भारत में ‘चैत्र शुक्ल प्रतिपदा’ को ही साल की प्रथम तारीख़ माना जाता है और वैज्ञानिक रूप से भी इस पर कोई प्रश्नचिह्न खड़ा नहीं होता। लेकिन क्या आपको पता है कि जहाँ भारतीय कैलेंडर प्राचीन काल से वैसे ही चला आ रहा है, वहीं विदेशी कलेंडरों में अनेक बार गड़बड़ हुई हैं और उनमें कई संशोधन करने पड़े हैं। अलग-अलग राजाओं ने और समय के साथ अलग-अलग त्रुटियों को सुधारते-सुधारते ये कैलेंडर कई बार बदले।
इनमें माह की गणना चन्द्र की गति से और वर्ष की गणना सूर्य की गति पर आधारित है। आज इसमें भी आपसी तालमेल नहीं है। ईसाई मत में जीसस क्राइस्ट का जन्म इतिहास की निर्णायक घटना है। अत: कालक्रम को ‘B.C.(Before Christ) और A.D. (Anno Domini)’ अर्थात ‘In the year of our Lord’ में बाँटा गया। लेकिन, यह पद्धति ईसा के जन्म के कुछ सदियों तक प्रचलन में नहीं आई।
रोमन कैलेंडर के बारे में बता दें कि आज के ईस्वी सन का मूल रोमन संवत ही है। यह ईसा के जन्म के 753 वर्ष पूर्व रोम नगर की स्थापना से प्रारम्भ हुआ था। तब इसमें 10 माह थे (प्रथम माह मार्च से अंतिम माह दिसम्बर तक)। उस समय वर्ष होता था सिर्फ 304 दिन का। बाद में रजा नूमा पिम्पोलिय्स ने दो माह (जनवरी, फरवरी) जोड़ दिए। तब से वर्ष 12 माह अर्थात 355 दिन का हो गया। फिर भी खगोलीय गतिविधियों के अनुरूप नहीं।
असल में 2 सितम्बर 1952 को अंग्रेजों ने सभी ब्रिटिश कॉलोनीज में पोप ग्रेगोरी XII के कैलेंडर को लागू किया, जो उन्होंने अक्टूबर 1582 में बनाया था। अलेक्सेंडरियन खगोलशास्त्री Sosigenes ने सौर वर्ष की गणना में कुछ गलती की थी, इसीलिए उसे हटा दिया गया। जूलियस सीजर ने भी रोमन कैलेंडर में ही बदलाव कर जूलियन कैलेंडर बनाया था। सीजर ने Sosigenes की सलाह पर नए कैलेंडर को सूर्य के आधार पर बनाया, चन्द्रमा नहीं।
एक सौर वर्ष की लंबाई 365.25 दिन गणना की गई, जो 11 मिनट छोटा था। इससे लीप ईयर की गणना में गड़बड़ी हो गई। जीसस क्राइस्ट के जन्म के आधार पर बने कैलेंडर का प्रचलन तो छठी शताब्दी में शुरू हुआ था। अभी भी पुराने कई सालों के कैलेंडर में कुछ खामियाँ हैं, जिन पर निर्णय लिया जाना है। एक और बड़ी बात ये है कि एक कैलेंडर से ब्रिटिश ने जब दूसरे का रुख किया तो बीच के 10 दिन न जाने कहाँ गायब हो गए।
यह ग्रहों की गति से मेल नहीं खाता था, तो जुलियस सीजर ने इसे 365 और 1/4 दिन का करने का आदेश दे दिया। इसमें कुछ माह 30 व कुछ 31 दिन के बनाए और फरवरी 28 का रहा जो चार वर्षों में 29 का होता है। भारतीय काल गणना का केंद्रबिंदु अवंतिका (उज्जैन) को माना गया। कालचक्र प्रवर्तक भगवान शिव काल की सबसे बड़ी इकाई के अधिष्ठाता होने के कारण महाकाल कहलाए। आज भी वो उज्जैन में प्रतिष्ठित हैं।
कलियुग में शकारि विक्रमादित्य द्वारा नए संवत का प्रारंभ यह परकीय विदेशी आक्रमणकारियों से भारत को मुक्त कराने के महा-अभियान की सफलता का प्रतीक हुआ। भारतीय नववर्ष इसीलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि प्राकृतिक दृष्टि से भी वृक्ष, वनस्पति, फूल- पत्तियों में भी नयापन दिखाई देता है। वृक्षों में नई-नई कोपलें आती हैं। वसंत ऋतु का वर्चस्व चारों ओर दिखाई देता है। कारोबारियों के लिए वित्त वर्ष भी तभी शुरू होता है।