ऑपइंडिया की मंदिर श्रृंखला में आज हम आपको एक ऐसे मंदिर के बारे में बताएँगे, जिसके विषय में हाल ही में मद्रास हाई कोर्ट का निर्णय आया। हम बात कर रहे हैं तमिलनाडु के डिंडीगुल जिले के पलनि में स्थित अरुल्मिगु दंडायुधपाणी मंदिर की, जहाँ मद्रास हाई कोर्ट ने अपना निर्णय सुनाते हुए मंदिर में स्थापित देवता को नाबालिग या अबोध बालक माना है और मंदिर से जुड़ी पूरी संपत्ति को मंदिर के हवाले करने का आदेश दिया है। अरुल्मिगु दंडायुधपाणी मंदिर भगवान शिव के पुत्र भगवान मुरुगन अथवा कार्तिकेय को समर्पित है तथा उनका सबसे प्रसिद्ध एवं सबसे विशाल मंदिर माना जाता है।
मंदिर का इतिहास एवं निर्माण
डिंडीगुल के पलनि के शिवगिरि पर्वत स्थित मुरुगन स्वामी के इस मंदिर का इतिहास बहुत पुराना है। हालाँकि वर्तमान मंदिर का निर्माण चेर राजाओं द्वारा कराया गया है लेकिन इसका वर्णन स्थल पुराण और तमिल साहित्य में मिलता है।
जब महर्षि नारद ने भगवान शिव और माता पार्वती को ‘ज्ञानफलम’ अर्थात ज्ञान का फल उपहार स्वरूप दिया तो भगवान शिव ने उसे अपने दोनों पुत्रों भगवान गणेश और कार्तिकेय स्वामी में से किसी एक को देने का निर्णय लिया। इसके लिए दोनों के सामने यह शर्त रखी गई कि जो भी सम्पूर्ण संसार की परिक्रमा शीघ्रता से कर लेगा, उसे यह फल प्राप्त होगा। इसके बाद कार्तिकेय स्वामी अपने वाहन मोर पर सवार होकर निकल गए पूरे संसार की परिक्रमा करने लेकिन भगवान गणेश ने अपने माता-पिता की परिक्रमा कर ली और कहा कि उनके लिए उनके माता-पिता ही संसार के समान हैं। भगवान शिव ने प्रसन्न होकर वह ज्ञानफल भगवान गणेश को दे दिया। जब कार्तिकेय स्वामी परिक्रमा करके लौटे तो नाराज हो गए कि उनकी परिक्रमा व्यर्थ हो गई। इसके बाद कार्तिकेय स्वामी ने कैलाश पर्वत छोड़ दिया और पलनि के शिवगिरि पर्वत पर निवास करने लगे। यहाँ ब्रह्मचारी मुरुगन स्वामी बाल रूप में विराजमान हैं।
मंदिर का निर्माण 5वीं-6वीं शताब्दी के दौरान चेर वंश के शासक चेरामन पेरुमल ने कराया। कहा जाता है कि जब पेरुमल ने पलनि की यात्रा की तो उनके सपनों में कार्तिकेय या मुरुगन स्वामी आए और पलनि के शिवगिरि पर्वत पर अपनी मूर्ति के स्थित होने की बात राजा को बताई। राजा पेरुमल को वाकई उस स्थान पर कार्तिकेय स्वामी की मूर्ति प्राप्त हुई, जिसके बाद पेरुमल ने उस स्थान पर मंदिर का निर्माण कराया। इसके बाद चोल और पांड्य वंश के शासकों ने 8वीं से 13वीं शताब्दी के दौरान मंदिर के विशाल मंडप और गोपुरम बनवाए। मंदिर को सुंदर कलाकृतियों से सजाने का काम नायक शासकों ने किया।
माना जाता है कि मुरुगन स्वामी की मूर्ति 9 बेहद जहरीले पदार्थों को मिलाकर बनाई गई है। हालाँकि आयुर्वेद में इन जहरीले पदार्थों को एक निश्चित अनुपात में मिलाकर औषधि निर्माण की प्रक्रिया का भी वर्णन है। पलनि के अरुल्मिगु दंडायुधपाणी मंदिर के गोपुरम को सोने से मढ़ा गया है। मंदिर का परिसर काफी विशाल है और यहाँ तक पहुँचने के लिए 689 सीढ़ियाँ चढ़नी पड़ती हैं। हालाँकि मंदिर के गर्भगृह तक जाने की अनुमति किसी को भी नहीं है लेकिन फिर भी यहाँ श्रद्धालुओं की संख्या लगातार बनी रहती है। मंदिर परिसर में ही भगवान शिव और माता पार्वती, भगवान गणेश और ऋषि बोगार की समाधि है। ऋषि बोगार आयुर्वेद के विद्वान माने जाने जाते हैं और उन्होंने ही मुरुगन स्वामी की मूर्ति का निर्माण किया है।
पलनि के इस मुरुगन स्वामी मंदिर की विशेषता यहाँ का प्रसाद है, जिसे ‘पंचतीर्थम प्रसादम’ कहा जाता है। पलनि के इस विशेष प्रसाद को भौगोलिक संकेत या GI टैग भी प्रदान किया गया है। पलनि के इस पंचतीर्थम का निर्माण केला, घी, इलायची, गुड़ और शहद से किया जाता है। तिरुपति के लड्डू की तरह पलनि का यह पंचतीर्थम प्रसाद भी अत्यंत प्रसिद्ध है।
कैसे पहुँचें?
पलनि का सबसे नजदीकी हवाईअड्डा कोयंबटूर अंतरराष्ट्रीय हवाईअड्डा है, जो यहाँ से लगभग 100 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। इसके अलावा मदुरै का हवाईअड्डा भी पलनि से लगभग 125 किमी की दूरी पर स्थित है। पलनि खुद भी एक रेलवे स्टेशन है, जो कोयंबटूर-रामेश्वरम रेललाइन पर स्थित है। पलनि तक पहुँचने के लिए मदुरै, कोयंबटूर और पलक्कड से ट्रेनें चलती हैं, साथ ही चेन्नई से पलनि के लिए रेलमार्ग की बेहतर सुविधा उपलब्ध है। इसके अलावा सड़क मार्ग से भी पलनि पहुँचना आसान है क्योंकि तमिलनाडु राज्य परिवहन की बसें सीधे ही कई बड़े शहरों से पलनि के लिए चलाई गई हैं। इसके अलावा केरल राज्य परिवहन की बसें कोझिकोड, कासरगोड, कोट्टयम, पलक्कड और एर्नाकुलम जैसे शहरों को पलनि से जोड़ती हैं।