अर्थशास्त्र में मुख्यतः तीन प्रकार की अर्थव्यवस्थाएं पढ़ाई जाती हैं- प्राइमरी सेक्टर (कृषि आधारित), सेकंडरी सेक्टर (उद्योग आधारित) तथा इन दोनों को मानव संसाधन द्वारा संचालित करने वाली सर्विस सेक्टर इकॉनमी। विगत दो दशकों से भी कम समय में उभरने वाला नवीनतम क्षेत्र है- ज्ञान आधारित अर्थव्यवस्था (Knowledge Based Economy)।
ज्ञान आधारित अर्थव्यवस्था एक ऐसी अर्थव्यवस्था को कहा जाता है जिसमें वृद्धि का मुख्य स्रोत खेत अथवा खनिज नहीं बल्कि ज्ञान होता है। यह अर्थव्यवस्था पूर्ण रूप से ज्ञान एवं सूचना के उत्पादन, वितरण और उपभोग पर आधारित होती है। उदाहरण के लिए देखा जाए तो भारत के कुछ नगरों जैसे दिल्ली, कोटा और वाराणसी में कोचिंग सेंटरों की भरमार है। यहाँ की अर्थव्यवस्था का एक बड़ा भाग ज्ञान के क्रय-विक्रय पर आधारित है।
बेंगलुरु और हैदराबाद जैसे महानगर सूचना प्रौद्योगिकी के केंद्र बन चुके हैं जहाँ ज्ञान आधारित सेवायें (कंसल्टेंसी इत्यादि) ऑनलाइन प्रदान की जाती हैं। विभिन्न विषयों पर पुस्तकें और शोध आधारित जर्नल प्रकाशित करने वाली संस्थाएं और प्रकाशन कम्पनियाँ ज्ञान आधारित अर्थव्यवस्था का ही अंग हैं। ज्ञान आधारित अर्थव्यवस्था में ज्ञान एक उत्पाद के रूप में खरीदा और बेचा जाता है।
इस प्रकार शोध एवं विकास के संस्थान, आईटी कम्पनियाँ, शिक्षक, प्राध्यापक, लेखक, पत्रकार, वैज्ञानिक, कंसल्टेंसी प्रदान करने वाले तकनीकी विशेषज्ञ ये सभी ज्ञान आधारित अर्थव्यवस्था की मुख्य धारा में कार्य करते हैं। सूचना प्रौद्योगिकी युग में ज्ञान आधारित अर्थव्यवस्थाओं की उन्नति तीव्र गति से हुई है किंतु भारत ज्ञान-विज्ञान पर आधारित प्रगति के इस युग में पिछड़ गया है। इसका मुख्य कारण यह है कि भारत की शिक्षण व्यवस्था मौलिक ज्ञान के उत्पादन की अपेक्षा डिग्री धारकों का उत्पादन अधिक कर रही है।
यह भी कहा जा सकता है कि भारत ने ज्ञान को अकादमिक डिग्रियों में बाँध दिया है। कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय की इतिहासकार मारग्रेट जैकब लिखती हैं कि यूरोप में औद्योगिक क्रांति आने से पूर्व वहाँ तकनीकी ज्ञान आधारित अर्थव्यवस्था विकसित हुई जिसने पुस्तकों, व्याख्यानों और शिक्षा के माध्यम से समाज पर गहरा प्रभाव डाला जिसके कारण औद्योगिक क्रांति सम्भव हुई।
भारत को भी ज्ञान आधारित अर्थव्यवस्था में समुचित निवेश करने की आवश्यकता है और कई स्तर पर रणनीतियाँ बनानी अनिवार्य हैं ताकि ज्ञान के क्षेत्र में मौलिकता का सृजन हो। भारत को एक सुदृढ़ ज्ञान आधारित व्यवस्था बनाने के लिए स्कूल और विश्वविद्यालय स्तर पर भिन्न रणनीतियाँ अपनाने की आवश्यकता है।
ध्यान देने वाली बात यह है कि कक्षा बारह तक के विद्यालय ज्ञान के उत्पादक नहीं होते जबकि विश्वविद्यालय और उच्च शोध संस्थान मौलिक ज्ञान के उत्पादन हेतु ही बने हैं। भारत की ज्ञान आधारित अर्थव्यवस्था को पुष्ट करने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार ने स्कूल से लेकर विश्वविद्यालय तक ऐसे अनेक प्रयास किये हैं जिन्हें परिवर्तित होते भारत अथवा ‘न्यू इंडिया’ की आधारशिला के रूप में देखा जा सकता है।
बाजार में जब कोई वस्तु क्रय-विक्रय हेतु उपलब्ध होती है तो उसके बिकने की संभावना कई कारकों पर निर्भर होती है जिसमें गुणवत्ता, मार्केटिंग, स्टोरेज, ट्रांसपोर्ट व्यवस्था इत्यादि महत्वपूर्ण हैं। भारत के बारे में सामान्य धारणा रही है कि यहाँ उत्पन्न होने वाले ज्ञान में मौलिकता और गुणवत्ता की भारी कमी है। ज्ञान की गुणवत्ता इस पर निर्भर करती है कि उसे उत्पन्न करने वाला कितना प्रतिभाशाली है।
भारत की विडम्बना यह भी रही है कि ज्ञान के क्षेत्र में प्रतिभाशाली युवाओं को प्राइवेट कम्पनियाँ ऊँचा पैकेज देकर अपने यहाँ नौकरी देती रही हैं। मोदी सरकार ने सन 2012-13 से चल रही प्राइम मिनिस्टर रिसर्च फेलोशिप के अंतर्गत पीएचडी अनुदान राशि में वर्ष 2018 से डेढ़ गुना वृद्धि की है। नए नियमों के अनुसार किसी भी विश्वविद्यालय में विज्ञान अथवा अभियान्त्रिकी पढ़ रहे स्नातक/स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के छात्र इस फेलोशिप के लिए आवेदन कर सकते हैं।
चयन प्रक्रिया में उत्तीर्ण होने के बाद पीएचडी में प्रवेश पाने वाले अध्येताओं को बिना कोई अतिरिक्त परीक्षा दिए भारतीय विज्ञान संस्थान तथा भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों में पीएचडी करने के लिए पांच वर्षों तक सत्तर से अस्सी हजार रुपये प्रतिमाह दिए जाएंगे। यह योजना अपनी कई खामियों के बावजूद कुछ ऐसे प्रतिभाशाली युवाओं को विदेश जाने से रोक लेगी जो हार्वर्ड, कैंब्रिज, एमआईटी समेत Ivy League विश्वविद्यालयों से पीएचडी करने और विदेश में ही बस जाने का सपना पालते हैं।
प्रायः किसी भी नेता या उच्च पद पर आसीन व्यक्ति से भारत में ज्ञान-विज्ञान की स्थिति के बारे में पूछा जाता है तो वह यही कहता है कि हमें ‘रिसर्च एंड डेवलपमेंट’ में निवेश करना चाहिए। परन्तु प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का दृष्टिकोण अधिक व्यापक है। प्रधानमंत्री ने 105वीं भारतीय विज्ञान कॉन्ग्रेस में कहा कि हमें ‘रिसर्च फॉर डेवलपमेंट’ अर्थात् विकास के लिए शोध पर बल देना होगा।
इसके लिए शोध संस्थानों को स्वावलंबी बनाना होगा ताकि वे सरकारी अनुदान के भरोसे न रहें। सरकार ने इस दिशा में CSIR को स्वावलंबी बनाने के लिए 2015 में यह निर्देश दिए कि पचास प्रतिशत निवेश वह बाहर से अर्जित करे। इस प्रकार शोध के लिए चार वर्षों में CSIR ने 1908 करोड़ रूपये बाह्य स्रोतों से अर्जित किये जिसमें 2015-18 में होने वाली वृद्धि उल्लेखनीय है।
ज्ञान के उत्पादन के साथ ही उचित दाम पर उसकी उपलब्धता सुनिश्चित होना अत्यावश्यक है। मोदी सरकार के आने से पूर्व भाभा एटॉमिक रिसर्च सेंटर जैसे बड़े शोध संस्थान अपने यहाँ उत्पन्न होने वाली नवीन तकनीकों की जानकारी उद्योग जगत को नहीं देते थे जिसके कारण बड़ी परियोजनाओं के बाई-प्रोडक्ट के रूप में बनने वाली छोटी तकनीक या मशीनें जो विश्वविद्यालयों में लैब उपकरण के रूप में प्रयोग की जा सकती थीं उन्हें हमें करोड़ों रूपये खर्च कर विदेश से मंगाना पड़ता था।
अब प्रत्येक उच्च शोध संस्थान की वेबसाइट पर ‘टेक्नोलॉजी ट्रांसफर’ के नियम लिख दिए गए हैं जिससे लैब उपकरणों का निर्माण करने और बेचने वाली कम्पनियाँ सीधा शोध संस्थान से सम्पर्क कर सस्ते दाम में वह तकनीक खरीद सकती हैं तथा अपने यहाँ उसका उत्पादन कर सकती हैं। इस प्रकार हमारे विश्वविद्यालय उन मशीनों और तकनीकों को कम्पनियों से सस्ते दाम पर खरीदकर पीएचडी छात्रों को सरलता से वैज्ञानिक प्रयोग करवा सकते हैं। यही नहीं प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाली Science Technology and Innovation Advisory Council (PM-STIAC) यह चाहती है कि शोध को बढ़ावा देने के लिए प्राइवेट कम्पनियाँ अपने यहाँ अलग से फंडिंग की व्यवस्था करें।
यह तो विश्वविद्यालय की बात हुई। विद्यालयों की बात की जाये तो वहाँ ज्ञान को इस प्रकार परोसने की आवश्यकता है कि विद्यार्थी सहज भाव से न केवल ग्रहण करे अपितु उस ज्ञान से उसे आगे कुछ करने की भी प्रेरणा मिले। इसीलिए प्रायः यह कहा जाता है कि स्कूलों में विज्ञान की पढ़ाई रोचक विधि से होनी चाहिए।
अमरीका के स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय के शोधकर्ता डॉ मनु प्रकाश ने मोड़ कर जेब में रख सकने लायक एक माइक्रोस्कोप का अविष्कार किया और उसे ‘फोल्डस्कोप’ नाम दिया। यह स्कूल के बच्चों के लिए अत्यंत उपयोगी और सस्ता उपकरण है जिससे वे जब चाहें किसी भी ‘माइक्रोस्कोपिक’ वस्तु को देख सकते हैं।
भारत के जैवप्रौद्योगिकी विभाग के सचिव के विजयराघवन ने मनु प्रकाश से ट्विटर पर संवाद स्थापित किया और फोल्डस्कोप को भारत में लाने की सम्भावनाओं पर उत्तर माँगा। इस पर ‘प्रकाश लैब’ ने त्वरित प्रतिक्रिया दी तत्पश्चात प्रधानमंत्री कार्यालय से स्काइप पर संवाद हुआ। सारी औपचारिकताएँ निभाने के पश्चात प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी एक अयोजन में स्वयं मनु प्रकाश से मिले और DBT तथा भारत सरकार के मध्य फोल्डस्कोप किट को बेहद सस्ते दाम पर भारत के विद्यार्थियों के लिए उपलब्ध करवाने पर आधिकारिक रूप से ‘Letter of Intent’ का हस्तांतरण हुआ।
विज्ञान की शिक्षा में इस स्तर तक रुचि लेने वाला प्रधानमंत्री भारत में कभी नहीं हुआ था। जैवप्रौद्योगिकी विभाग के सचिव के विजयराघवन को प्रधानमंत्री ने भारत सरकार का नया प्रधान वैज्ञानिक सलाहकार नियुक्त किया है। स्कूलों में वैज्ञानिक शोध के प्रति रुचि जगाने के लिए भारत सरकार ने समग्र शिक्षा अभियान के अंतर्गत ‘राष्ट्रीय अविष्कार अभियान’ प्रारंभ किया है। इस अभियान के अंतर्गत बड़े शोध संस्थान जैसे होमी भाभा सेंटर फॉर साइंस एजुकेशन, भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, IISER आदि अपने जिलों के आसपास स्थित स्कूलों को पाँच वर्षों तक ‘मेंटर’ करेंगे।
राष्ट्रीय अविष्कार अभियान के अंतर्गत मोदी सरकार ने ‘विज्ञान आधारित शिक्षा’, ‘शिक्षा की वैज्ञानिक पद्धति’ और ‘विज्ञान की शिक्षा’ इन तीन बिन्दुओं में परस्पर अंतर्विरोध समाप्त करने और रचनात्मक सामंजस्य बनाने हेतु अनेक उल्लेखनीय पहल की है। सम्पूर्ण विवरण वेबसाइट पर प्राप्त किया जा सकता है। विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी में नवोन्मेष को बढ़ावा देने के लिए एक पृथक और अनूठी योजना है ‘अटल इनोवेशन मिशन’। अटल इनोवेशन मिशन के अंतर्गत भारत सरकार कक्षा 6 से 12 तक के स्कूलों में ‘अटल टिंकरिंग लैब’ (Atal Tinkering Labs) स्थापित करने के लिए बीस लाख तक की राशि प्रदान करेगी।
इन प्रयोगशालाओं में रोबोटिक्स तथा ‘इंटरनेट ऑफ़ थिंग्स’ जैसी नवीनतम तकनीक प्रयोग के माध्यम से सिखाई जाएगी। 2018 तक पाँच हजार स्कूलों में अटल टिंकरिंग लैब स्थापित करने का लक्ष्य रखा गया था जिसमें से लगभग ढाई हजार स्कूल अपने यहाँ ATL बना चुके हैं। अटल इनोवेशन मिशन केवल स्कूलों तक ही सीमित नहीं है, इसमें छोटे मध्यम तथा लघु उद्योगों से लेकर स्टार्टअप कम्पनियों को भी नवोन्मेष के लिए प्रोत्साहित करने की योजनायें हैं। समग्र शिक्षा अभियान के अंतर्गत सरकारी एवं अनुदान प्राप्त स्कूलों में पुस्तकालय बनाना अनिवार्य कर दिया गया है।
विद्यालयों में पुस्तकालय बनाने के लिए सरकार प्रतिवर्ष पाँच से बीस हजार रूपये अनुदान देगी। पुस्तकालय की महत्ता को समझाते हुए ड्यूक विश्वविद्यालय में प्रोफेसर अनिरुद्ध कृष्णा ने अपनी पुस्तक The Broken Ladder में लिखा है कि छोटे नगरों तथा गाँवों में आज सूचनाओं का एक नेटवर्क बनाने की आवश्यकता है।
यह नेटवर्क गाँव के बच्चों को करियर प्लानिंग से लेकर रोजगार के अवसर प्राप्त करने की दिशा में महत्वपूर्ण सिद्ध हो सकते हैं। उदाहरण के लिए दूरदराज स्थित गाँव के किसी बच्चे ने यदि हाई स्कूल तक हवाई जहाज के बारे में सुना ही न हो तो वह इंटर में विज्ञान लेकर पढ़ने और पायलट बनने के सपने कैसे देख सकता है?
पुस्तकालय अपने आप में सूचनाओं तथा ज्ञान के गोदाम के रूप में कार्य करते हैं। लोकतंत्र में अधिकारों की एक परिभाषा ‘सूचना’ के रूप में भी की जाती है। जब पुस्तकों के रूप में ज्ञान गाँव-गाँव पहुँचेगा तब विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र सशक्त होगा। विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्रालय ने विज्ञान के क्षेत्र में होने वाली नवीनतम खोज की सूचना को साधारण नागरिक तक पहुँचाने के लिए एक अनूठी योजना प्रारंभ की है- Augmented Writing Skills for Articulating Research (AWSAR)– इस योजना के अंतर्गत देश में विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में पीएचडी कर रहे 100 शोधकर्ताओं को विज्ञान को लोकप्रिय बना कर प्रस्तुत करने के लिए पुरस्कृत किया जायेगा।
भारत सरकार प्रतिवर्ष सौ ऐसे शोधार्थियों को पुरस्कृत करेगी जो पत्रिकाओं, समाचार पत्रों अथवा ब्लॉग इत्यादि में विज्ञान आधारित लेख लिखते हैं। प्रथम पुरस्कार में एक लाख रुपये, द्वितीय श्रेणी में पचास हजार, तृतीय पुरस्कार में पचीस हजार रुपये तथा सांत्वना पुरस्कार के रूप में दस हजार रुपये दिए जायेंगे।
इसके अतिरिक्त पोस्ट डॉक्टोरल फेलो भी लोकप्रिय विज्ञान के अपने लेख भेज सकते हैं। उनके लिए पुरस्कार राशि दस हजार रुपये है। अवसर (AWSAR) कहलाने वाली यह पहल प्रथम दृष्ट्या कुछ विशेष नहीं लगती। सरकारें ऐसे पुरस्कार देती रहती हैं। किंतु भारत में लोकप्रिय विज्ञान और विज्ञान संचार के मार्केट पर दृष्टि डाली जाये तो पता चलता है कि यह भी विज्ञान का एक महत्वपूर्ण क्षेत्र है और अमरीका आदि देश इसमें हमसे बहुत आगे हैं।
कार्ल सैगन, आर्थर क्लार्क जैसे विज्ञान लेखक और अ ब्रीफ हिस्ट्री ऑफ़ टाइम जैसी कालजयी पुस्तकें पढ़कर ही हमारी पीढ़ी ने विज्ञान की सीमाओं को समझा था। तब हम यही पूछते थे कि भारत में ऐसी पुस्तकें क्यों नहीं लिखी जातीं जो हमें प्रेरित कर सकें। वास्तव में भारत लोकप्रिय विज्ञान का एक उभरता हुआ बाजार है इसमें पीएचडी कर रहे शोधार्थियों को प्रोत्साहित करने से अच्छा और कुछ नहीं हो सकता।
इन सभी योजनाओं के अतिरिक्त अनेक योजनायें ऐसी चल रही हैं जो शिक्षकों की गुणवत्ता सुधारने का कार्य कर रही हैं। डायरेक्ट टू होम चैनल सैटेलाईट के माध्यम से अकादमिक विषयों की जानकारी देने वाली ‘स्वयंप्रभा’ के अतिरिक्त ‘शालासिद्धि’, ‘विद्यांजलि’ और Institute of Eminence जैसी अनेक योजनायें आने वाले वर्षों में भारत को एक सशक्त ज्ञान आधारित अर्थव्यवस्था बनाने का कार्य करेंगी।