18 साल पहले 18 नवंबर 2003 को बांग्लादेश के एक हिंदू परिवार के दर्जन भर लोगों को आग में झुलसने के लिए छोड़ा गया था। यह नरसंहार बांग्लादेश के चटगाँव जिला के बंशखली उपजिला में हुआ था। जहाँ तेजेंद्र लाल शील के घर में बारूद से आग लगाई गई थी और 6 बच्चों समेत 11 लोगों को मौत के घाट उतारा गया था। इस नरसंहार में मरने से बचे बिमल शील आजतक अपने परिवार को न्याय दिलाने के लिए दर-दर भटक रहे हैं।
पुलिस ने शुरुआत में इसे एक डकैती का मामला बता दिया था लेकिन किसी को इसका यकीन नहीं हुआ। बाद में सामने आया कि इस नरसंहार में बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी के नेता भी शामिल हैं। नरसंहार की 18वीं बरसी पर बिमल कहते हैं, “मुझे लगा था कि मुझे न्याय मिल जाएगा लेकिन न्याय अभी नहीं तक नहीं मिला।”
बता दें कि 23 जून 2019 को हाईकोर्ट ने इस केस को 6 माह के अंदर खत्म करने का आदेश दिया था लेकिन उस सुनवाई के 18 माह बीतने के बाद भी ट्रॉयल कोर्ट अब भी 50 में आधे से ज्यादा गवाहों की गवाही रिकॉर्ड करने में असफल रहा। 22वें चश्मदीद की गवाही पिछले साल दर्ज की गई थी। इस साल किसी चश्मदीद का बयान नहीं रिकॉर्ड हुआ। बिमल कहते हैं कि उन्हें लगा था कि अगर 25 लोगों से ज्यादा की गवाही आ गई तो मुकदमा खत्म हो जाएगा।
On this day, November 18, 2003, 11 Hindus of the same family,including 4-day-old child,were burnt to death in Sadhanpur Shilpara of Banshkhali, Chittagong,Bangladesh, by terrorists sheltered by the then BNP govt.
— Raju Das 🇧🇩 (@RajuDas7777) November 18, 2020
Even after 17 long years, this genocide has not been judgment yet. pic.twitter.com/Xc4xVZ2mN0
वह कहते हैं कि हालात ऐसे हैं कि अब कोई भी चश्मदीद अपनी गवाही देने के लिए तैयार नहीं होता। उनकी मौजूदगी के लिए वारंट की जरूरत है। इस मामले में बंशखली थाने के तत्कालीन ओसी और मामले की जाँच करने वाले एएसपी (सहायक पुलिस अधीक्षक) ने भी गवाही नहीं दी है। उन्होंने राज्य वकीलों से गुहार लगाई है कि वो आगे आकर गवाहों के बयान लें।
बता दें कि 18 नवंबर 2003 को हुए बंशखली नरसंहार में मरने वालों में 70 साल के तेजेंद्र लाल शील, पत्नी बकुल शील (60), बेटा अनिल शील (40) उसकी पत्नी स्मृति शील (32), स्मृति के तीन बच्चे-रूमी (12), सोनिया (7) और 4 दिन का कार्तिक था। इनके अलावा तेंजेंद्र की भतीजी बबुती शील, प्रसादी शील और एनी शील और एक परिजन 72 साल के देबेंन्द्र शील शामिल थे।
बिमल, तेजेंद्र के ही बेटे हैं। इस घटना में सिर्फ उनकी जान बच पाई थी और बाद में उन्होंने इस केस को शुरू किया। मगर, अब उन्हें अपनी जान का भी डर लगता है क्योंकि पुलिस कैंप को कुछ साल पहले घटनास्थल से हटा दिया गया है। वह कहते हैं कि आवामी लीग के नेताओं ने उन्हें न्याय दिलाने का वादा किया था, मगर वो न्याय अब भी अधूरा है।
बिमल को जीवनयापन करने में समस्या हो रही है। उन्हें उनकी जान का खतरा है। रहने का भी रही इंतजाम उनके लिए नहीं हैं इसलिए चटगाँव के डिप्टी कमिश्नर बिल के लिए सरकारी फंड से घर बनवाने की जद्दोजहद में जुटे हैं। इस संबंध में दस्तावेज भी प्रधानमंत्री कार्यालय भेजा जा चुका है।
अनुभवी वकील, हिंदू बौद्ध ईसाई एकता परिषद के महासचिव और इस मामले में बिमल का मुखर होकर समर्थन देने वाले राणा दासगुप्ता बांग्लादेश में अल्पसंख्यकों के हालातों पर गौर करवाते हुए कहा, “न्याय की गुहार लगाने वाले को तब भी न्याय नहीं मिलेगा अगर केस खत्म हो जाए। उसने 2003 में अपना सब खो दिया और 2003 से लगातार प्रताड़ित हो रहा है।”
गौरतलब है कि चटगाँव की तीसरी अतिरिक्त जिला और सत्र न्यायाधीश फिरदौस वाहिद इस केस पर सुनवाई कर रहे हैं। साल 2011 में चिंग प्रू, तत्कालीन एसपी ने 2011 में चार्जशीट दाखिल की थी। वह इस केस के आठवें जाँच अधिकारी थे। उन्होंने 38 लोगों के विरुद्ध आगजनी हत्या और लूटपाट का मामला दर्ज किया था। मगर, सिर्फ दो ही लोग अभी जेल के पीछे हैं और 19 फरार हैं। कोर्ट ने गवाहों के बयान दर्ज मई 2012 में करने शुरू किए थे और बाद में ये केस स्पीडी ट्रॉयल ट्रिब्यूनल को उसी साल अक्टूबर में भेज दिया गया। बाद में ये दोबारा ट्रॉयल कोर्ट को मिल गया।
मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, इस मामले में 10 मार्च 2004 को पुलिस ने कई लोगों को गिरफ्तार किया था। आरोपितों में से एक का नाम महबूब था। उसने बताया था कि उन्होंने मोख्तार के आदेश का पालन किया और घर के दरवाजे और खिड़कियाँ बंद कर दीं। इसके बाद रुबेल ने आग लगाई। उसने बताया था कि उन लोगों को राज्य के एक मंत्री के भतीजे और एक स्थानीय संघ अध्यक्ष ने घर में आग लगाने के लिए काम पर रखा था।