मनोरंजन के नाम पर हिंदू देवी-देवताओं का मजाक उड़ाना फिल्ममेकर्स का शौक रहा है। कहानी में कैसे भगवान शिव, दुर्गा और काली की एंट्री करानी है, हिंदुओं की आस्था से कैसे खिलवाड़ करना है, इसे वह बखूबी जानते हैं। लीना मणिमेकलई (Leena Manimekalai) की डॉक्यूमेंट्री ‘काली’ इसका ताजा नमूना है।
तमिलनाडु के मदुरै में जन्मी लीना कनाडा की टोरंटो बेस्ड फिल्ममेकर हैं। ट्विटर (Twitter) ने लीना के उस पोस्ट पर रोक लगा दी है, जिसे उन्होंने 2 जुलाई 2022 को शेयर किया था। इस पोस्टर में एक्ट्रेस को ‘काली’ के रूप में सिगरेट पीते हुए दिखाया गया है, जिसने एक हाथ में त्रिशूल और दूसरे हाथ में LGBTQ का झंडा थाम रखा है। हालाँकि, लीना पहली बार विवादों में नहीं हैं। उन्होंने साल 2002 में शॉर्ट डॉक्यूमेंट्री ‘मथम्मा’ से अपने करियर की शुरुआत की थी। काली के अलावा उनकी पिछली कई फिल्में जैसे ‘सेंगडल’, ‘पराई’, ‘व्हाइट वैन स्टोरीज’ भी विवादों का हिस्सा रह चुकी है।
हिंदू देवी-देवताओं को इस तरह चित्रित करने का भी यह पहला मामला नहीं है। डायरेक्टर अनुराग बासु भी अपनी फिल्म ‘लूडो’ में इसका पूरा ख्याल रखा गया था कि कैसे हिंदुओं को नीचा दिखाना है और उनकी भावनाओं को आहत करना है। ढाई घंटे की बेसिरपैर की फिल्म ‘लूडो’ का एक ही मकसद था। सीधे-सीधे हिन्दू धर्म का उपहास। सांकेतिक रूप से पूरी फिल्म में हिन्दू संस्कृति को चोट पहुँचाने की कोशिश की गई थी। इस फिल्म में हिन्दू त्रिदेवों का बेशर्मी से मजाक बनाया गया था और उसको बिलकुल उसी ढंग से ही फिल्माया गया था, जिस तरीके से आमिर खान की ‘पीके’ में दिखाया गया था। स्वांग रचने वाले तीन लोग ब्रह्मा, विष्णु, महेश का भौंडा सा रूप धरे सड़क पर नाच-कूद कर रहे थे, जिन्हें देख कर फिल्म का हीरो आदित्य रॉय कपूर वितृष्णा के भाव से मुँह बना रहा था। एक सीन में तो भगवान शंकर और महाकाली गाड़ी को धक्का भी देते दिखे थे।
अक्षय कुमार की फिल्म ‘लक्ष्मी बम’ (विरोध के बाद नाम बदलकर लक्ष्मी किया), आमिर खान की फिल्म ‘पीके’ समेत अन्य कई फिल्मों में भी भावनाओं को ठेस पहुँचाया गया था। वर्ष 2021 में निर्देशक अली अब्बास की वेब सीरीज ‘तांडव’ में भगवान शिव और राम को लेकर विवादित सीन और डायलॉग्स दिखाए गए थे। एक्टर सैफ अली खान-स्टारर इस सीरीज को इसके कारण काफी विरोध भी झेलना पड़ा था।। बावजूद इसके हिन्दू देवी-देवताओं का फिल्मों में मजाक उड़ाना बंद नहीं हुआ। इससे स्पष्ट है कि यह हिंदुओं की संस्कृति पर हमले की एक सोची-समझी साजिश है। आधुनिकता, सृजनात्मकता की आजादी के नाम पर ऐसी चीजों को परोसा जा रहा है, जिसका कोई औचित्य नहीं है।
यह भी साफ है कि ऐसा जानबूझकर किया जाता है। यदि ऐसा नहीं होता तो कभी किसी भी फिल्ममेकर ने अन्य मजहब के खिलाफ ऐसा लिखा या फिल्माया क्यों नहीं है। उन्हें पता है कि हिंदू देवी-देवताओं का उपहास करना सरल है। विवाद होने पर मुफ्त प्रमोशन और कमाई के चांस भी बढ़ जाते हैं। ज्यादा तूल पकड़ने पर कभी कभार नाम बदलकर या सीन को कट कर रिलीज कर दिया जाता है। लेकिन, इन सबमें उन्हें वह जोखिम नहीं झेलना होता है जो अन्य मजहब पर टिप्प्णी करने के कारण पैदा होता है।
ऐसे में सवाल उठता है कि क्या हिंदू देवी-देवताओं को अपमानित करने के लिए माफी माँगना और टाइटल बदल लेना ही काफी है? आखिर क्यों बार-बार ऐसी फिल्मों को बनाया जाता है, जिसमें हिंदुओं की आस्था का मजाक उड़ाया जाता है। ऐसे में जब तक इस तरह की विवादित फिल्मों का निर्माण करने वालों, कलाकारों पर हमेशा के लिए बैन नहीं लगेगा, तब तक हिंदू संस्कृति का मजाक बनता रहेगा और हिन्दी फिल्मों में देवी-देवताओं को फूहड़ स्वांग रचा कर पेश किया जाता रहेगा।