Saturday, June 28, 2025
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5000 भील योद्धा, गुरिल्ला युद्ध… और 80000 मुगल सैनिकों का सफाया: महाराणा प्रताप ने पूंजा भील को ऐसे ही नहीं दी थी राणा की उपाधि

राणा पूंजा ने 5000 भील योद्धाओं के साथ गुरिल्ला युद्ध की अद्वितीय रणनीति अपनाई, जिससे मुगल सेना के आपूर्ति मार्गों और संचार व्यवस्था को बाधित किया। उनकी यह युद्धकला, विशेषकर पहाड़ी क्षेत्रों और जंगलों में, मुगलों को अचंभित करने वाली थी।

16वीं शताब्दी के एक अद्वितीय योद्धा राणा पूंजा भील को हल्दीघाटी के युद्ध में महाराणा प्रताप के समर्थन के लिए याद किया जाता है। उनकी वीरता और रणनीति ने न केवल मुगल सेना को झकझोरा, बल्कि उन्हें भारतीय इतिहास में एक अद्वितीय स्थान दिलाया। जनजातीय वीरता और संघर्ष की इस कहानी में राणा पूंजा भील का योगदान अनमोल है। ये अलग बात है कि उनके बलिदान की चर्चा अधिकतर पाठ्यक्रमों से गायब हो चुकी है और राजस्थान के बाहर बहुत कम ही लोगों को उनके बारे में पता है, लेकिन इतिहास की जड़ों में जाकर देखेंगे, तो राणा पूंजा नाम के योद्धा की धमक चहुँओर सुनाई देगी, विशेषकर मुगलों के खिलाफ संघर्ष में। आज हल्दीघाटी के युद्ध के नतीजे महाराणा प्रताप की तरफ झुकते दिखे हैं, तो उसके पीछे राणा पूंजा जैसे वीरों का अतुलनीय योगदान है।

राणा पूंजा का जन्म 1540 में वर्तमान राजस्थान के कुंभलगढ़ क्षेत्र में हुआ था। उनके पिता का नाम दूदा सोलंकी और माता का नाम केरी बाई था। भील जनजाति की बहुलता वाले इस क्षेत्र पर पहले यदुवंशी राजाओं का अधिकार था, लेकिन गुजरात से आए चालुक्य वंश से संबंधित सोलंकियों ने पानरवा को अपनी कर्मभूमि बनाया। राणा पूंजा का जीवन बचपन से ही साहस और संकल्प का प्रतीक रहा। 15 वर्ष की आयु में ही पिता के निधन के बाद उन्हें पानरवा का मुखिया बना दिया गया। बचपन से ही वे धनुर्विद्या और गुरिल्ला युद्ध में निपुण थे, जिसके कारण उनकी प्रसिद्धि दूर-दूर तक फैल गई।

हल्दीघाटी युद्ध में योगदान

1576 ईस्वी का हल्दीघाटी युद्ध, महाराणा प्रताप और मुगल आक्रमणकारी अकबर के बीच लड़ा गया एक ऐतिहासिक युद्ध था। इस युद्ध में राणा पूंजा भील ने 5000 भील योद्धाओं के साथ महाराणा प्रताप का समर्थन किया। गुरिल्ला युद्ध की अपनी अद्वितीय रणनीति के कारण उन्होंने मुगल सेना को भारी क्षति पहुँचाई। पूंजा की सेना ने पहाड़ी मार्गों और घने जंगलों में छापामार रणनीति का प्रयोग कर मुगलों की आपूर्ति और सैन्य संचार को बाधित किया।

राणा पूंजा की रणनीति ने मुगलों को घेरने में मदद की, जिससे महाराणा प्रताप की सेना को नई ऊर्जा और संबल मिला। पूंजा की वीरता और सैन्य कौशल ने युद्ध के अनिर्णय में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। हल्दीघाटी के युद्ध के बाद भी राणा पूंजा ने मुगलों के खिलाफ गुरिल्ला युद्ध जारी रखा। मुगलों को कभी इस इलाके में स्थाई तौर पर पैर जमाने का मौका नहीं मिला। ये वो समय था, जब मुट्ठी भर योद्धा हजारों मुगल सैनिकों को सालों-साल तक छकाते रहे और जहाँ-तहाँ हुई मुठभेड़ों में मार गिराते रहे। महाराणा प्रताप और राणा पूंजा की जुगलबंदी ने मुगलों को लगातार चोट देने का काम किया।

महाराणा प्रताप और राणा पूंजा के पास करीब 9000 सैनिक थे, जिसमें से 5000 से कुछ अधिक सैनिक सिर्फ भील थे। उनके पास पारंपरिक तीर-कमान ही हथियार थे, जबकि करीब 90 हजार सैनिकों की मुगल फौज के पास गोला-बारूद जैसे विध्वंसक हथियार थे, लेकिन तीर-कमान, तलवार और भालों के वार से मुगलों की सेना पर ऐसा वार हुआ कि महज 10-12 हजार सैनिक ही बचे, वो भी सिर्फ इसलिए बच पाए, क्योंकि उन्होंने घुटने टेक दिए थे। खास बात ये है कि जब महाराणा प्रताप घायल हो गए थे, तब राणा पूंजा महाराणा प्रताप की वेशभूषा में मुगलों का सामना किया और अपनी युद्धकला से उन्हें पीछे लौटने को विवश कर दिया।

दरअसल, हल्दीघाटी के युद्ध के बाद भीलों ने राजपूतों के साथ मिलकर गोगुंडा की घेराबंदी करके वहाँ तैनात मुगल सेना को घेरने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। एक तरफ राजपूतों और भीलों की टुकड़ी गुरिल्ला नीति से हमले करती और मुगलों को चोट पहुँचाती, तो दूसरी तरफ गोगुंडा की घेराबंदी मुगलों तक कोई सहायता भी नहीं पहुँचने देती। ऐसे में मुगलों की सेना पूरी तरह से बेबस होती चली गई।

किवदंतियों में कहा जाता है कि मुगल सैनिक जब अकबर से मिले, उन्होंने कहा – “बादशाह, वहाँ तो बरसात हो रही थी।” प्रचंड गर्मी में बरसात की बात सुनकर अकबर हैरत में पड़ गया, लेकिन उसे समझ आ गया कि सैनिक जिस बरसात की बात कर रहे हैं, वो महाराणा प्रताप और राणा पूंजा के वीरों की कमानों से निकले तीर थे।

उनका संघर्ष एक जनजातीय नेता के रूप में भीलों की स्वायत्तता और सम्मान के लिए था। भील योद्धाओं ने कई बार मुगल काफिलों पर हमले किए और उन्हें सफलतापूर्वक पराजित किया। राणा पूंजा की इस जुझारूपन ने मेवाड़ की सीमाओं की रक्षा सुनिश्चित की और उनकी निडरता का प्रतीक बन गया।

इतिहासकारों का मानना है कि राणा पूंजा को ‘राणा’ की उपाधि महाराणा प्रताप ने दी थी, क्योंकि उन्होंने उन्हें अपना भाई मानते हुए मेवाड़ की रक्षा में अद्वितीय योगदान दिया। मेवाड़ के राज्य प्रतीक में भी राणा पूंजा का उल्लेख है, जिससे यह स्पष्ट होता है कि उनकी भूमिका को अत्यधिक सम्मानित किया गया था।

खास बात ये है कि राणा पूंजा के बाद उनके वंशजों ने भी मुगलों को पीढ़ियों तक चोट देने का काम किया। राणा पुंजा के बेटे राणा राम ने महाराणा अमर सिंह के शासनकाल के दौरान मुगल सेना पर हमले में भाग लिया, जहाँ उन्होंने मुगल सेना को लूट लिया। (श्यामलादास-भाग 2, 1987, पृष्ठ 223)। राणा राम के वंशज राणा चंद्रभान ने औरंगजेब के मेवाड़ पर आक्रमण के दौरान महाराणा राज सिंह को अपनी सेवा प्रदान की।

राणा पूंजा की वीरता को आज भी राजस्थान और भील समुदाय में गर्व के साथ याद किया जाता है। 1986 में, राजस्थान सरकार ने उनके सम्मान में ‘राणा पूंजा पुरस्कार’ की स्थापना की, जो राज्य के विशिष्ट योगदानकर्ताओं को दिया जाता है।

राणा पूँजा की पहचान को लेकर विवाद

राणा पूंजा की पहचान पर समय-समय पर विवाद होते रहे हैं। कुछ इतिहासकार उन्हें राजपूत मानते हैं, जबकि अधिकांश उन्हें भील समुदाय का हिस्सा बताते हैं। उनके वंशजों का यह दावा है कि वे भील नहीं थे, बल्कि वो राजपूत थे, जिन्हें भीलों का साथ प्राप्त था। उन्होंने भीलों की सैन्य टुकड़ी तैयार कर महाराणा प्रताप की सेनाओं का नेतृत्व किया। उनके भील होने के प्रमाण के रूप में उनके परिवार का जुड़ाव भील जनजाति से बताया जाता है।

महाराणा प्रताप के साथ हल्दीघाटी युद्ध में अहम भूमिका निभाने वाले राणा पूंजा को भील संबोधित करने पर आपत्ति जताते हुए मनोहर सिंह सोलंकी ने संभागीय आयुक्त राजेंद्र भट्ट और डूंगरपुर कलेक्टर को लिखित में शिकायत दर्ज करवाई थी। उन्होंने बताया था कि वे खुद राणा पूंजा की सोलहवीं पीढ़ी के वंशज हैं। उनका दावा है कि सोलंकी राजवंश के राणा पूंजा भीलों के सरदार थे, लेकिन इतिहास के तथ्य से परे उन्हें बार बार भील जाति से जोड़ा जाता है। लिखित आपत्ति में सोलंकी ने यह कहा सोलंकी ने दी लिखित आपत्ति में बताया कि ऐसी घटनाएं दो जातियों के बीच परस्पर सामाजिक सौहार्द्र को बिगाड़ने की कोशिश है।

उन्होंने दस्तावेजों के साथ दावा किया कि महाराणा उदय सिंह का विवाह सम्बंध पानरवा के राणा हरपाल की बहन रतनबाई सोलंकिणी से रहा। महाराणा भूपाल सिंह के समय सर सुखदेप ने उल्लेखित मेवाड़ के गजट 1935 में भी पानरवा के शासकों को सोलंकी राजपूत व पदवी राणा बताया है।

1989 में, तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी द्वारा उनकी मूर्ति का अनावरण करने पर भी विवाद उत्पन्न हुआ। मेवाड़ के महाराणा महेंद्र सिंह सहित कई राजपूत वंशजों ने इसका विरोध किया और राणा पूंजा की भील पहचान को चुनौती दी।

राणा पूंजा का योगदान: एक आदर्श

राणा पूंजा का जीवन आज के समाज के लिए एक प्रेरणा है। उनका संघर्ष यह बताता है कि सच्ची वीरता और देशभक्ति जाति या पृष्ठभूमि से नहीं मापी जा सकती। उन्होंने साबित किया कि चाहे कोई भी परिस्थिति हो, देश और समाज के प्रति निष्ठा सर्वोपरि होती है। उनकी कहानी न केवल राजस्थान बल्कि पूरे भारत के लिए गौरव का विषय है। चाहे हल्दीघाटी का युद्ध हो या उसके बाद का संघर्ष, राणा पूंजा का समर्पण और साहस अद्वितीय था।

राणा पूंजा भील का जीवन बलिदान, निष्ठा और देशभक्ति का प्रतीक है। उनकी वीरता ने उन्हें न केवल मेवाड़ बल्कि पूरे भारत का महानायक बना दिया। उनके योगदान को हमेशा याद रखा जाएगा और आने वाली पीढ़ियाँ उनसे प्रेरणा लेती रहेंगी।

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श्रवण शुक्ल
श्रवण शुक्ल
I am Shravan Kumar Shukla, known as ePatrakaar, a multimedia journalist deeply passionate about digital media. Since 2010, I’ve been actively engaged in journalism, working across diverse platforms including agencies, news channels, and print publications. My understanding of social media strengthens my ability to thrive in the digital space. Above all, ground reporting is closest to my heart and remains my preferred way of working. explore ground reporting digital journalism trends more personal tone.

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