सूर्योपासना का महापर्व चैती छठ मंगलवार (अप्रैल 9, 2019) से नहाय-खाय के साथ शुरू हो गया। यह पर्व साल में दो बार मनाया जाता है। हिंदी पंचांग के अनुसार यह पर्व चैत्र माह और कार्तिक माह में मनाया जाता है। चैत्र शुक्ल पक्ष षष्ठी पर मनाए जाने की वजह से इस छठ को चैती छठ कहते हैं और कार्तिक शुक्ल पक्ष षष्ठी पर मनाए जाने वाले छठ पर्व को कार्तिक छठ कहा जाता है। यह त्योहार विशेष रूप से बिहार, झारखंड, पूर्वांचल आदि क्षेत्रों में विशेष धूमधाम के साथ मनाया जाता है। इसे बिहार, झारखंड के मुख्य पर्व के रूप में भी जाना जाता है।
छठ पूजा और व्रत पारिवारिक सुख-समृद्धि एवं मनोवांछित फल की प्राप्ति के लिए किया जाता है। स्त्री और पुरुष समान रूप से इसे कर सकते हैं। बता दें कि छठ पूजा का उत्सव चार दिनों तक चलता है। पहले दिन की शुरुआत नहाय-खाय के साथ चतुर्थी के दिन से होती है। नहाय-खाय के दिन छठ व्रती कच्चा चावल यानी अरवा चावल को पकाकर कद्दू (लौकी या घिया) की सब्जी और दाल के साथ खाते हैं। यह खाना नहाने के बाद खाया जाता है। व्रती इसी प्रसाद रूपी खाने को फिर लगभग 12 घंटे बाद रात में खाते हैं।
इस दिन इस खाने का विशेष महत्व होता है। परिवार के सभी सदस्य व्रत धारण करने वाले व्यक्ति के प्रसाद ग्रहण करने के बाद ही भोजन को प्रसाद के रूप में खाते हैं। नहाय-खाय के दिन से ही सूर्य देव के लिए प्रसाद बनाने के लिए गेहूँ, चावल आदि को धोकर धूप में सुखाया जाता है और फिर इसे हाथ से पीसकर प्रसाद बनाया जाता है।
दूसरे दिन पंचमी को खरना होता है। जिसे पूजा का दूसरा और कठिन चरण माना जाता है। इस दिन व्रती निर्जला उपवास रखते हैं। मतलब पिछले दिन की रात से लेकर खरना के रात तक व्रती को लगभग 24 घंटे निर्जला रहना होता है। पूरे दिन बिना जलग्रहण किए उपवास रखने के बाद सूर्यास्त होने पर व्रती पूजा करते हैं और उसके बाद एक ही बार दूध और गुड़ से बनी खीर खाते हैं। यह खीर मिट्टी के चूल्हे पर आम के पेड़ की लकड़ी जलाकर तैयार की जाती है। इसके बाद से व्रती का करीब 36 घंटे का निर्जला व्रत शुरू हो जाता है।
खरना के बाद तीसरे दिन षष्ठी को व्रती डूबते सूरज को अर्घ्य देते हैं। दिन भर घर में चहल-पहल का माहौल रहता है। इसी दिन व्रती ठेकुआ, खजूर, पूरी आदि बनाते हैं। फिर सभी व्रती सूप (डगरा) में नाना प्रकार के फल, ठेकुआ, खजूर, चावल के आटे के लड्डू और कई तरह की मिठाईयों के साथ तालाब या नदी पर जाकर पानी में खड़े होकर डूबते सूर्य को अर्घ्य देकर आराधना करते हैं।
अंत में चौथे दिन यानि सप्तमी को सुबह सूर्योदय के समय भी सूर्यास्त वाली उपासना की प्रक्रिया को दोहराया जाता है। चौथे और अंतिम दिन छठ व्रती को सूर्य उगने के पहले ही फिर से उसी तालाब या नदी पर जाना होता है, जहाँ वे तीसरे दिन गए थे। इस दिन उगते हुए सूर्य को अर्घ्य देकर व्रती भगवान सूर्य से सुख-समृद्धि की प्रार्थना करते हैं और फिर परिवार के अन्य सदस्य भी सूर्यदेव को अर्घ्य देते हैं। इसके बाद विधिवत पूजा कर प्रसाद बाँट कर छठ पूजा संपन्न की जाती है। मतलब जो व्रती पंचमी की रात को दूध-गुड़ की खीर प्रसाद रूप में खाए थे और पानी पिए थे, वो फिर सप्तमी के दिन सुबह ही मुँह में पानी या प्रसाद जैसी कोई चीज ले सकते हैं – लगभग 36 घंटे नर्जला।
छठ पर्व में साफ-सफाई और पवित्रता का खासा ख्याल रखा जाता है। पूजा के चारों दिन उपवास के साथ नियम और संयम का पालन करना होता है। इस पूजा में कोरे और बिना सिले वस्त्र पहनने की परंपरा है।
चैती छठ में खासा धूम-धाम देखने को नहीं मिलता है। जबकि कार्तिक छठ में ज्यादा चहल-पहल होती है। ऐसा इसलिए क्योंकि कम ही व्रती चैती छठ करते हैं। गरमी के कारण कार्तिक छठ से ज्यादा मुश्किल होता है चैती छठ करना। 12 घंटे के बाद 24 घंटे और उसके बाद 36 घंटे का निर्जला व्रत रखना गरमी के समय आसान नहीं होता। इस वजह से कार्तिक छठ की अपेक्षा चैती छठ करना थोड़ा सा मुश्किल हो जाता है।