श्रद्धा वालकर हत्याकांड में हर रोज नए-नए खुलासे हो रहे हैं। हालाँकि, अब भी मामले की पूरी सच्चाई सामने आना बाकी है। पुलिस आफताब के खिलाफ अधिक से अधिक सबूत जुटाते हुए कोर्ट में पेश करना चाहती है। ऐसे में, पुलिस आफताब का नार्को टेस्ट करना चाहती थी। हालाँकि, अब उसके नार्को टेस्ट से पहले पॉलीग्राफ (लाई डिटेक्टर) टेस्ट किया जाएगा। आइए जानते हैं क्या है लाई डिटेक्टर और नार्को टेस्ट…
दरअसल, लाई डिटेक्टर मशीन झूठ पकड़ने वाली मशीन के नाम से भी जाना जाता है। इस मशीन को साल 1921 में कैलिफॉर्निया यूनिवर्सिटी के छात्र जॉन अगस्तस लार्सन ने बनाया था। इस मशीन का मकसद अपराधियों के झूठ का पर्दाफाश करना था। भारत में किसी भी व्यक्ति का पॉलीग्राफ टेस्ट या नार्को टेस्ट कराने से पहले अदालत की अनुमति जरूरत होती है। फिलहाल, आफताब के केस में पुलिस को पॉलीग्राफ टेस्ट करने की अनुमति मिल गई है।
कैसे होता है पॉलीग्राफ टेस्ट
पॉलीग्राफ टेस्ट करने से पहले जिस व्यक्ति की जाँच करनी होती है उसके शरीर के 4-6 पॉइंट्स को मशीन के तारों के माध्यम से जोड़ा जाता है। इसके बाद, उससे कुछ ऐसे सवाल पूछे जाते हैं जिनका केस से कोई संबंध नहीं होता। फिर, शुरू होता है असली टेस्ट और आरोपित से केस से जुड़े सवाल पूछे जाते हैं।
सवालों के दौरान जब आरोपित जवाब देता है तो यदि वह झूठ बोलता है तो उस समय उसकी प्लस रेट, ब्लड प्रेशर, हार्ट रेट बढ़ने या घटने लगता है। साथ उसके हाथ या माथे पर पसीने आने लगता है। यह पूरा टेस्ट विशेषज्ञों की निगरानी में किया जाता है। विशेषज्ञ मशीन के डिस्प्ले व आरोपित के हाथों और अन्य जगहों पर आ रहे मशीन को देखकर बताते हैं कि वह झूठ बोल रहा है या सच।
पॉलीग्राफ टेस्ट की विश्वनीयता
कई रिसर्च में यह सामने आया है कि पॉलीग्राफ टेस्ट को अंतिम सत्य नहीं माना जा सकता। दरअसल, पेशेवर अपराधी खुद को इस टेस्ट के लिए ऐसे तैयार कर लेते हैं कि टेस्ट के दौरान मशीन में किसी भी प्रकार का संकेत नहीं दिखता है और यह जो बोल रहे होते हैं उसे ही सच मानना पड़ता है। हालाँकि, अब तक की जाँच में यह सामने नहीं आया है कि आफताब आदतन अपराधी नहीं है। इसलिए, इस टेस्ट में बहुत सारे सच सामने आने की संभावना जताई जा रही है।
पॉलीग्राफ टेस्ट से कितना अलग है नार्को टेस्ट
पॉलीग्राफ टेस्ट की ही तरह नार्को टेस्ट भी किसी आरोपित की सच्चाई सामने लाने के लिए किया जाता है। हालाँकि, इस टेस्ट में किसी मशीन की जरूरत नहीं पड़ती बल्कि ‘ट्रुथ सीरम’ नामक दवा का इंजेक्शन दिया जाता है। ‘ट्रुथ सीरम’ वास्तव में साइकोएक्टिव दवा होती है, जिसमें सोडियम पेंटोथोल, स्कोपोलामाइन और सोडियम अमाइटल जैसी दवाओं का उपयोग किया जाता है।
ये दवाएँ जैसे ही व्यक्ति के खून में मिलती है वैसे ही वह अर्धचेतन अवस्थ में पहुँच जाता है। साथ ही, यह उसके नर्वस सिस्टम को भी शिथिल कर देता है, जिससे आरोपित सभी सवालों के सही जवाब देना शुरू करता है।
अदालत की अनुमति मिलने के बाद, यह टेस्ट फॉरेंसिक एक्सपर्ट, जाँच एजेंसियों के अधिकारी, मनोवैज्ञानिक और डॉक्टरों की उपस्थिति में होता है। जिस व्यक्ति को ‘ट्रुथ सीरम’ का इंजेक्शन दिया जाता है वह व्यक्ति जब अर्धचेतन अवस्था में होता है तब उससे सवालों का सिलसिला शुरू होता है। चूँकि, व्यक्ति पूरी तरह होश में नहीं होता ऐसे में वह सब कुछ सच-सच बताने लगाता है।
चूँकि, नार्को टेस्ट के दौरान आरोपित अर्धचेतन अवस्था में होता है इसलिए वह बड़े सवालों को भूल सकता है। यही कारण है कि उससे छोटे-छोटे सवाल पूछे जाते हैं साथ ही सवालों को बार-बार दोहराया जाता है। इस पूरे घटनाक्रम की वीडियो रिकॉर्डिंग भी की जाती है, जिसका उपयोग सबूत के तौर पर कोर्ट में किया जाता है।
नार्को टेस्ट प्रमाणिक नहीं
सुप्रीम कोर्ट के वकील अजय गौतम ने ऑपइंडिया को बताया कि नार्को टेस्ट कोर्ट में बहुत ज्यादा मायने नहीं रखता। उनके मुताबिक, कई बार अपराधी अपनी शारीरिक क्षमता से नार्को और लाई डिक्टेटर जैसे टेस्ट में बच निकलते हैं। लेकिन वे सजा से नहीं बच पाते। जैसे निठारी केस। उनके अनुसार, इसी तरह यदि आफताब नार्को टेस्ट में बच निकलता है तो भी इसकी गारंटी नहीं है कि कोर्ट भी उसे निर्दोष मान लेगा।