Tuesday, November 19, 2024
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मदरसों को स्कूल में बदलने का कानून: मुस्लिम पक्ष की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने जारी किया नोटिस, असम की सरमा सरकार ने लिया था फैसला

उन्होंने यह भी कहा है कि यह पूरा मामला अल्पसंख्यकों के संवैधानिक अधिकारों से संबंधित है। इस पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अब और धार्मिक शिक्षा नहीं हो सकती, क्योंकि संस्थानों को पूरी तरह से राज्य द्वारा संचालित किया जा रहा है।

साल 2020 में असम विधानसभा में एक कानून पारित किया गया था, जिसके अनुसार राज्य सरकार द्बारा संचालित मदरसों को सामान्य स्कूलों में बदला जाना था। इस कानून को गुवाहाटी हाईकोर्ट ने भी बरकरार रखने का फैसला सुनाया था। इसके बाद सुप्रीम कोर्ट में एक विशेष अनुमति याचिका दाखिल की गई थी। इस याचिका पर मंगलवार (1 नवंबर। 2022) को हुई सुनवाई में सुप्रीम कोर्ट ने गुवाहाटी हाईकोर्ट के फैसले पर नोटिस जारी किया है।

दरअसल, इस कानून के विरोध में मदरसों की प्रबंध समितियों द्वारा इस मामले में गुवाहाटी हाईकोर्ट में याचिका दायर कर कहा गया था कि असम विधानसभा के इस कानून ने संविधान के अनुच्छेद 29 और 30 का उल्लंघन किया है।

हालाँकि, मदरसों की प्रबंधन समितियों की याचिका को खारिज करते हुए हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस सुधांशु धूलिया के नेतृत्व में हाई कोर्ट की एक खंडपीठ ने असम मदरसा शिक्षा (प्रांतीकरण) अधिनियम, 1995 को रद्द करते हुए निरसन अधिनियम, 2020 (असम विधानसभा द्वारा बनाए गए कानून) को बरकरार रखा था।

गुवाहाटी हाईकोर्ट के इस फैसले के खिलाफ विशेष अनुमति याचिका दायर की गई थी। इस याचिका में असम सरकार पर विधायी और कार्यकारी दोनों शक्तियों का मनमाने ढंग से उपयोग करने का आरोप लगाया गया है। याचिकाकर्ताओं ने दावा किया है कि पर्याप्त मुआवजे के के बिना मदरसों के ‘मालिकाना अधिकारों में अतिक्रमण’ करना अनुच्छेद 30 (1 ए ) का उल्लंघन है। यह भी दावा किया गया है कि इस कानून ने अनुच्छेद 30 (1) के अंतर्गत शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना और प्रशासन करने के अधिकारों को भी समाप्त कर दिया है।

सुप्रीम कोर्ट में हुई सुनवाई में याचिकाकर्ताओं की ओर से अधिवक्ता संजय हेगड़े ने जस्टिस अजय रस्तोगी और जस्टिस सीटी रविकुमार की खंडपीठ के समक्ष कहा है कि उच्च न्यायालय का फैसला गलत था, क्योंकि इसने राष्ट्रीयकरण के साथ प्रांतीयकरण की भी बराबरी की थी। उन्होंने यह भी कहा है कि यह पूरा मामला अल्पसंख्यकों के संवैधानिक अधिकारों से संबंधित है। इस पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अब और धार्मिक शिक्षा नहीं हो सकती, क्योंकि संस्थानों को पूरी तरह से राज्य द्वारा संचालित किया जा रहा है।

इसके अलावा इस याचिका में यह भी कहा गया है कि साल 1995 का अधिनियम मदरसों में कार्यरत शिक्षण और गैर-शिक्षण कर्मचारियों को वेतन का भुगतान करने और परिणामी लाभ प्रदान करने के लिए राज्य के उपक्रम तक सीमित था। साथ ही के लिए भी इन धार्मिक संस्थानों के प्रशासन, प्रबंधन और नियंत्रण का अधिकार था। हालाँकि, साल 2020 का कानून अल्पसंख्यकों की संपत्ति छीन रहा है और धार्मिक शिक्षा प्रदान करने के अल्पसंख्यक समुदाय के अधिकार को प्रभावित करता है।

इस बारे में जस्टिस रस्तोगी ने पूछा कि आपके कहने का मतलब यह है कि मदरसों या अल्पसंख्यक समुदाय की संपत्ति भी सरकार द्वारा ली जा रही है? और नोटिफिकेशन केवल कर्मचारियों या मदरसों में तैनात शिक्षकों की सेवा शर्तों के संदर्भ में हैं?

इस पर याचिकाकर्ता के वकील हेगड़े ने कहा, “हाँ, नोटिफिकेशन तो बस इतना ही था। लेकिन, असल में मदरसों की संपत्ति छीन ली गई।” उन्होंने ने यह भी तर्क दिया है कि हाईकोर्ट के फैसले के संचालन के परिणामस्वरूप मदरसों को बंद कर दिया जाएगा। साथ ही, इस शैक्षणिक सत्र में पुराने पाठ्यक्रमों के लिए छात्रों को प्रवेश देने से रोक दिया जाएगा, जो कि अल्पसंख्यकों को अपने धर्म और संस्कृति की रक्षा के लिए दी गई संवैधानिक गारंटी के खिलाफ होगा।

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ऑपइंडिया स्टाफ़
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कार्यालय संवाददाता, ऑपइंडिया

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