‘निक़ाह-हलाला’ एक ऐसी कुप्रथा है जिसे सुनकर ही रूह काँप उठे और जिस पर गुज़रती हैं उसके तन-मन की स्थिति का अंदाज़ा लगाना भी असंभव है। मेरी समझ से तो ‘हलाला और हलाल’ में कोई ख़ास अंतर नहीं है। एक मायने में हलाल प्रक्रिया तो फिर भी मृत्यु तक पहुँचा देती है, लेकिन हलाला प्रक्रिया तो न जीने देती है और न मरने। तिल-तिल मरने को मजबूर होते जीवन का जो मतलब बनता होगा वो तो मुस्लिम महिलाएँ ही जानती होंगी, हम और आप तो उस दर्दनाक जीवन की केवल कल्पना भर ही कर सकते हैं।
प्रतीत होता है कि ऐसी विषम स्थितियों का सामना कर रही मुस्लिम सम्प्रदाय की महिलाएँ इन कुरीतियों को मानने के लिए लिए जैसे दिमागी तौर पर पहले से ही तैयार रहती हों। लगता है कि विरोध करने की ताक़त तो जैसे उनमें कभी पनपी ही न हो। क्या धार्मिक कुरीतियों को मानने की बाध्यता इतनी प्रबल है जिसमें सर्वस्व जीवन अंदर ही अंदर घुटते बीते, तो भी कोई ग़म नहीं? ऐसे में यह प्रश्न निहायत ही ज़रूरी बन पड़ता है कि चुप्पी साधे रखने को अपनी नियति समझती महिलाएँ कहीं असल में अपने ही पतन का कारण तो नहीं?
मुस्लिम महिलाओं के इसी नियती स्वरुप को ऑपइंडिया के एक लेख में विस्तार से बताया गया है। जिसे हर महिला को एक बार ज़रूर पढ़ना चाहिए।
शोषण के ख़िलाफ़ मुस्लिम महिलाओं ने किया अदालत का रुख़
कहते हैं बर्दाश्त करने की भी कोई हद होती है और जब ये पार होती है तो इतिहास कुछ नया रचने की दिशा में अग्रसर होता है। ऐसा ही कुछ ट्रिपल तलाक़ और निक़ाह-हलाला की कुरीतियों के ख़िलाफ़ हुआ जिसकी बदौलत कुछ मुस्लिम महिलाएँ कोर्ट की चौखट तक जा पहुँची। इसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने ट्रिपल तलाक़ को असंवैधानिक करार देते हुए इस पर पूर्णत: रोक लगाने का आदेश दिया।
मुस्लिम महिलाओं के जीवन को बेहतरी और बराबरी के पायदान तक लाने के लिए पिछले साल (दिसम्बर, 2018) मोदी सरकार द्वारा ट्रिपल तलाक़ विधेयक लाया गया जो लोकसभा में तो पास हो गया लेकिन राज्यसभा में अटक गया था।
केंद्रीय मंत्री अरुण जेटली ने निक़ाह-हलाला की कुप्रथा का पुरज़ोर विरोध किया
केंद्रीय मंत्री अरुण जेटली ने मोदी सरकार द्वारा लाए गए ट्रिपल तलाक़ विधेयक को रद्द करने के लिए कॉन्ग्रेस के रुख़ की कड़ी आलोचना की है। उन्होंने निक़ाह-हलाला कुप्रथा के बारे में एक ब्लॉग लिखा जिसमें कॉन्ग्रेस की मंशा पर सवालिया होते हुए उन्होंने लिखा “क्या बरेली” निक़ाह-हलाला “आपकी अंतरात्मा को झकझोरता नहीं?” अपने लेख में उन्होंने कई बिंदुओं को उजागर किया।
- कुछ घटनाएँ इतनी बेहूदा और प्रतिकारक होती हैं कि वे समाज की अंतरात्मा को झकझोर देती हैं और उसे समाज से दूर करने के लिए मजबूर करती हैं। धार्मिक क़ानून (पर्सनल लॉ) द्वारा किया गया यह अन्याय इसका उदाहरण है।
- पिछले कई दशकों में कई समुदायों द्वारा उनके पर्सनल लॉ में महत्वपूर्ण बदलाव लाए गए हैं। इन बदलावों में लैंगिक समानता सुनिश्चित की जाती है, महिलाओं और बच्चों के अधिकारों की रक्षा की जाती है और साथ ही सम्मान के साथ जीने का अधिकार सुनिश्चित किया जाता है। सदियों से चली आ रही कुछ प्रथाएँ इतनी अप्रिय थीं (जैसा कि सती और अस्पृश्यता) को अब असंवैधानिक माना जाता है।
- बरेली के एक हालिया मामले ने मेरी अंतरात्मा को झकझोर दिया है। यह इस्लामिक पर्सनल लॉ में निक़ाह-हलाला की अप्रिय प्रथा से जुड़ी हुई है। 2009 में शादी करने वाली एक महिला को उसके पति ने ट्रिपल तलाक़ के माध्यम से एक बार 2011 में और उसके बाद 2017 में दो बार तलाक़ दिया। परिवार ने पत्नी को फिर से स्वीकार करने के लिए पति पर दबाव बनाया। दोनों अवसरों पर, पत्नी को बहकाया गया और निक़ाह-हलाला से गुज़रने के लिए कहा गया, पहले मौक़े पर अपने ससुर के साथ और बाद में अपने देवर के साथ हलाला की शर्त रखी गई।
- दोनों ने उसके साथ बलात्कार किया। लगभग इसी तरह का मामला 2 सितंबर, 2018 को उत्तर प्रदेश के संभल ज़िले में भी हुआ था। 21वीं सदी में दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में महिलाओं की गरिमा का इतना घोर उल्लंघन हो सकता है कि हर व्यक्ति को शर्म से सिर झुकाना पड़े।
- इस महिला के साथ बलात्कार करने के बाद, ससुर और देवर दोनों ने पीड़िता को तलाक़ देने के लिए ट्रिपल तालाक़ के हथियार का इस्तेमाल किया ताकि उसे उसके पति द्वारा स्वीकार किया जा सके।
- यदि भारत में ट्रिपल तलाक़ की अनुमति नहीं दी जाती, तो क्या इस तरह की घटनाएँ होतीं ? सर्वोच्च न्यायालय ने पहले ही तत्काल प्रभाव से तलाक़ को असंवैधानिक घोषित कर दिया था। कई मुस्लिम रुढ़ीवादी पुरुषों द्वारा सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश की अवहेलना की गई।
- सुबह समाचार पत्रों में मानवीयता को ठेस पहुँचाने वाली इस इस ख़बर को पढ़ने के बाद इसका पुरज़ोर विरोध होना चाहिए था, लेकिन AICC के अध्यक्ष राहुल गाँधी ने अल्पसंख्यक सम्मेलन को संबोधित करते हुए कहा कि संसद में लंबित ट्रिपल तलाक़ विधेयक को हटाने के लिए फिर से संसद में लाया जाएगा।
- इतिहास ने ख़ुद को दोहराया है, न तो एक व्यंग्य के रूप में और न ही एक त्रासदी के रूप में। इसने ख़ुद को क्रूरता की मानसिकता के साथ दोहराया है। दिवंगत राजीव गांधी ने सुप्रीम कोर्ट के शाह बानो के फ़ैसले को पलटते हुए विधायी ग़लती की, जो सभी मुस्लिम महिलाओं की सुरक्षा की गारंटी से संबंधित था।
- बरेली में मुस्लिम महिला को जानवरों से भी बदतर जीवन जीने को मजबूर किया गया।
- वोट भी महत्वपूर्ण हैं लेकिन इनकी निष्पक्षता भी ज़रूरी है। राजनीतिक अवसरवादी लोग केवल अगले दिन की सुर्ख़ियों को बटोरने की जुगत में दिखते हैं, जबकि राष्ट्र-निर्माण की सोच रखने वाले लोग अगली शताब्दी तक अपनी दूरदृष्टि बनाए रखते हैं।
इन सब में चिंता की बात है निक़ाह-हलाला और तलाक़ जैसी कुरीतियों के ख़िलाफ़ अगर कुछ मुस्लिम महिलाएँ सामने आती भी हैं, तो इस बात का क्या सबूत है कि उन्हें पूरी तरह से न्याय मिल ही जाएगा, शायद यही सवाल मुस्लिम महिलाओं के ज़ेहन में आज से नहीं बल्कि सदियों से रहा होगा, जिसका निदान आज के समय में तो हो ही जाना चाहिए।