प्रेम और आकर्षण दो ऐसे शब्द हैं जिनके बीच फर्क़ की रेखा धागे जितनी महीन होती है। हर लड़की के जीवन में वो उम्र आती है जब वो इन दोनों को एक जैसा समझती है और अपनी दबी इच्छाओं को प्रेम का नाम देकर किसी की ओर आकर्षित होती है। मेरे ख्याल से ये उम्र लगभग 13-14 के बाद शुरू हो जाती है और 18-19 तक तो रहती ही है। इस दौरान शरीर के बहुत सारे हॉर्मोन्स में उठा-पटक हो रही होती है। कभी लड़की किसी लड़के को पसंद करती है तो कभी लड़का या कोई अधेड़ उम्र का आदमी उसे मजबूर कर देता है कि वो उसे पसंद करे। यहाँ प्रेम की परिभाषाएँ आकर्षण के धरातल पर तय हो रही होती हैं, वास्तविक प्रेम का इन सबसे कोई सरोकार नहीं होता।
कहते हैं किसी चीज को धीरे-धीरे ग्रहण करने में उसके हर गुण और तत्व महसूस होते हैं ताकि हम समझ पाएँ कि हमें क्या पसंद आया और क्या नहीं… अब फिर चाहे वो कोई खाद्य वस्तु है या फिर युवावस्था। 14-16 की उम्र वो पड़ाव होती है, जब एक लड़की बाल अवस्था को पीछे छोड़ कर युवावस्था में कदम रख रही होती है। ऐसे में ’16 बरस की बाली उमर को सलाम’ जैसे गाने उसे पहले ही बता देते हैं कि अब आकर्षण से भरे प्रेम करने की उम्र हो चुकी है। कोई नज़र भर देख ले तो लड़की को उसमें प्यार की लौ धधकती दिखाई देती है। नतीजतन अपनी शिक्षा, करियर सब कुछ वो लड़की उस इंसान को समर्पित कर देती है जिसके स्पर्श से पहली बार उन्हें अपनी युवा हो जाने की अनुभूति हुई हो। हॉर्मोन्स की लड़ाई को इस दौरान लड़कियाँ प्रेम का स्पर्श कहती हैं।
पाश्चात्य संस्कृति पर न बात करते हुए मैं अपने समाज पर बात करना ज्यादा पसंद करूँगी। अभी हाल ही में मद्रास हाई कोर्ट ने मानवाधिकारों के संरक्षण के मद्देनज़र एक सलाह दी कि 16 साल की आयु के बाद आपसी सहमति से बनाए गए यौन संबंधों को बाल यौन अपराध संरक्षण (पॉक्सो) कानून के दायरे से बाहर किया जाना चाहिए। मद्रास हाईकोर्ट ने ‘आज’ के संदर्भ में ऐसा सुझाव तो दे दिया… हो सकता है इस सुझाव पर अभी विचार-विमर्श हो, तर्क-कुतर्क हों और फिर एक फैसला आए। लेकिन क्या इसके दूरगामी परिणामों की कल्पना की गई?
हम उस समाज में रहते हैं जहाँ अंग्रेजी फिल्मों के प्रभाव ने फ्रेंच किस करने की झिझक को खत्म कर दिया है। और इस बात को विकल्प में लाकर खड़ा कर दिया है कि 16 की उम्र में लड़की का आपसी सहमति से सेक्स करना पॉक्सो कानून के दायर से बाहर हो जाना चाहिए। मैंने पहले ही कहा कि ‘आकर्षण’ की भावनाएँ मेरे मुताबिक 14 की उम्र में प्रबल होने लगती हैं। ये मैंने खुद अपने आस-पास महसूस किया है कि जिस उम्र में लड़की को बोर्ड की परिक्षाओं की तैयारी करनी होती है उस उम्र में लड़की अपने शरीर के अंगों के बारे में किसी ऐसे इंसान से डिस्कस कर रही होती है, जिसे उसमें सिर्फ़ छाती और योनि के सिवा कुछ नज़र नहीं आता।
सही और गलत में फर्क़ समझने की उम्र में लड़की अपना जीवन उस व्यक्ति को सौंप देने की सोच लेती है, जिसे कई बार खुद नहीं मालूम होता कि वो न केवल किसी के भविष्य से ख़िलवाड़ कर रहा है बल्कि उसकी मनःस्थिति को भी कमजोर कर रहा है। मद्रास हाईकोर्ट के सुझाव से मुझे कोई आपत्ति नहीं है। आधुनिक दौर है, सब आधुनिकता के हिसाब से होना चाहिए लेकिन ये भी न भूला जाए कि हमारी पृष्ठभूमि क्या है! क्या हम ऐसे आधुनिक फैसलों को स्वीकारने के लिए तैयार हैं? क्या हम समझते हैं कि 16 की उम्र में कानूनी संरक्षण पाने के बाद एक लड़की के भीतर की भावनाओं को समझा जाएगा या लड़की खुद सही और गलत समझने में सक्षम होगी? या ऐसी शिक्षा-व्यवस्था और माहौल है देश में, जहाँ 16 साल की लड़की इतनी परिपक्व हो जाए कि जिंदगी से जुड़े फैसले ले सके?
हमारे सामने आज अनेकों उदाहरण हैं जिन पर अफसोस करने से ज्यादा लड़कियों को सीखना चाहिए कि आकर्षण की उम्र में और प्रेम की उम्र में फर्क़ होता है। जो लड़कियाँ बहकावे में आकर शिक्षा-करियर को दरकिनार कर देती हैं, उन्हें देखकर क्या वाकई लगता है कि उन्होंने समझदारी में कदम उठाया है। जिन्हें 14-16 की उम्र में माँ-बाप बिना किसी कारण दुश्मन लगने लगें… क्या वाकई उनसे उम्मीद की जा सकती है कि वो प्रेम की परिभाषा को समझने लगी हैं? ‘नाबालिग प्रेम’ में किया चुनाव कितना सही कितना गलत होता है, यह उन खबरों से जानने की जरूरत है, जहाँ भागी हुई नाबालिग लड़कियाँ वापस घर लौटने या किसी ‘गंदी’ जगह पर रहने को मजबूर होती हैं।
मद्रास हाइकोर्ट का सुझाव एक ‘निश्चित’ पक्ष के लिए तो सही हो सकता है लेकिन यदि इसे व्यवहारिक तौर पर देखा जाए तो इसके क्या परिणाम हैं आप सिर्फ़ कल्पना करिए… उस समाज में जहाँ लड़की की शिक्षा को लेकर जद्दोजहद चल रही हो, जहाँ घर-घर जाकर लड़की और उसके माँ-बाप को समझाना पड़े कि उसे पढ़ाइए, सशक्त बनाइए, बाल विवाह मत करिए! वहाँ 16 की उम्र में आपसी सहमति से सेक्स को पोस्को एक्ट से हटाना क्या उन लोगों को बढ़ावा देना नहीं है, जो आज कानून के डर से ही सही लेकिन लड़की की शादी के लिए 18 साल तक का इंतजार करते हैं। ये विरोधाभास से भरी स्थिति है कि एक ओर हम बाल विवाह के खिलाफ लड़ाई लड़ रहे हैं कि बच्चों का बचपन न खोए और दूसरी ओर हम इन बातों पर सुझाव पेश कर रहे हैं।
कानून में संशोधन का सुझाव देते हुए हाई कोर्ट के न्यायाधीश ने कहा, “16 साल की उम्र के बाद आपसी सहमति से बनाए गए यौन संबंधों या शारीरिक संपर्कों या इससे जुड़े कृत्यों को पॉक्सो कानून के कठोर प्रावधानों से बाहर किया जा सकता है। और इस तरह के यौन शोषण की सुनवाई ज्यादा उदार प्रावधान के तहत हो सकती है, जिन्हें कानून में शामिल किया जा सकता है।”
अपने देश में ऐसे ‘उदार प्रावधान’ के बारे में सोचिए। उस देश में जहाँ भटके नौजवानों को सही दिशा में लाने के लिए तरह-तरह के अभियान सरकार द्वारा चलाए जा रहे हैं। तंबाकू पर चेतावनी लिखे होने के बाद भी लोग धड़ल्ले से सेवन कर रहे हैं। ऐसे में इस तरह के संशोधन के बाद कुछ ओछी मानसिकता वाले लोगों पर क्या फर्क़ पड़ेगा! अभी तक कानूनी डर से ही सही, लड़की को 18 की उम्र के बाद ‘शादी मटेरियल’ समझने वाले लोग 16 की उम्र में बहलाना शुरू नहीं करेंगे? और क्या इसका प्रभाव ‘लड़की’ की मानसिकता और शिक्षा पर नहीं पड़ेगा?
मैं ये नहीं कहती कि सेक्स बहुत बुरी चीज है, इसके कारण लड़कियों का भविष्य बर्बाद हो रहा है, लेकिन ये जरूर कह रही हूँ कि जिस उम्र में सेक्स को लीगल करने की बात हो रही है, हमारा समाज उसके लिए तैयार नहीं है और न ही उसके लिए 16 के उम्र की लड़कियाँ तैयार हैं। कानून के तहत कहिए या समाज के तहत, मुझे लगता है कि लड़की को 16 की उम्र में सेक्स के लिए कानूनी छूट देने से ज्यादा उसे परिपक्व बनाने पर गौर करना चाहिए।
अपने आस-पास की लड़कियों को देखिएगा और गौर करिएगा कि उनको किस चीज़ से अधिक फायदा पहुँचेगा। 16 की उम्र में सेक्स करने के अधिकार से या शिक्षा-करियर-समाज के प्रति जागरूक करके। समाज की दबी आवाज़ें अगर शिक्षा के लिए उठें तो निःसंदेह ही बदलाव आता है। मैं मानती हूँ कि लड़की की उम्र 18 से कम होने के कारण कोर्ट में बहुत से ऐसे केस चल रहे हैं, जिसमें आपसी-सहमति से बने संबंधों को भी अपराध बताया जाता है, लेकिन इसका विकल्प ये नहीं है कि आप उम्र को घटाकर 16 कर दें… हाई कोर्ट ने इस मामले पर अपना सुझाव दिया है… आप भी सोच-समझकर इस पर अपना अपना पक्ष रखिए।