भारत की सैटलाइट-रोधी हथियार-प्रणाली ‘मिशन शक्ति’ की तारीफों और उसे बधाईयों का ताँता तो लग ही रहा है, पर साथ ही औचित्य से लेकर टाइमिंग तक पर दबी जबान से सवाल भी उठने लगे हैं। ऐसे में इसकी टाइमिंग के बारे में जान लेना जरूरी है।
जारी है सौदेबाजी
यहाँ यह जान लेना जरूरी है कि यह क्षमता पहली ही तीन देशों- अमेरिका, चीन, और रूस, के पास है। और तीनों देश इस समय एक-दूसरे पर इसके दुरुपयोग के आरोप-प्रत्यारोप की नुरा-कुश्ती में लगे हैं। जेनेवा में स्पेस वेपेनाइज़ेशन पर होने वाली चर्चा और वैश्विक संधि से पहले ज़रूरी था यह भारतीय ASAT का परीक्षण। लगभग 25 देश इस बात पर चर्चा कर रहे हैं कि ये तकनीक और किसी देश के पास न हो, और इसके बहाने दूसरे देशों के इस दिशा में चल रहे शोध पर वैश्विक दवाब बने। यूरोपियन यूनियन का भी मूक समर्थन इस कवायद को हासिल है। पूरी खींचतान केवल इसीलिए हो रही है ताकि अंत में एक ऐसी जबरिया ‘संधि’ बनाई जाए जिससे इन देशों के अतिरिक्त और किसी के पास यह तकनीकी न आ पाए। और मुलम्मा इस्तेमाल होगा ‘अन्तरिक्ष में शांति और अप्रसार’ का। और सैटलाइट-रोधी हथियार-प्रणाली से लैस यह तीन देश बन बैठते अन्तरिक्ष में ‘सफाई’ के ‘थानेदार’।
इससे यह अमीर और ‘दबंग’ देश कई फायदे देख रहे हैं- एक तो भारत-सरीखे विकाशसील देशों को अगर अपने उपग्रहों का कचरा अगर साफ करना होता तो यह ‘थानेदार’ देश मनमाना दाम वसूल सकते थे, ठीक वैसे ही जैसे किसी रेगिस्तान में कुएँ का एकाधिकार खरीद बैठा दुकानदार आपसे मनमाना दाम वसूलेगा।
दूसरे, इस तकनीकी का प्रसार केवल अपने हाथ में रख कर यह देश दूसरे देशों को इस तकनीकी के उपयोग के बदले अपने सामरिक पाले में कर लेते। मसलन चीन कई छोटे-मोटे देशों के सामने यह शर्त रख सकता था कि यदि उन्हें अपना अन्तरिक्ष-कचरा चीन से साफ कराना है तो उन्हें अलाने-फलाने मामले में सुरक्षा परिषद में भारत के खिलाफ वोट डालना होगा।
तीसरा और सबसे जरूरी, चीन के लगातार आक्रामक होते जा रहे रवैये के चलते आज नहीं तो कल भारत-चीन सैन्य संघर्ष तय है। ऐसे में अगर चीन भारत के पास यह तकनीकी आने के पहले प्रतिबन्ध लगाने में सफल हो जाता तो हमारे सभी सैन्य-असैन्य उपग्रह चीन की उपग्रह-मारक मिसाइलों का निशाना होते और हम कुछ न कर पाते।
नाभिकीय अप्रसार के समय यही दोगली चालचली जा चुकी है
जिन्हें यह ‘conspiracy theory’ या कोरी गल्प लग रहा हो, उन्हें नाभिकीय अप्रसार संधि के मुद्दे पर भारत का रुख याद करना चाहिए। किसी मोदी या संघ नहीं, पूर्व प्रधानमंत्री इन्दिरा गाँधी के काल में (1968) भारत ने हस्ताक्षर करने से इसीलिए मना कर दिया था कि यह दोहरे मापदण्ड पर आधारित थी- उस समय तक नाभिकीय हथियार प्राप्त कर चुके देशों ने अपने हथियारों का जखीरा सलामत रखते हुए दूसरों के नाभिकीय हथियार बनाने पर रोक लगा दी थी।
यही चीज़ एक महाद्वीप से दूसरे महाद्वीप पर हमला करने वाली (आईसीबीएम) मिसाइलों के मामले में हुआ। खुद इनसे अच्छी तरह लैस होने के बाद अमेरिका-रूस ने दूसरों के पास इन्हें जाने से रोकने के लिए इन्हें भी विश्व-शांति के नाम पर प्रतिबंधित कर रखा है।