अयोध्या विवाद पर मुस्लिम पक्षकार जमीयत उलेमा ए हिंद ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ समीक्षा याचिका दाखिल ना करने का फैसला लिया है। मुस्लिम पक्षकार ने गुरुवार (नवंबर 21, 2019) को कहा कि जमीयत उलेमा-ए-हिंद ने एक प्रस्ताव पारित किया है कि वह भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) और वक्फ संपत्तियों द्वारा प्रबंधित बाबरी मस्जिद पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ समीक्षा याचिका दाखिल नहीं करेगा।
गुरुवार को हुई कार्य समिति की बैठक में जमीयत उलेमा-ए-हिंद अयोध्या विवाद पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को स्वतंत्र भारत के इतिहास में काला धब्बा बताया और साथ ही समीक्षा याचिका दायर नहीं करने की बात भी कही। तथाकथित इस्लामी विद्वानों की संस्था जमीयत का मानना है कि समीक्षा याचिका दायर करने से और अधिक नुकसान हो सकता है। लेकिन साथ ही यह भी कहा है कि जो लोग याचिका दायर करना चाहते हैं वे अपने ‘कानूनी हक’ का इस्तेमाल कर रहे हैं। इसलिए इसका विरोध नहीं किया जाएगा।
Jamiat Ulama-i-Hind has issued a clarification that “Jamiat Ulama-i-Hind has passed a resolution that it will not file review petition against the Supreme Court verdict on Babri Masjid & mosques managed by Archaeological Survey of India (ASI) and Waqf properties.” https://t.co/NZz6vR8Sc4
— ANI (@ANI) November 21, 2019
बता दें कि सुप्रीम कोर्ट इस विवाद पर अपना फैसला सुना चुका है। जिसके मुताबिक विवादित जमीन पर रामलला का मालिकाना हक है। वहीं मुस्लिम पक्ष को किसी दूसरे स्थान पर 5 एकड़ वैकल्पिक जमीन दी जाएगी।
कोर्ट का फैसला आने के कुछ दिनों बाद मुस्लिम पक्षकारों की हुई बैठक में जमीयत उलेमा-ए-हिंद (मौलाना अरशद मदनी वाला) और ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (AIMPLB) ने समीक्षा याचिका दायर करने की बात कही थी। मदनी ने कहा था कि उन्हें पता है कि उनकी समीक्षा याचिका 100% खारिज हो जाएगी, लेकिन वो फिर भी इसे दायर करेंगे, क्योंकि ये उनका अधिकार है।
वहीं गुरुवार को कहा गया कि जमीयत उलमा-ए-हिंद की कार्य समिति ने बाबरी मस्जिद के खिलाफ हाल ही में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को अनुचित और एकतरफा माना है। उनका कहना है कि कोर्ट ने पुष्टि की है कि किसी भी मंदिर को ध्वस्त करने के बाद मस्जिद का निर्माण नहीं किया गया था। वहाँ पर कई सौ वर्षों तक एक मस्जिद मौजूद थी, जिसे ध्वस्त कर दिया गया और अब अदालत ने उस साइट पर मंदिर के निर्माण का मार्ग प्रशस्त कर दिया है।
बैठक में आगे कहा गया, “इस तरह का निर्णय स्वतंत्र भारत के इतिहास में काला धब्बा है। ऐसी स्थिति में हम संबंधित न्यायाधीशों से किसी भी बेहतर फैसले की उम्मीद नहीं कर सकते, बल्कि आगे और नुकसान होने की संभावना है। इसलिए कार्य समिति का मानना है कि समीक्षा याचिका दायर करना लाभदायक नहीं होगा।”
उल्लेखनीय है कि मदनी इससे पहले भी सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर ऊँगली उठा चुके हैं। पिछले दिनों भी उन्होंने इस फैसले पर जहर उगलते हुए कहा था कि सुप्रीम कोर्ट को मुस्लिमों की बजाए हिंदुओं को मंदिर बनाने के लिए अलग से जगह देनी चाहिए थी।
मदनी ने कहा था, “सुप्रीम कोर्ट के फैसले में, सभी सबूत बाईं ओर इशारा करते हैं, जबकि फैसला दाईं ओर जाता है। कोर्ट यह स्वीकार करता है कि मुस्लिमों ने 1857 से 1949 तक वहाँ नमाज अदा की। इस बात को माना गया कि 1934 में मस्जिद को नुकसान पहुँचाया गया था और इसके लिए हिंदुओं पर जुर्माना भी लगाया गया था। यह भी स्वीकार किया गया कि 1949 में वहाँ मूर्तियों की स्थापना गलत थी। साथ ही 1992 में मस्जिद के विध्वंस को भी गैर कानूनी करार दिया।” हालाँकि उनके इस बयान में कई त्रुटियाँ थीं।