ज्येष्ठ मास की एकादशी को भद्रकाली एकादशी भी कहा जाता है और इस वर्ष यह आज गुरुवार (26 मई, 2022) को मनाया जा रहा है। एक मान्यता के अनुसार, भद्रकाली देवी पार्वती की ही सबसे शक्तिशाली रूपों में से एक है। भद्रकाली की पूजा खासतौर से दक्षिण भारत में होती है। पौराणिक मान्यता के अनुसार, माँ काली के दक्षिणा काली, महाकाली, श्मशान काली, मातृ काली, श्यामा काली, भद्रकाली, अष्टकाली आदि अनेक रूप भी हैं। सभी की पूजा और उपासना पद्धतियाँ भी अलग हैं।
पौराणिक कथाओं के अनुसार, यह माना जाता है कि आज ही की तिथि पर माता भद्रकाली देवी सती की मृत्यु के पश्चात् भगवान शिव की जटाओं से प्रकट हुई थीं। वहीं महाभारत के युद्ध से पहले अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्ण के कहने पर माँ भद्रकाली की पूजा की थी, जिसके बाद उन्हें युद्ध में विजय प्राप्त हुई। महाभारत में इसका वर्णन भी मिलता है।
आइए आज भद्रकाली जयंती पर आपको दक्षिण भारत के वारंगल में स्थित माता भद्रकाली के एक ऐसे मंदिर ले चलते हैं जो न सिर्फ ऐतिहासिक है बल्कि उससे एक दिलचस्प घटना भी जुड़ी है। जिसने भी कोहिनूर हीरे के बारे में थोड़ा-बहुत सुना है, वह इसके बारे में जानकर चकित होगा।
भद्रकाली मंदिर आंध्र प्रदेश के हनमकोंडा और वारंगल शहरों के बीच एक पहाड़ी के ऊपर स्थित है। जहाँ मंदिर की अधिष्ठात्री देवी काली अपने उग्र रूप में हैं- बड़ी आँखें, गंभीर चेहरा, और आठ भुजाएँ जो विभिन्न हथियारों को धारण करती हैं। प्रतिमा पत्थर की बनी है और वह अपने वाहन सिंह पर विराजमान हैं।
मंदिर का ऐतिहासिक महत्व
मंदिर के इतिहास की बात करें तो 625 ईस्वी में चालुक्य वंश के राजा पुलकेशिन द्वितीय द्वारा आंध्र देशम के वेंगी क्षेत्र पर अपनी जीत के उपलक्ष्य में बनाया गया था। काकतीय राजाओं ने बाद में मंदिर को अपनाया और देवी भद्रकाली को अपना ‘कुल देवता’ माना। कहते हैं कि काकतीय राजाओं ने ही दुर्लभ कोहिनूर हीरे को देवी की बाईं आँख में जड़वा दिया। आकर्षक कोहिनूर हीरा का कोल्लूर खानों (गोलकोंडा खानों) से खनन किया गया था।
बाद में दिल्ली के मुस्लिम शासकों के हाथों काकतीय वंश के पतन के कारण मंदिर ने अपनी प्रमुखता खो दी। वहीं काकतीय राजाओं ने आक्रमण न करने के बदले में कोहिनूर हीरे की पेशकश करके अलाउद्दीन खिलजी के साथ एक समझौता किया। उसने भी अपने दास और निजी विश्वासपात्र मलिक कुफूर को व्यक्तिगत रूप से कोहिनूर लेने के लिए भेजा।
कहते हैं कि 1310 ईस्वी में, अलाउद्दीन खिलजी के अधीन दिल्ली सल्तनत ने काकतीयों के साम्राज्य को अपने शासन में मिला लिया और भद्रकाली मंदिर को नष्ट कर दिया। लेकिन बेशकीमती कोहिनूर को अपनी लूट के माल के रूप में दिल्ली ले गया। फिर आगे, कोहिनूर हीरा एक हाथ से दूसरे हाथ में होते हुए बाबर, हुमायूँ, शेर शाह सूरी से लेकर शाहजहाँ, औरंगजेब और पटियाला के महाराजा रणजीत सिंह तक भी पहुँचा।
कहते हैं कि जब महाराजा रणजीत सिंह अपनी मृत्यु के करीब थे, तब उन्होंने इच्छा जताई कि जगन्नाथ मंदिर में प्रतिष्ठित कोहिनूर हीरे का स्वामित्व देवता को दे दिया जाए। हालाँकि, ब्रिटिश अधिकारियों ने राजा की इच्छा को नज़रअंदाज़ कर दिया, और इसके बजाय, इसे अपनी रानी को उपहार के रूप में देने के लिए इंग्लैंड ले गए।
लेकिन, 1306 से कोहिनूर हीरे द्वारा तय की गई लम्बी ऐतिहासिक यात्रा को देखते हुए, यह भी कहा जाता है कि कोहिनूर जिस भी राजा के पास यह था, उसकी अकाल मृत्यु हो गई। अब ऐसा क्यों हुआ यह कोई नहीं जानता लेकिन यह लोकश्रुति है कि पत्थर धारण करने वाले पुरुषों के लिए दुर्भाग्य का कारण है। केवल भगवान, देवी या एक महिला ही इसे बिना किसी नुकसान के पहन सकती है।
ऐसे में वारंगल मंदिर में स्थापित देवी भद्रकाली के बाद, केवल ब्रिटिश महारानी एलिजाबेथ द्वितीय ही बिना किसी गंभीर नुकसान के इसे धारण कर सकीं। हालाँकि, यहाँ भी यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि हीरा अंग्रेजों के कब्जे में जाने के कुछ साल बाद ही ब्रिटिश साम्राज्य को लगातार अपने पतन का सामना करना पड़ा। इसलिए बाद में कहा जाता है कि किसी भी अप्रिय घटना से बचने के लिए और हीरे के अभिशाप को अच्छी तरह से जानते हुए, महारानी कोहिनूर हीरे से जड़ा मुकुट पहनने से आज भी बचती हैं।
कई बार लूटा गया मंदिर
जहाँ तक भद्रकाली मंदिर का सवाल है, पिछली शताब्दियों में बहुत लूटपाट और क्षति का सामना करने के बाद, मंदिर को 1950 के दशक में एक उत्साही भक्त और कुछ परोपकारी संपन्न व्यापारियों द्वारा बहाल किया गया था। बताते हैं कि 1950 में, गुजराती बिजनेस मैन श्री मगनलाल के साथ देवी उपासक श्री गणेश राव शास्त्री द्वारा भद्रकाली मंदिर का जीर्णोद्धार कराया गया था।
वारंगल के भद्रकाली मंदिर को दक्षिण भारत के स्वर्ण मंदिर के रूप में भी जाना जाता है। वहीं मंदिर की चालुक्य शैली की वास्तुकला भी प्रशंसनीय है। मंदिर सूर्योदय और सूर्यास्त के समय एक सुनहरा रंग धारण करता है, इसलिए, इसे ‘दक्षिण भारत का स्वर्ण मंदिर’ भी कहा जाता है।
मंदिर के बगल में भद्रकाली झील है जिसकी तीर्थयात्रियों द्वारा पूजा की जाती है, लेकिन इसकी पवित्रता बनाए रखने के लिए किसी को भी इसके पानी में डुबकी लगाने या कदम रखने की अनुमति नहीं है।
कैसे पहुँचे मंदिर
वारंगल के भद्रकाली मंदिर तक टीएसआरटीसी या वारंगल रेलवे स्टेशन या काजीपेट रेलवे स्टेशन से ऑटो-रिक्शा सेवाओं के माध्यम से पहुँचा जा सकता है। वहीं वारंगल हवाई अड्डे के लिए भारत के विभिन्न शहरों से उड़ानें उपलब्ध हैं। वारंगल को देश के सुदूर स्थानों से जोड़ने वाली रेल सेवाएँ भी हैं।