लोकतंत्र की सफलता का शर्त लोकप्रिय संप्रभुता भी है। सरल शब्दों में कहें तो आम जनता ही सर्वोपरि है। अब्राहम लिंकन ने इसकी ही व्याख्या ‘जनता का, जनता द्वारा, जनता के लिए शासन’ के तौर पर की है। पर इसका मतलब यह नहीं होता कि धनाढ्य वर्ग ही सभी करों का भुगतान करे या आम जनता कानूनों का बोझ ढोए।
ऐतिहासिक रूप से देखें तो लोकतांत्रिक संघर्षों ने ‘सुधार’ और ‘क्रांति’ दोनों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक प्रगति के जुड़वाँ हथियारों के रूप में इस्तेमाल किया है। लोकतांत्रिक सरकारें जनता की जरूरतों, इच्छाओं, हितों और आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व नहीं कर रही हैं। चुनाव सिर्फ सत्ता के लिए वोट बैंक की लड़ाई मात्र बनकर रह गए हैं, जहाँ चुनाव एक डाटा बेस की गणित की पहेली के समान है।
सरकारें वैश्विक, क्षेत्रीय और राष्ट्रीय पूँजीपति वर्गों के पीछे खड़ी हैं और उनके हितों को कायम रख रही हैं। जनता अलगाव से पीड़ित है। यह एक वैश्विक प्रवृत्ति है। यह किसी विशेष क्षेत्र और जनसंख्या तक ही सीमित नहीं है। मानव जीवन के अस्तित्व, नागरिक अधिकार, गरिमा और दुनिया में शांति की खातिर इस वैश्विक प्रवृत्ति को आगे बढ़ने से रोकने की जरूरत है।
इसके लिए स्थानीय कार्यों एवं क्षेत्रीय एकजुटता पर आधारित एक अंतरराष्ट्रीय दृष्टिकोण की जरूरत है, जिसमें लोगों की जरूरतों के आधार पर क्षेत्रीय आवश्यकताओं को स्वीकार करने की क्षमता हो। हालाँकि, विपक्षी दल कुछ विशिष्ट सामाजिक समूहों तक सीमित प्रतिनिधित्व में अटके रह गए हैं और अपने दायरे को और फैलाने में असमर्थ रहे हैं।
बुरी खबर यह है कि भारत के विपक्ष के पास अभी भी कोई चेहरा नहीं है, जबकि अच्छी खबर यह है कि इसका हल निकालने के लिए उसके पास अभी भी कुछ महीनों का समय है। विपक्ष का समकालीन संकट मुख्य रूप से राजनीतिक दलों में भरोसे की कमी और नेतृत्व के अभाव को दिखाता है। पिछले कुछ वर्षों में विपक्ष की एक प्रमुख विफलता यह रही है कि वह एक राजनीतिक एजेंडा निर्धारित करने में विफल रहा है।
इतिहास सफल और असफल दोनों लोकतांत्रिक आंदोलनों के उदाहरणों से भरा पड़ा है। ध्यान भटकाने वाली रणनीति शासक वर्गों की विफलता को छिपाने और उनकी विफलता को देश, सरकार और लोकतंत्र की विफलता के रूप में प्रचारित करने में मदद करती है। कमजोर देश और आज्ञाकारी सरकारें पूँजी के विस्तार के लिए उपयोगी हैं।
इतना ही नहीं, निष्क्रिय लोकतांत्रिक व्यवस्था के तहत मजबूत देश और शक्तिशाली सरकारें भी पूँजी के विस्तार के लिए उतनी ही उपयोगी हैं। भ्रामक युक्तियों का उपयोग दुनिया के विभिन्न हिस्सों में अपंग लोकतंत्र को केवल प्रतिक्रियावादी राजनीति और पूंजीवादी शोषण को छिपाने के पोस्टर के रूप में इस्तेमाल करने के लिए किया गया है।
लोकतंत्र सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक परिवर्तन का एक उपकरण है। लोकतांत्रिक घाटा या लोकतंत्र का संकट प्रगतिशील भविष्य की दिशा में परिवर्तन में देरी करता है। अप्रभावी विपक्ष या विपक्ष की अनुपस्थिति लोकतांत्रिक व्यवहार को कमजोर करती है। जातिवाद की राजनीति किसी धर्म की राजनीति का रूप न बन जाए इसके लिए राजनीतिक पार्टियों को सचेत रहना होगा।
किसी भी देश की प्रगति उसके आर्थिक भविष्य पर ही निर्भर करती है और इसे सार्थक करने का मार्ग सभी प्रकार की विचारधाराओं को साथ लेकर चलने से ही हासिल होगा। लोकतंत्र कोई ऐसी चीज़ नहीं है, जो केवल चुनाव के समय घटित होती है और ना ही यह ऐसी चीज़ नहीं है, जो केवल एक घटना के साथ घटित होती है। यह एक सतत निर्माण प्रक्रिया है।