प्रोपगेंडा वाले फेमिनिज्म का असली मतलब क्या होता है, इसका एक चेहरा कल सोशल मीडिया पर दोबारा देखने को मिला। एक फोटोग्राफर द्वारा खींची गई दो तस्वीरें कल अचानक हर जगह वायरल होना शुरू हुईं। एक में मॉडल ने सज धज कर साड़ी पहनी है और दूसरे में लड़की नन की ड्रेस में नजर आ रही है।
फोटोग्राफर की तस्वीरें वायरल होने की वजह सिर्फ़ साड़ी वाली फोटो है। इसमें नजर आ रहा है कि उसने हिंदुओं की पारंपरिक पोशाक साड़ी का कैसे अपमान किया। तस्वीर में देख सकते हैं कि साड़ी को नीचे से काटकर अलग कर दिया गया है और मॉडल कैंची अपने हाथ में लेकर कैमरे की ओर देख रही है।
यामी नाम की फोटोग्राफर ने सोशल मीडिया पर यह तस्वीर 8 मार्च 2020 को अपलोड की थी। वही दिन, जिसे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर महिला दिवस के रूप में मनाया जाता है। वही, दिन जब हर जगह महिला सशक्तिकरण की बात होती है।
यामी ने इसी दिन इस फोटोशूट की कुछ तस्वीर इंस्टाग्राम पर डालीं और एक तस्वीर के नीचे महिला दिवस, की शुभकामनाएँ देते हुए कैप्शन में लिखा- “ब्रेक द स्टिरियोटाइप्स।” वहीं दूसरी तस्वीर में लिखा, “Why fit in when you were able to stand out “
सोशल मीडिया पर इन तस्वीरों की बहुत आलोचना की जा रही है। कुछ लोगों का कहना है कि सीधे-सीधे हिंदुओं की संस्कृति पर प्रहार है। कुछ लोगों का पूछना है कि आखिर फोटोग्राफर को लेकर इतना बवाल क्यों हो रहा है, तस्वीर में नजर आने वाली महिला तो बस एक मॉडल है।
बता दें, जिन लोगों का इस तस्वीर को देखने के बाद यह सवाल है कि आखिर तस्वीर को लेकर हुआ बवाल बेवजह है या आधुनिक दौर में उसे इतना हाइलाइट नहीं किया जाना चाहिए। वो यामी के ही अकॉउंट पर अपलोड दूसरी फोटो को देखें। यह भी सोशल मीडिया पर धड़ल्ले से शेयर हो रही है। इसमें लड़की, एक नन की ड्रेस पहने हुए है और चेहरे पर मुस्कान के साथ फोटो खिंचवा रही हैं।
बात सिर्फ़ फोटो की नहीं है। कैप्शन में भी अंतर देखिए। साड़ी को घुटनों के ऊपर तक काटकर जहाँ यामी उसे ‘ब्रेक द स्टिरियोटाइप’ मानती और समझती हैं कि जब आप बाहर नजर आ सकते हैं तो अंदर क्यों रहना । वहीं नन की ड्रेस वाली तस्वीर पर लिखती हैं, “उनकी कृपा से.. तब तक जीवन का आनंद लेंगे और एक दूसरे से प्यार करेंगे जब तक उनका राज (किंगडम) नहीं आता।”
विचार योग्य बात यह है कि दोनों पोशाकों को लेकर एक फोटोग्राफर की राय इतनी भिन्न कैसे है? जिन्हें लगता है कि यह काम अब भी केवल प्रोफेशन के लिहाज से हुआ है। उन्हें सोचना चाहिए कि एक तस्वीर में मॉडल को जहाँ धार्मिक पोशाक पहना कर ईश्वर की तलबगार दिखाया जा रहा है। वहीं दूसरी तस्वीर में मॉडल को, ऐसी पोशाक जिसका संबंध सीधे हिंदू संस्कृति व भारतीय सभ्यता से है, उसे रूढ़िवाद का बिंब तोड़ने वाली बताया जा रहा है।
इस तरह के नारीवाद में गौर करें कि इनके लिए किसी पहनावे में खुद को सिर से लेकर पाँव तक ढके रखना तब तक ही बंदिश नहीं है, जब तक उसका संबंध हिंदू धर्म से न हो। जैसी ही किसी पोशाक का संबंध हिंदू संस्कृति से जुड़ जाए तो इस तरह के छद्म नारीवाद के लिए उस पहनावे को कैंची से काटने का अर्थ पितृसत्ता से लड़ना बन जाता है।
Claustophobic Nun Dress is empowering but a beautiful Saree is regressive
— Rishi Bagree (@rishibagree) September 24, 2020
This is how they run Anti Hindu propaganda pic.twitter.com/xWYH74LIU2
इसलिए, ऐसी तस्वीरें देखकर सवाल तो पूछा जाना चाहिए क्या ऐसी मॉडल्स, या ऐसी फोटोग्राफर्स इस पितृसत्ता के ख़िलाफ़ लड़ाई को आगे बढ़ाने से पहले अपने अकॉउंट पर स्पष्ट तौर पर यह लिख सकती हैं कि उनके नारीवाद में केवल हिंदू धर्म से संबंधी धारणाओं की छीछालेदर की जाती है।
अगर, नहीं लिख सकतीं। तो यह स्टिरियोटाइप हर पोशाक की कतरनों के साथ क्यों नहीं ब्रेक किए जाते? हिंदुओं के पहनावे पर ही ऐसा प्रहार क्यों? क्यों नन की ड्रेस में मॉडल आदर्श होती है? क्यों बुर्के को स्टिरियोटाइप का हिस्सा नहीं माना जाता? क्यों केवल रूढ़िवाद की परिभाषा साड़ी और घूँघट तक सीमित हो जाती है?
वर्तमान समय की बात करें तो आज साड़ी ने विदेशों में भी अपना सौन्दर्य बिखेरा है। वह महिलाएँ जिन्हें वैश्विक स्तर पर भारत का प्रतिनिधित्व करना होता है, वह सभी साड़ी को अपनी प्राथमिकता में रखती हैं। मतलब तो साफ है न कि यह पोशाक केवल हिंदुओं की संस्कृति को ही नहीं बल्कि भारत की सभ्यता को भी दर्शाती है। फिर नारीवाद के नाम पर या महिला सशक्तिकरण के नाम पर ऐसा घिनौना प्रयास क्यों? आखिर कैसे एक नन की ड्रेस में लड़की का सशक्तिकरण मुमकिन है और साड़ी जैसे लिबास में नहीं।
How disrespectful!! No one is stopping anyone from flaunting their legs. Why does one have to make a point by showing that you have to snip the nine yards to be able to do it? Still trying to show the world that Saree is forced on us which is so untrue. pic.twitter.com/PaM6HJzd7h
— Sulakshna Sinha (@suesproject) September 24, 2020
भारत ने कई विदेशी संस्कृतियों को अपने भीतर समाहित किया है। यहाँ पाश्चत्य संस्कृति का सृजन भी वर्तमान में अपने चरम पर है। बावजूद इसके ऐसी कोशिशों को यदि एंटी हिंदू प्रोपगेंडा न कहा जाए तो क्या कहा जाएगा। साड़ी को रिग्रेसिव मानना किसी के विचार का हिस्सा जरूर हो सकता हैं, लेकिन उसी इंसान का यह समझना कि अन्य संस्कृतियों से जुड़़े ऐसे लिबास प्रोग्रेसिव हैं और महिला को खुशी देते हैं, केवल प्रोपगेंडा युक्त स्यूडो फेमिनिज्म का उदहारण हैं और उसे दिक्कत रूढ़िवाद से नहीं हिंदू धर्म से है।
सोचने वाली बात है क्या अगर सिर्फ़ पैरों को दिखाकर स्टिरियोटाइप्स तोड़ना है तो हमारे पास विकल्प के तौर पर शॉर्ट्स और स्कर्ट्स बाजार में उपलब्ध नहीं है क्या? हम उन्हें पहनकर क्यों नहीं सशक्त हो जाते। इसके लिए हमें क्यों जरूरत पड़ती है भारत की हजारों साल पुरानी सभ्यता से खिलवाड़ करने की?
पिछले दिनों याद करिए सोशल मीडिया पर कुछ वीडियोज वायरल हुईं थी। इनमें एक दुल्हन ब्लाउज के नीचे शॉर्ट्स पहन कर शादी से पहले डांस करती नजर आई थी। लेकिन, जैसे ही वह अपने शादी के मंडप पर पहुँची, तो वहाँ उसकी पोशाक वही थी, जिसमें आम दुल्हनें होती हैं। इसका अर्थ साफ है कि मॉर्डन से मॉर्डन लड़कियाँ भी भारतीय लिबास के मायने जानती हैं। उस दुल्हन ने भी वीडियो जारी करके कई स्टिरियोटाइप्स तोड़े थे मगर उसने अपने लहँगे को शॉर्ट्स बना कर शादी नहीं की। लड़की जानती थी कि भारतीय लिबास की खूबसूरती के अर्थ क्या है।
ध्यान रखिए लोकतांत्रिक भारत में किसी भी महिला को पुरुषों के बराबर स्वतंत्रता है। यहाँ उनका सशक्तिकरण केवल उस पितृसत्ता से लड़कर होगा जो उन्हें चार दीवारी से बाहर न निकलने की वस्तु मानता है। ऐसे छद्म नारीवाद से नहीं। वेशभूषा से निजात पाना अगर पितृसत्ता को हराना है तो इस तरह का प्रयोग बुर्के या हिजाब पर भी होना जरूरी है। लेकिन, शायद ऐसा कभी होगा नहीं, क्योंकि ऐसी तथाकथित प्रोग्रेसिव महिलाएँ जानती हैं कि यदि अपनी ऐसी रचनात्मकता किसी मजहब विशेष के तौर-तरीकों के साथ दिखा दी गई तो हश्र क्या होगा। इन्हें मालूम है कि कहाँ चोट करना सबसे सेफ हैं और किससे इन्हें अन्य समुदाय में ख्याति मिलेगी।