भारत वह देश है जहाँ मीरा के गुरु संत रविदास हो सकते हैं। ये भी भारत ही है जहाँ बनारस जैसे पारम्परिक शहर में कबीर अपनी उलटबासियों में हिन्दू-मुस्लिम दोनों की कुरीतियों पर लताड़ते हैं।
आज कुम्भ अपने आप में समरसता की मिसाल है। और इसी समरसता की बानगी पेश करते हुए, संत कन्हैया प्रभुनंद गिरि को अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद ने पहले दलित महामंडलेश्वर की उपाधि दी है। कन्हैया प्रभु ने कुम्भ के पहले दिन मकर संक्रांति के शाही स्नान के दौरान संगम में डुबकी लगाई।
इस दौरान उन्होंने ऐसे दलित, एसटी और ओबीसी व्यक्तियों से घर वापसी की इच्छा जताई जिन्होंने शोषण के डर से सनातन धर्म छोड़कर बौद्ध, ईसाई या इस्लाम धर्म अपना लिया है, “वे वापस सनातन धर्म से जुड़ जाएँ। मैं उन्हें दिखाना चाहता हूँ कि कैसे जूना अखाड़े ने, न सिर्फ़ मुझे शामिल किया बल्कि महामंडलेश्वर की उपाधि भी दी है। कन्हैया प्रभुनंद को पिछले साल परम्परा के अनुसार जूना अखाड़े में शामिल किया गया था।”
बता दें कि, जूना अखाड़े में बड़ी संख्या में दलित जाति के पुरुष और महिला संत पहले से हैं। इनमें से आठ को महामंडलेश्वर की उपाधि भी दी गई है। जिनमें पाँच पुरुष और तीन महिला महामंडलेश्वर हैं।
महंत हरि गिरि के अनुसार, देश के अलग-अलग हिस्सों में जूना अखाड़े के लाखों संत हैं। हिमाचल प्रदेश, बिहार, आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़, कनार्टक, महाराष्ट्र और नेपाल में सभी वर्गों को मिलाकर लगभग सवा लाख महिला संत हैं। इनमें से दलित और महादलित महिलाओं की संख्या पाँच सौ के आसपास है। कुम्भ में दलित महिला संतों की संख्या और बढ़ी है।
महामंडलेश्वर कन्हैया प्रभु ने एक दुखद घटना को याद करते हुए बताया, “साल 1999 में मैं उस वक्त चंडीगढ़ में था जहाँ सिख गुरुओं का एक समागम हो रहा था। जब उन्हें मेरी जाति मालूम चली तो उन्होंने मुझे प्रवेश द्वार पर ही खड़े रहने को कहा। मैं गुरुओं के पैर छूकर आशीर्वाद लेना चाहता था लेकिन उन्होंने कहा कि एक शूद्र को ऐसा करने की अनुमति नहीं है।”
“लेकिन जूना अखाड़े ने आज मुझे जो सम्मान दिया है मैं उससे अभिभूत हूँ। अब मैं ऐसे पद पर हूँ। आज मेरे सम्मान में सभी जातियों के लोग मेरे आगे झुकते हैं। एक तरह से मैं अब एक धार्मिक नेता हूँ और अपने ही समुदाय की इस जातिगत मानसिकता के खिलाफ लड़ता रहूँगा।”
उन्होंने कहा, “मेरे लिए उस पल को बयाँ कर पाना बहुत मुश्किल है जब मुझे शाही स्नान के लिए रथ पर बिठाया जा रहा था। मेरे आसपास सभी श्रद्धालु ढोल की धुन पर नाच रहे थे। मस्त-मगन थे। मेरा समुदाय काफी समय तक ऐसे सम्मान से दूर रहा है। और आज जूना अखाड़ा ने मुझे जो गौरव दिया है वो इस परंपरा में ही संभव है। उन्होंने बताया कि कभी दसवीं के बाद वह संस्कृत पढ़ना चाहते हैं लेकिन अनुसूचित जाति से होने की वजह से उन्हें इजाज़त नहीं मिली। तब मैं अपने गुरु जगतगुरु पंचनंदी महाराज की शरण में आया। जिन्होंने मुझे शिक्षा दी और मंदिर का पुजारी बनाया।”