान के लिए ‘पूर्ण और अंतिम निपटान’ 150 मिलियन डॉलर है। यह राशि मार्शल द्वीप समूह को 1986 में अमेरिका से अलग होने पर कॉम्पैक्ट ऑफ फ्री एसोसिएशन की शर्तों के तहत दी गई थी। मुद्रास्फीति को ध्यान में रकें, तो ये समझौता आज की तारीख में 430 मिलियन डॉलर का है।
हालाँकि प्रशांत आईलैंड्स देशों का मंच और मार्शल आईलैंड्स की सरकार इस मुआवजे को अपर्याप्त बताते हैं। उनका कहना है कि एक परमाणु दावा न्यायाधिकरण ने मार्शल आईलैंड्स के लिए मुआवजे की कीमत 2.3 बिलियन डॉलर रखी थी, जिसकी वैल्यू मौजूदा समय में 3 बिलियन डॉलर से अधिक है। उन्हें इसी निर्णय के आधार पर मुआवजा चाहिए।
चूँकि परमाणु परीक्षणों से हुई तबाही का सही अनुमान तक नहीं लगाया जा सकता और न ही उसकी सही भरपाई की जा सकती है, ऐसे में अमेरिका भी अपनी जिम्मेदारी लेने की जगह राहत के ‘टुकड़े’ देकर पीड़ितों को अपमानित ही कर रहा है। मार्शल आईलैंड्स का ये भी कहना है कि वो 1986 तक अमेरिका की ही गुलामी में था, ऐेसे में मुआवजा तय करते समय अमेरिकी हितों को वरीयता दी गई।
मार्शल आईलैंड्स के लोगों पर बिना बताए अमेरिका ने किए वैज्ञानिक परीक्षण
अमेरिका ने मार्शल आईलैंड्स पर 67 परमाणु बमों के धमाके के लिए, लेकिन इसके बाद भी उसकी कारगुजारियाँ रुकी नहीं। अमेरिका ने चुपके-चुपके अपने वैज्ञानिक यहाँ भेजे और रिसर्च का काम करता रहा। खासकर परमाणु धमाके के बाद पड़ने वाले प्रभावों को लेकर। मार्शल आइलैंड्स जर्नल के संपादक और परमाणु ऊर्जा विरासत के विशेषज्ञ गिफ जॉनसन ने कहा, “प्रशांत द्वीप के नेता इस बात को अच्छे से जानते हैं कि अमेरिका ने इन धमाकों की वजह से हुए नुकसान का मुआवजा बहुत कम दिया है और न ही धमाकों की वजह से हुई समस्याओं पर ध्यान दिया है। ये सीधे तौर पर अमेरिका द्वारा मार्शल आईलैंड्स के प्रति वादाखिलाफी है।”
अमेरिका पर मार्शल आईलैंड्स ही नहीं, इस पूरे इलाके की अनदेखी के आरोप लगते रहे हैं, लेकिन अमेरिका ने चुप्पी साधे रखी। और अब जब चीन सक्रिय हो गया, तो फिर से अमेरिका की नींद खुली है। जो ये बताती है कि वो सिर्फ अपने हित-स्वार्थ के लिए ही काम करता है। चूँकि अमेरिका अब जाग गया है, तो वो कोशिश कर रहा है कि प्रशांत महासागर में स्थित ये देश चीन के पाले में न चले जाएँ। ऐसे में उन्हें खुश करने के लिए बड़ी ‘बयानबाजियाँ’ भी करने लगा है।
मार्शल आईलैंड्स में अमेरिका के राजदूत ने अगस्त 2024 में इस देश को अमेरिका का ‘सबसे करीबी साथी’ बताया। साथ ही कहा कि अमेरिका इन देशों की प्राथमिकताओं को सुन रहा है और उन्हें संतुष्ट करने वाले जवाब भी दे रहा है। यहाँ भी वो स्थिर क्षेत्र और सुरक्षित क्षेत्र की गाथा गाना नहीं भूले। ये अलग बात है कि अमेरिका अब भी परमाणु धमाकों की वजह से हुए नुकसान का पूरा मुआवजा भरने को तैयार नहीं है, ऐसे में अमेरिकी राजदूत की थोथी दलीलें मार्शल आईलैंड्स के निवासियों के लिए किसी काम की नहीं।
बेनेटिक कबुआ मैडिसन ने तो अमेरिका की ‘लेटो’ नाम के स्थानीय लोक कहानियों में प्रलचित ऐसे ‘गॉड’ से तुलना की, जो सबसे ज्यादा ‘चालाक’ और दुष्ट होता है। बेनेटिक कबुआ मैडिसिन मार्शल एजुकेशनल इनिशिएटिव के कार्यकारी निदेशक हैं जो अमेरिका में मार्शल आईलैंड्स से आए लोगों के कल्याण के लिए कहता है। उन्होंने जोर देकर कहा, “प्रशांत इलाके के लोग ऐसी जगह चाहते हैं, जो परमाणु बमों के धमाकों से मुक्त हो और चीन-अमेरिका की दादागिरी-प्रभाव की लड़ाई का हिस्सा न रहे।”
वैसे, साल 2022 में यूएन ने एक प्रस्ताव दिया, जिसमें मार्शल आईलैंड्स में परमाणु धमाकों की वजह से इंसानों पर पड़े प्रभावों पर एक रिपोर्च तैयार की जानी थी, लेकिन अमेरिका ने इस प्रस्ताव का ये कहते हुए विरोध किया कि अमेरिका अपने कर्तव्यों को स्वीकार कर उन पर काम कर रहा है। हालाँकि ये रिपोर्ट सितंबर में आई, जिसमें यूएन ने अमेरिका से मार्शल आईलैंड्स के लोगों से ‘औपचारिक माफी और पूर्ण मुआवजा’ देने का आग्रह किया।
मार्शल आईलैंड्स की राष्ट्रपति हिल्डा हेन ने भी यूएनजीए (संयुक्त राष्ट्र महासभा) में अमेरिकी अत्याचारों की याद दिलाई और कहा, “अमेरिका ने हमारे ऊपर गहरी तबाही के निशान छोड़े हैं। हमारे लोग अपने घरों से विस्थापित हैं। मुआवजे की माँग अभी तक मानी नहीं गई। मार्शल आईलैंड्स में तबाही के निशान हर तरफ हैं।” वो मार्शल आईलैंड्स में फैले परमाणु कचरे की भयावहता के बारे में दुनिया को बता रही थी।
उन्होंने कहा कि अमेरिका ने अभी तक कोई बीच का रास्ता तक नहीं निकाला और न ही पीड़ितों से कोई माफी माँगी। उन्होंने जोर देकर कहा कि मार्शल आईलैंड्स के लोगों के भोलेपन का फायदा उठाया गया। परमाणु धमाकों की वजह से उन्हें विस्थापित होना पड़ा। यही नहीं, अमेरिका ने बिना लोगों से पूछे वहाँ पर वैज्ञानिक रिसर्च भी किए।
हालाँकि अभी तक अमेरिका ने इस दिशा में जो कुछ भी किया है, वो सिर्फ बयानबाजी तक ही सीमित है। उनका लक्ष्य सिर्फ इस इलाके में चीन का प्रभाव बढ़ने से रोकने का है, ऐसे में वो परमाणु धमाकों की वजह से हुई बर्बादियों का मुआवजा देने की तरफ बात तक नहीं करता है।
मार्शल आईलैंड्स पर परमाणु धमाकों का काला इतिहास
मार्शल आइलैंड्स, प्रशांत महासागर में स्थित 29 कोरल एटोल्स (उथले द्वीपों) का एक समूह है। यह द्वीपसमूह हवाई और ऑस्ट्रेलिया के बीच स्थित है। मार्शली लोग हजारों सालों से यहाँ रहते आए हैं, लेकिन 20वीं शताब्दी में उनकी जिंदगी और इन आईलैंड्स की शांति हमेशा के लिए छिन गई। पहले जापानी सेना और फिर अमेरिकी सेना ने इन आईलैंड्स पर कब्जा जमाया। इसके बाद संयुक्त राज्य अमेरिका ने मार्शल आईलैंड्स में शक्तिशाली परमाणु हथियारों का परीक्षण करने का इरादा किया, क्योंकि वे अलग-थलग स्थिति, छोटी आबादी और अन्य अमेरिकी सैन्य प्रतिष्ठानों से निकटता में थे। अंततः यहाँ परमाणु परीक्षणों का एक भयानक दौर शुरू हुआ जिसने इस पूरे क्षेत्र को बदल कर रख दिया।
1944 में अमेरिका ने द्वीपों को जापानी कब्जे से मुक्त कराकर यहाँ सैन्य अड्डे स्थापित किए। द्वितीय विश्व युद्ध के अंत में अमेरिका ने अपनी सैन्य और परमाणु शक्तियों का विस्तार करना शुरू किया। 1946 में, संयुक्त राष्ट्र ने मार्शल द्वीपों को प्रशांत द्वीपसमूह ट्रस्ट क्षेत्र के तहत अमेरिकी प्रशासन के अधीन कर दिया। यह तब की बात है जब द्वीपों की आबादी लगभग 52,000 थी।
1946 और 1958 के बीच, अमेरिका ने मार्शल द्वीपों में 67 परमाणु परीक्षण किए, जो धीरे-धीरे मार्शल आइलैंड्स के पर्यावरण, स्वास्थ्य और समुदायों के लिए एक बड़ी त्रासदी साबित हुए। सबसे महत्वपूर्ण परीक्षणों में से एक था ‘कैसल ब्रावो’ जो 1 मार्च 1954 को बिकिनी एटोल में हुआ था। यह अमेरिकी इतिहास में सबसे बड़ा और भयानक परमाणु विस्फोट था जिसने मार्शल द्वीपों के निवासियों के लिए अकल्पनीय विनाश और पीड़ा का दौर शुरू किया।
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अमेरिका ने अपनी परमाणु क्षमताओं को तेजी से बढ़ाने की दिशा में कदम उठाए। अमेरिकी सरकार ने परमाणु ऊर्जा आयोग (Atomic Energy Commission) की स्थापना की, जिसका उद्देश्य परमाणु विज्ञान और प्रौद्योगिकी के विकास को बढ़ावा देना था। उस समय, अमेरिका और सोवियत संघ के बीच बढ़ती परमाणु होड़ के कारण अमेरिका के लिए अधिक परमाणु हथियार विकसित करना बेहद महत्वपूर्ण माना जाता था।
“ऑपरेशन क्रॉसरोड्स” के तहत मार्शल द्वीपों में पहला परीक्षण हुआ। इसका मुख्य उद्देश्य परमाणु विस्फोटों के नौसैनिक युद्धपोतों पर प्रभाव का अध्ययन करना था। 1 जुलाई 1946 को “शॉट एबल” नामक परीक्षण बिकिनी एटोल में किया गया, जिसने परीक्षणों के दौर की शुरुआत की। इस परीक्षण ने वैश्विक परमाणु वैज्ञानिकों को यह प्रमाणित किया कि इन हथियारों की क्षमता बेहद घातक है, जिसमें एक मील दूर तक मौजूद सैनिकों को तुरंत मारने की शक्ति थी। इसके बाद 25 जुलाई को दूसरा परीक्षण हुआ।
अमेरिका के पहले परमाणु परीक्षण, जिसे “ट्रिनिटी टेस्ट” कहा गया, 1945 में किया गया था। इसके बाद हिरोशिमा और नागासाकी पर “लिटिल बॉय” और “फैट मैन” नामक बम गिराए गए थे, लेकिन इन घटनाओं के बाद यह पहला बड़ा परीक्षण था। हालाँकि, 10 अगस्त 1946 को ऑपरेशन क्रॉसरोड्स को रेडिएशन संबंधित चिंताओं के कारण बंद कर दिया गया, विशेष रूप से उन सैनिकों के लिए जो परीक्षणों में शामिल थे। 1969 में बिकिनी एटोल को साफ करने के लिए अमेरिका ने लंबे समय तक चलने वाले प्रयास शुरू किए।
साल 1950 में राष्ट्रपति हैरी एस ट्रूमैन ने अमेरिका की थर्मोन्यूक्लियर हथियारों पर शोध को बढ़ावा देने का फैसला लिया, जिससे मार्शल द्वीपों में और अधिक परीक्षणों की पूरी सीरीज शुरू हुई। 1951 में “ऑपरेशन ग्रीनहाउस” के तहत ईनेवेटक एटोल में कई परमाणु परीक्षण किए गए। इन परीक्षणों का उद्देश्य परमाणु बमों की विनाशकारी शक्ति को बढ़ाना और उनके आकार को कम करना था।
मार्शल आईलैंड्स को दिए गए चोट पर चोट
इसके बाद ‘ऑपरेशन आइवी’ नामक परीक्षणों की श्रृंखला 1952 में की गई, जिसमें पहला सफल हाइड्रोजन बम परीक्षण भी शामिल था। इसे “शॉट माइक” के नाम से जाना गया। इस परीक्षण के कुछ ही सालों बाद, 1954 में, अमेरिका ने ‘कैसल ब्रावो’ नामक परीक्षण किया, जो अब तक का सबसे बड़ा परमाणु विस्फोट था। इस विस्फोट ने ‘लिटिल बॉय’ से लगभग 1,000 गुना अधिक विनाशकारी प्रभाव डाला। इस परीक्षण से अत्यधिक मात्रा में रेडियोधर्मी पदार्थ वातावरण में फैल गए, जिससे पूरे क्षेत्र में भयावह असर हुआ।
इस परीक्षण के बाद, कई द्वीपों पर रेडियोधर्मी विकिरण फैल गया, जिसमें रंगेलप और अइलिंगिनाए जैसे एटोल भी शामिल थे, जो परीक्षण स्थल से मात्र 100 मील दूर थे। अमेरिकी सेना ने इन द्वीपों को समय पर खाली नहीं किया था, जिससे वहाँ रहने वाले लोग और विशेष रूप से बच्चे, खतरनाक रेडियोधर्मी सामग्री के संपर्क में आ गए। रेडियोधर्मी धूल के बीच खेल रहे बच्चों के कई मामलों ने इस त्रासदी की भयावहता को और बढ़ा दिया।
मार्शल आइलैंड्स के लोगों को शुरू में यह विश्वास दिलाया गया था कि ये परीक्षण अस्थायी होंगे और उनकी भूमि का प्रयोग ‘मानवता की भलाई’ के लिए किया जाएगा। बिकिनी एटोल के 167 निवासियों को उनके घरों से विस्थापित कर रोंगेरिक एटोल भेजा गया, जहाँ पर्याप्त संसाधन नहीं थे। 1948 तक लोग वहाँ भुखमरी की स्थिति में पहुँच चुके थे। इसके बाद उन्हें किली नामक द्वीप पर बसाया गया, लेकिन वहाँ भी हालात बहुत बेहतर नहीं थे।
1969 में बिकिनी एटोल के निवासियों को पुनः उनके द्वीपों में बसाने की कोशिश की गई, लेकिन 1978 में उन्हें फिर से हटा दिया गया क्योंकि रेडियोधर्मी स्तर बहुत अधिक था। बिकिनी एटोल आज भी इंसानों के रहने के लिए सुरक्षित नहीं है, और द्वीपवासी अपने घर लौटने के अमेरिकी वादे का इंतजार कर रहे हैं।
परमाणु परीक्षणों के कारण मार्शल आइलैंड्स के निवासियों के स्वास्थ्य पर गंभीर प्रभाव पड़े। इन परीक्षणों के परिणामस्वरूप गर्भपात, मृत बच्चों का जन्म, थायरॉइड कैंसर और अन्य बीमारियों के मामलों में भारी वृद्धि हुई। विशेष रूप से रंगेलप के निवासियों को इसका भारी खामियाजा भुगतना पड़ा। बच्चों में बाल झड़ने, जलने और शरीर पर फफोलों जैसे लक्षण देखे गए, लेकिन अमेरिकी अधिकारियों ने यह दावा किया कि वे विकिरण के संपर्क में नहीं आए थे। ‘जेलीफ़िश बेबीज़’ नाम से जाने जाने वाले बिना हड्डी वाले बच्चों का जन्म भी विकिरण का दुष्परिणाम था। 1956 में परमाणु ऊर्जा आयोग के स्वास्थ्य और सुरक्षा निदेशक मेरिल ईसेनबड ने रंगेलप को ‘दुनिया में सबसे प्रदूषित जगह’ करार दिया था
अमेरिकी सरकार ने ‘प्रोजेक्ट 4.1‘ नाम का भयावह प्रोजेक्ट शुरू किया, जिसमें परमाणु विकिरण के प्रभावों का अध्ययन किया गया। इसे लेकर सबसे चिंताजनक बात यह थी कि मार्शल आइलैंड्स के निवासियों को बिना उनकी जानकारी या सहमति के इस परियोजना का हिस्सा बनाया गया। उनके स्वास्थ्य के साथ खुलेआम प्रयोग किए गए, और यह कई दशकों तक चला।
मार्शल आईलैंड्स के नेता टोनी डेब्रम ने 1996 में अमेरिकी कॉन्ग्रेस को बताया कि अमेरिकी डॉक्टरों ने शोध के नाम पर लोगों के स्वस्थ और अस्वस्थ दोनों तरह के दाँत निकाल दिए थे। मार्शल की महिलाओं को अमेरिकी वैज्ञानिकों के सामने कपड़े उतारने के लिए मजबूर किया गया। यह परियोजना कई दशकों तक चली।
मार्शल आईलैंड्स की तबाही आधुनिक उपनिवेशवाद का दुखद उदाहरण
मार्शल आइलैंड्स की कहानी एक छोटे, शांत द्वीपसमूह की है जिसे आधुनिक विश्व की शक्ति-सियासत और परमाणु हथियारों की होड़ ने तबाह कर दिया। यह कहानी आधुनिक समय के उपनिवेशवाद का एक दुखद उदाहरण है, जहाँ एक महाशक्ति ने एक छोटे से द्वीप समूह को अपने सैन्य और वैज्ञानिक प्रयोगों के लिए कुर्बान कर दिया। इन परीक्षणों ने न केवल द्वीपों के पर्यावरण को नष्ट किया, बल्कि वहाँ के निवासियों के स्वास्थ्य और जीवन को भी अपूरणीय क्षति पहुँचाई। यह एक भूला हुआ अध्याय है जिसमें अमेरिका की महाशक्ति बनने की चाहत और परमाणु शक्ति के परीक्षणों ने एक समूची सभ्यता को बर्बाद कर दिया। यह एक ऐसा उदाहरण है, जहाँ वैश्विक राजनीति और वैज्ञानिक प्रयोगों ने मानवाधिकारों की खुलेआम अनदेखी की।
आज तक, अमेरिका ने मार्शल आइलैंड्स के लोगों से माफी नहीं माँगी है। यहाँ तक कि जब अमेरिकी सरकारी समितियों ने 1994 में यह निष्कर्ष निकाला कि मार्शल आइलैंड्स के लोगों का विकिरण के संपर्क में आना रिसर्च के उद्देश्यों से जुड़ा नहीं था, तब भी इस तथ्य को न्यायोचित ठहराने का प्रयास किया गया। मार्शल आइलैंड्स के लोग आज भी अपनी खोई हुई भूमि, स्वास्थ्य और भविष्य को पुनः प्राप्त करने की लड़ाई लड़ रहे हैं। अमेरिका ने इन परीक्षणों के दीर्घकालिक प्रभावों को नकारने का प्रयास किया। विकिरण के फैलने का क्षेत्र इतना विशाल था कि इसके अंश यूरोप, जापान, भारत और ऑस्ट्रेलिया तक पाए गए। इसने वैश्विक स्तर पर परमाणु परीक्षणों के खिलाफ एक आंदोलन को भी जन्म दिया।
अमेरिका की यह तथाकथित “नियम-आधारित अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था” वास्तव में उसके अपने हितों को पूरा करने के लिए बनाई गई व्यवस्था है, जो दुनिया के अन्य देशों, विशेष रूप से स्वतंत्र फैसले लेने वाले देशों को दबाव में लेकर अपने साथ लाने का प्रयास करती है। मार्शल आइलैंड्स के मामले में यह पूरी तरह से साफ है कि अमेरिका ने अपनी ताकत और सत्ता को बनाए रखने के लिए इंसानी जिंदगियों और इंसानी अधिकारों की पूरी तरह से अनदेखी की है।
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