नसीर को शायद ही देश ने कभी एक मुस्लिम के नज़रिए से देखा हो, उनकी छवि आज भी एक शानदार एक्टर की है। पर नसीरुद्दीन शाह एक के बाद एक विवादित और भड़काऊ बयान अलग-अलग मंचो और संस्थाओं की छत्रछाया में दिए जा रहें हैं। इससे पहले कि आप भी बुरी तरह डर जाएँ और अपने पड़ोसी, सगे-सम्बन्धी को शंका की नज़र से देखने लगे। आपको अपना देश पकिस्तान, तालिबान से भी बद्तर नज़र आने लगे, थोड़ा ठहर कर पहले डर के मनोविज्ञान को समझ लीजिए। फिर शायद आपको ऐसे दिखावटी डर पर भय नहीं बल्कि हंसी आए। आपको बताता चलूँ कि ‘हमारे अधिकांश डर काल्पनिक होते हैं और अक्सर भविष्य में होते हैं, जो अज्ञात से उपजते हैं।’
पहले आपको नसीरुद्दीन शाह साहब के डर से परिचित कराता हूँ। देखिये डर किस रूप में आपके ज़ेहन में ज़हर घोलने को तैयार है।
“ये ज़हर फैल चुका है और दोबारा इस जिन्न को बोतल में बंद करना बड़ा मुश्किल होगा। खुली छूट मिल गई है कानून को अपने हाथों में लेने की। कई इलाकों में हम लोग देख रहे हैं कि एक गाय की मौत को ज़्यादा अहमियत दी जाती है, एक पुलिस ऑफ़िसर की मौत के बनिस्बत। मुझे फिक्र होती है अपनी औलाद के बारे में सोचकर। क्योंकि उनका मज़हब ही नहीं है। मज़हबी तालीम मुझे मिली थी, रत्ना (रत्ना पाठक शाह-अभिनेत्री और नसीर की पत्नी) को बिलकुल नहीं मिली थी, वो एक लिबरल परिवार से आती हैं। हमने अपने बच्चों को मज़हबी तालीम बिलकुल नहीं दी। क्योंकि मेरा ये मानना है कि अच्छाई और बुराई का मज़हब से कुछ लेना-देना नहीं है। अच्छाई और बुराई के बारे में ज़रूर उनको सिखाया।”
“तो फ़िक्र मुझे होती है अपने बच्चों के बारे में कि कल को उनको अगर भीड़ ने घेर लिया कि तुम हिंदू हो या मुस्लिम, तो उनके पास तो कोई ज़वाब ही नहीं होगा। इस बात की फ़िक्र होती है कि हालात जल्दी सुधरते तो मुझे नज़र नहीं आ रहे। इन बातों से मुझे डर नहीं लगता गुस्सा आता है। और मैं चाहता हूँ कि राइट थिंकिंग इंसान को गुस्सा आना चाहिए, डर नहीं लगना चाहिए हमें। हमारा घर है, हमें कौन निकाल सकता है यहाँ से।”
पूरा वक्तव्य पढ़कर क्या लग रहा है आपको? क्या नसीर का डर वास्तविक है या उनके दिमाग ने कुछ न्यूज़ चैनेल देखकर, उनके दिखाए माहौल और कुछ खतरे में आये तथाकथित लोगों के वक्तव्य के आधार पर या किसी एजेंडे के तहत खुद के लिए भी काल्पनिक डर का माहौल नहीं पैदा कर लिया? हो सकता है ये आने वाली किसी बड़ी घटना या साज़िश की पूर्वपीठिका हो या फिर कुछ संस्थाओं द्वारा सम्पादित स्क्रिप्ट का पूर्वपाठ। ध्यान दें, जो तथ्य अपने वक्तव्य में उन्होंने चुने हैं अपनी बात कहने के लिए, क्या वह सम्पूर्ण देश की तस्वीर है? या चंद घटनाओं को अपने हिसाब से चुनकर अपनी बात को सही दर्शाने की नापाक कोशिश?
मैं आपसे पूछता हूँ कि क्या सच में आपको लग रहा है, वर्तमान में आपका अस्तित्व खतरे में है? और है भी तो कितना और किससे? क्या उसकी वजह आप खुद हैं या आपके आस-पास के लोग या कुछ और? ज़्यादातर लोग भरे पड़े हैं अपने तमाम तरह के पूर्वग्रहों से, हर बात और घटना पर, हर पल प्रतिक्रिया देने को तैयार, चाहे ज़रूरत हो या न हो। कुछ ने तो बात बे बात देश का माहौल गरमाने का ठेका ही ले लिया है।
पहला विवाद अभी थमा भी नहीं था कि सुलगती अँगीठी में उन्होंने एक बार फिर आग भड़काने की कोशिश की। उनका पहला विवादित बयान यूपी के बुलंदशहर कांड का जिक्र कर हिंदुस्तान में डर लगने जैसा माहौल क़ायम करने के लिए था। पर जनता ने उनका सारा खेल समझ लिया। उनके देश विरोधी मंसूबे को भाँप कर अपने काम में व्यस्त हो गई। योजना विफल होती दिखी। असहिष्णुता का डर खड़ा होने से पहले ही दम तोड़ता नज़र आया तो उसमें जान डालने के लिए उन्होंने एक और विवादित बयान दे डाला। जिसे एमनेस्टी इंटरनेशनल ने हाथों-हाथ लिया। और उस पर एक मुहीम चलाकर देश का माहौल बिगाड़ने की कोशिश की।
In 2018, India witnessed a massive crackdown on freedom of expression and human rights defenders. Let’s stand up for our constitutional values this new year and tell the Indian government that its crackdown must end now. #AbkiBaarManavAdhikaar pic.twitter.com/e7YSIyLAfm
— Amnesty India (@AIIndia) January 4, 2019
नसीर के अनुसार, “भारत में धर्म के नाम पर घृणा की दीवार एक बार फिर खड़ी हो गई है। जो अन्याय के खिलाफ हैं उन्हें दण्डित किया जा रहा है। जो अधिकार माँग रहे हैं उन्हें जेलों में डाला जा रहा है। कलाकारों, अभिनेताओं, विद्वानों, कवियों को डराया जा रहा है। पत्रकारों को बोलने से रोका जा रहा है। जो अन्याय के ख़िलाफ़ लड़ रहे हैं, उनके ऑफ़िसों पर छापे डाले जा रहे हैं, उनके लाइसेंस रद्द किये जा रहे हैं, उनके बैंक अकाउंट फ्रीज़ किये जा रहे हैं। आज जहाँ हमारा देश खड़ा है, वहाँ असहमतियों के लिए कोई जगह नहीं है। देश में केवल अमीरों और ताक़तवर लोगों को सुना जा रहा है। गरीब और वंचित कुचले जा रहे हैं। जहाँ कभी न्याय हुआ करता था वहाँ अब केवल अंधकार है। ”
एमनेस्टी इंटरनेशनल ने उनके बयान को #AbakiBaarManavAdhikaar हैशटैग के साथ न सिर्फ ट्वीट किया बल्कि ये दावा भी किया कि ‘भारत में फ्रीडम ऑफ़ स्पीच को दबाया जा रहा है। और मानव अधिकार कार्यकर्ताओं को डराया जा रहा है।’
फिलहाल नसीर साहब की भावनाओं से सहमत हूँ, बावजूद इसके कि उनकी बात मुझे कुछ ख़ास समझ नहीं आई। चलिए मान लेता हूँ कि देश में सांप्रदायिक माहौल बिगड़ा हुआ है। समय-समय पर बिगड़ता रहता है। कुछ लोगों ने बिगाड़ने का ठेका जो ले रखा है। न बिगड़े तो उन्हें मज़ा ही नहीं आता। सामान्य-सी आपराधिक घटना में भी जातिवाद की बू आने लगती है उन्हें। हर घटना में यही ढूँढते है कि जाति क्या है? हिन्दू-मुस्लिम वाला कोई एंगल निकल रहा है कि नहीं, उसमे भी कोई मुस्लिम आहत हो या फिर उनकी भावनाएँ। खैर ऐसे भड़काई हुई असहिष्णुता की आग जल्दी ही शांत हो जाती है। फिर माहौल अपने आप ठीक हो जाता है और होता रहेगा। भारत देश ही ऐसा है। तमाम विविधताओं, विरोधाभाषों से भरा समाज है। एकतरफ़ा सोच वाले वामपंथी घामडों को यह देश कभी समझ में नहीं आएगा। वो हर बात में सिर्फ़ खामियाँ ही ढूँढने में खुद को खपा देंगे।
आश्चर्य इस बात का होता है कि जन्म से भारतीय होने वाला इतना बड़ा कलाकार जिसे समाज की बहुत अच्छी समझ होनी चाहिए ऐसी कोई बचकानी बात कहें जिसका कोई तुक समझ नहीं आए तो दुःख देश के माहौल पर नहीं बल्कि ऐसे लोगों की समझ पर होता है।
मुझे तो इस देश में ऐसा कोई बोतल से निकला हुआ जिन्न दिखाई नहीं देता जिसे बोतल में वापस न डाला जा सके। जिस देश में विभाजन की विभीषिका झेलने और दस लाख से अधिक लोगों के कत्ल होने के बाद भी बोतल से कोई जिन्न नहीं निकला। जिस देश ने चौरासी के सिख नरसंहार या और भी ऐसी घटनाओं के बाद भी हर तरह के जिन्न को बोतल में बंद कर दौड़ना सीखा हो। उसमें आठ-दस मॉब लिंचिंग (Mob Lynching) की घटनाओं से बोतल से कोई जिन्न निकल गया कहना बचकानापन है। जहाँ भी अनियंत्रित भीड़ होगी और उन्हें उकसाने वाला कोई टुटपुँजिया नेता, तथाकथित लिबरल वामपंथी कामपंथी होगा वहाँ ऐसी घटनाएँ घट सकती हैं।
ये मामला लॉ एंड ऑर्डर का होता है और कानून ऐसे मामलों में अपना काम करता है। हाँ, कहीं-कहीं भीड़ का फ़ायदा उठाकर कुछ आपराधिक तत्व या विपक्षी पार्टियाँ आपराधिक घटनाओं को अंज़ाम देते और दिलवाते रहते हैं। चाहे वो बुलंदशहर का सुबोध सिंह का मामला हो या फिर निषाद पार्टी द्वारा प्रधानमंत्री के भाषण से लौटते समय एक पुलिस इंस्पेक्टर की हत्या कर देना। पर ऐसी घटनाओं में भी मीडिया आमतौर पर पहले जातिवादी, सम्प्रदायवादी मसाला ढूँढती है मिल गया तो हो-हल्ला, नहीं तो पूरा मामला ही सामाजिक न्याय का हो जाता है। आपको अंकित या डॉ. नारंग का मामला याद होगा जिसे इसी वामपंथी मीडिया ने ऐसा ट्रीट किया कि कहीं कुछ हुआ ही नहीं।
वैसे मुझे नसीर साहब का अपने बच्चों के लिए चिंतित होना समझ आता है। हम सब अपने बच्चों के लिए चिंतित होते हैं, होना भी चाहिए। कहीं किसी स्कूल बस की दुर्घटना की खबर सुनकर भी आपको चिंता हो सकती है कि बच्चे को स्कूल बस में भेजा करूँ या खुद ही छोड़ आया करूँ। मगर मुझे समझ नहीं आया कि उनकी बच्चों के लिए चिंता का मज़हबी तालीम से क्या सम्बन्ध है? आपने अपने बच्चों को मज़हबी तालीम नहीं दी, अच्छा किया या बुरा किया मगर इसका ज़िक्र क्यों? आप हिंदुस्तान में पले-बढ़े हैं तो आपको इतनी समझ तो होनी चाहिए कि हिंदुस्तान के अधिकांश बच्चों को कोई मज़हबी तालीम नहीं दी जाती।
मेरे पूरे खानदान में मैंने किसी को मज़हबी तालीम पाते नहीं देखा। न ही मुझे कभी कोई धार्मिक शिक्षा मिली। और न ही अपने आस-पास बच्चों को कोई धार्मिक शिक्षा देते या दिलाते देखा। हिन्दुओं में तो आमतौर पर बच्चों को कोई धार्मिक शिक्षा नहीं दी जाती जब तक कि बच्चे को पंडित या पुरोहित न बनाना हो। यहाँ तक कि तलफ्फुज़ ठीक करने के लिए भी रामायण या महाभारत नहीं पढ़ाई जाती। लोग वैसे ही आधे-अधूरे तौर पर बाकि कहानियों की तरह इनसे भी परिचित हो जाते हैं पर कोई ज़रूरी क़ायदा या ज़बरदस्ती नहीं है।
नसीर साहब आपकी चिंता वाज़िब है मगर अपनी चिंता को मज़हबी रंग न दें। साम्प्रदायिकता से लड़ना ठीक है, धर्म से नहीं। और यदि हिन्दुस्तानी होकर भी आप इन दोनों के बीच कोई फ़र्क नहीं समझते तो खुद को हिन्दुस्तानी कहने पर आपको शर्म आनी चाहिए।
आपको इस देश ने बहुत कुछ दिया नसीर साहब और आपने देश विरोधी ताकतों को अपने ही देश पर सवाल उठाने का मौका दिया। आपके वक्तव्यों की आड़ में पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान भारत पर ये आरोप लगाता है कि यहाँ मुस्लिम ख़तरे में हैं, उन पर अत्याचार हो रहा है। उसे बलूचिस्तान का जघन्य अत्याचार या पाकिस्तान में हिन्दुओं पर लगातार हो रहा अत्याचार नज़र नहीं आ रहा। वहाँ लगातार हिन्दुओं की संख्या घटते-घटते विलुप्ति के कगार पर है और यहाँ पाकिस्तान से भी बड़ी मुस्लिमों की आबादी पनप और फल-फूल रही है तो संकट में है।
नसीर साहब आप जैसे लोग अक्सर अपने डर को जायज़ ठहराने के लिए अपने हिसाब से घटनाएँ चुन लिया करते हैं फिर उस घटना को सोचकर इतना बड़ा करते हैं कि उनका काल्पनिक डर उन्हें भयावह लगने लगता है। क्या ये संभव है कि हर किसी के सोच और कार्यों पर सेंसर लगा दिया जाए। आप जो चिल्लाते हैं बोलने की आज़ादी छीनी जा रही है और आपका पूरा गिरोह जिसे न सिर्फ समर्थन देता है बल्कि बढ़ा-चढ़ाकर देश में अराजकता का माहौल पैदा करने की कोशिश करता है। आपको पूरी आज़ादी है तभी आप आज कुछ भी कह पा रहें हैं। कोई भी मीम या बहुत कुछ आपत्तिजनक कह और दिखा पा रहें हैं, फिर भी चिल्लाहट कि तानाशाही आ गई। याद होगा आपको इमरजेंसी का वो दौर भी जब केवल इस आशंका से कि कोई कुछ बोल न दे लाखों नेताओं, बुद्धिजीवियों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, यहाँ तक कि आम लोगों को भी को जेल में ठूँस दिया गया था। तब आपको तानाशाही नज़र नहीं आई।
बताइए नसीर जी क्या कोई छिपी हुई मंशा है आपकी? किसी ने आपको कुछ लिखित स्क्रिप्ट दिया है या यूँ ही आपके दिमाग ने ही कुछ खेल खेला है जिससे आप लगातार इस तरह का वक्तव्य दे रहें हैं। और रही सही कसर, पहले से खेमों में बंटें वामपंथी कूढ़मगज, लिबरल चाटुकार पूरी कर रहे हैं। खेल तो अब भी जारी है और शायद चुनाव तक रह-रह कर ये सब चलता भी रहे।
नसीरुद्दीन शाह के वक्तव्य पर कई प्रतिक्रियाएं आ चुकी हैं, आपने भी अपने अंदाज़ में प्रतिक्रिया की ही होगी। कुछ ने उसे वैसा ही लिया जैसा कि वह है। कुछ ने फिर से तिल का ताड़ बना इसकी आड़ में अपनी राजनीति चमकाने की कोशिश की। कुछ के लिए तो फिर से यहाँ रहना मुश्किल हो गया था लेकिन अब आराम से रह रहें हैं। विपक्षियों, वामपंथियों से लेकर देश-विरोधी ताकतों को नई संजीवनी मिलते-मिलते रह गई।
वैसे तो सब कुछ साफ़ है फ़िर भी चलते-चलते मैं कोई निष्कर्ष नहीं देना चाहता। ये आप पर छोड़ता हूँ। देश की जनता के विवेक पर मुझे पूरा भरोसा है। आप अपने विवेक से माहौल का बिलकुल सही अंदाजा लगा लेंगे। मुझे नहीं लगता आप को सच जानने या महसूस करने के लिए ऐसे किसी सेलेब्रिटी वक्तव्य की ज़रूरत होगी। जब भी ऐसा माहौल पैदा किया जाए तो कुछ दिन ऐसे भड़काऊ टीवी चैनलों और सोशल मीडिया पोस्टों से दूर रहिये फिर सब सामान्य लगने लगेगा। क्योंकि देश की सनातन परम्परा में इतनी ताकत है जो आपको हर हाल में संभाले और जोड़े रखेगी।
इसी विषय पर एक कटाक्ष यहाँ पढ़ें: चोखा धंधा है अभिव्यक्ति की आज़ादी का छिन जाना!