हर राष्ट्र का अपना एक चरित्र होता है, जो एक दिन में रूप नहीं लेता। उसके पीछे अनेकों वर्षों का इतिहास होता है। अगर हम अपने राष्ट्र भारत की बात करें तो उसका स्थान दुनिया की सबसे प्राचीन सभ्यताओं के अंतर्गत विकसित हुए देशों में आता है। सबसे महत्वपूर्ण यह है कि सिन्धु घाटी-सरस्वती सभ्यता से विकसित हुआ भारत उन चुनिंदा देशों की श्रृंखला में आता है, जो अपने मूल रूप में आज भी जीवंत है।
इस नित्य नूतन, चिर पुरातन सनातन संस्कृति में निरंतरता से अनेकों पद्धतियाँ चली आ रही हैं, जिनमें से एक है योग पद्धति। चाहे सिन्धु घाटी-सरस्वती सभ्यता में मिले पुरातात्विक स्रोत हों या सबसे प्राचीन ग्रन्थ वेद, उपनिषद या श्रीमद्भगवतगीता हों, भगवान बुद्ध और महावीर का जीवन हो या महर्षि पतंजलि का दर्शन, स्वामी विवेकानंद का विश्व दिग्विजय हो या आज 21वीं सदी का भारत, अगर सब में कोई कोई आयाम एकरूप है तो वह है योग।
संपूर्ण मानवता के लिए भारत की दी हुई सौगात है योग। इसका लोहा विश्व भर ने अनेकों बार माना है और आज जब कोरोना महामारी ने मनुष्य जाति को झकझोर कर रख दिया है, तब भी इसकी प्रासंगिकता सबके लिए एक उपहार की तरह ही है। चाहे अवसाद, उदासीनता और मानसिक रोगों से मुक्ति पाना हो या शारीरिक बीमारी से, योग एक रामबाण इलाज के तौर पर उभर कर आया है।
यह जानना भी अत्यंत महत्वपूर्ण है कि योग में निहित आसन और प्राणायाम हमें दैनिक जीवन में रोगों से मुक्त तो रखते ही हैं, लेकिन योग मात्र आसन, प्राणायाम और मुद्राएँ ही नहीं हैं, बल्कि योग जीवन जीने की एक पद्धति है। वह पद्धति जो मनुष्य को अपने हर जीवन के पहलू से जोड़ना सिखाती है। योग दर्शन भारतीय षड् दर्शनों में से एक है, जो मनुष्य जाति को योगमय जीवन जीने की पद्धति से परिचय करवाती है।
लगभग 140 से 150 ईसा पूर्व जन्मे महर्षि पतंजलि ने ‘अष्टाङ्ग योग’ से प्रसिद्ध आठ अंगों वाले योग मार्ग को जन साधारण से परिचित करवाया था। अष्टांग योग में प्रथम पाँच अंग हैं- यम, नियम, आसन, प्राणायाम तथा प्रत्याहार। यह पाँच ‘बहिरंग’ और इसके बाद आने वाले तीन अंग- धारणा, ध्यान और समाधि को ‘अंतरंग’ के नाम से भी जाना जाता है।
अगर हम पाँच यम जिसके अंतर्गत अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह आते हैं और पाँच नियम जिसके अंतर्गत शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्राणिधान आते हैं, का भी पालन करने का प्रयास करें, जो कि समाज के प्रति और अपने व्यक्तिगत जीवन में अनुशासन और नैतिकता से हमारा परिचय करवाते हैं तो हम योग के मार्ग पर चल पड़े हैं, यह हम अनुभव करेंगे।
इस भारतीय योग धरोहर को अगर किसी ने प्रमुखता से विश्व भर से परिचित करवाया तो वह हैं युवा संन्यासी स्वामी विवेकानंद, जिनके ‘भक्ति योग’, ‘कर्म योग’ और ‘ज्ञान योग’ पर व्याख्यान सुनने के लिए विदेशी धरती पर भी हजारों लोग उमड़ पड़ते थे। व्याख्यानों के अतिरिक्त स्वामी जी कक्षाएँ भी लेते थे और योग मुद्राएँ भी सिखाते थे।
अमेरिका और इंग्लैंड में तो स्वामी जी को सुनने के लिए लोगों का ताँता लग जाता था। अपने ‘राजयोग’ विषय पर दिए गए व्याख्यानों में स्वामी जी अत्यंत सूक्ष्म बिंदुओं को भी विश्व भर के सामने बहुत ही सरलता के साथ प्रस्तुत करते थे। राजयोग के अंतर्गत स्वामी जी प्राण, प्राण का आध्यात्मिक रूप, प्रत्याहार और धारणा, ध्यान और समाधि सहित अन्य विषयों पर प्रकाश डालते हैं।
यह सारी जानकारी उनके द्वारा रचित पुस्तक ‘राजयोग’ में भी निहित है। इसके अतिरिक्त स्वामी जी ने पतंजलि योगसूत्र के अंतर्गत जन साधारण के लिए जटिल माने जाने वाले विषय जैसे समाधिपाद, साधनपाद, विभूतिपाद और अन्य से भी पश्चिम जगत को परिचय करवाया था।
अब समय आ गया है कि हम स्वामी विवेकानंद के आह्वान को चरितार्थ करें, जो उन्होंने 1897 में मद्रास में ‘हमारा प्रस्तुत कार्य’ विषय पर दिया था। वे कहते हैं, “चारों ओर शुभ लक्षण दिख रहे हैं और भारतीय आध्यात्मिक और दार्शनिक विचारों की फिर से सारे संसार पर विजय होगी।” वे आगे कहते हैं, “उठो भारत, तुम अपनी आध्यात्मिकता द्वारा जगत पर विजय प्राप्त करो।” हमें विश्व पर विजय प्राप्त करनी है, लेकिन किसी की जमीन हड़प कर या फिर गोला-बारूद के सहारे युद्ध करके नहीं, बल्कि अध्यात्म से।
21वीं सदी में जहाँ एक तरफ भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने योग को आधिकारिक तौर पर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्थापित कर दिया है, वहीं दूसरी तरफ अब यह दायित्व हर भारतीय का भी बनता है कि वह अपनी इस सनातन परंपरा को अपनाए, दिनचर्या के हर भाग में सम्मिलित करे और विश्व का आध्यात्मिक मार्गदर्शन करे, क्योंकि विश्व की निगाहें तो भारत पर ही हैं जहाँ योग का उद्भव हुआ है।