Friday, November 15, 2024
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सुशांत-दिशा सालियान पर जो रहे चुप, वे बाबा सिद्दीकी पर बेचैन क्यों… जिस हत्या पर मची राजनीतिक रार, उसकी विद्रूप सच्चाइयों को एक नेता ने ही खोला

भारत के भीतर ही यह मुंबई अलग क्यों दिखता है? मुंबई दिशा सालियान, सुशांत सिंह राजपूत और बाबा सिद्दीकी में फर्क क्यों महसूस करता है? इसी सवाल की तह में छुपा है कि यह मुंबई इतना खतरनाक क्यों है?

भारत का भगोड़ा दाऊद इब्राहिम कब का मुंबई से भागकर पाकिस्तान चला गया, लेकिन उसकी दुम के बाल जगह-जगह सफेदपोश बनकर तो कहीं कारोबारी या ड्रग-हवाला-माफिया-अंडरवर्ल्ड रैकेट के एजेंट और बॉलीवुड दुनिया के सितारे बनकर आज तक जीवंत हैं।दिलचस्प है कि मुंबई की महानगरीय एलीट या संभ्रांत समाज-संस्कृति ने इन सभी को बहुत अच्छे से अपने में समाहित कर प्रासंगिक बनाया है। ऊपर से इनको सेलिब्रिटी स्टेट्स भी बखूबी प्रदान किया है, जिनके पीछे देशभर के लोग दीवानगी करते नजर आते हैं। इन फिल्मी सेलिब्रिटीज के कपड़े-घर-गाड़ियों एवं रहन-सहन की चकाचौंध में इनके चाल-चरित्र-चेहरे के बड़े ही घटिया स्तर के ऐब भी छुप जाते हैं।

सुशांत सिंह राजपूत और दिशा सालियन की संदेहास्पद मृत्यु पर कितनी भी परदेदारी क्यों न की जाए, लेकिन सच तो मुंबई की इन चमकीली बदनाम गलियों में गोल-गोल घूम ही रहा है। इस मामले में पुलिस-प्रशासन या सीबीआई कानूनन सत्य को कभी साबित कर पाएगा, इस पर आम लोगों को गंभीर संदेह है। सब एक ही थाली के चट्टे-बट्टे हैं तो इन शातिर गिरोहों से कौन लड़ेगा? सहमति के सिद्धांत पर आधारित सब अपनी-अपनी दुकान चलाने के लिए जुगाड़ लगाने-भिड़ाने में लगे हैं।

भारत में बड़ी संख्या में खाॅंटी मुस्लिमपरस्त, राष्ट्रविरोधी एवं सत्य सनातन हिंदू विरोधी भी सफेदपोश राजनीतिक, व्यवसायी, बॉलीवुड स्टार बनकर एक अलग तरह का घेटो सिस्टम वाला कूप- मंडूक समाज खड़ा कर चुका है। यह जो दूर से दिखता जन्नत वाला समाज है वो नैतिकता के तकाजे पर नरक से कम नहीं है। बाहर से तो लोगों को उनका चमकीला स्वार्गिक सुख दिखाई देता है और लोग उनकी नकल उतारने में भी लगे रहते है। इस फिल्मी दुनिया में सब कुछ स्टेज मैनेज्ड सा लगता है या फिर ऐसा लगता है कि सब कुछ स्पॉन्सर्ड है या फिर प्री प्लांड पीआर (पब्लिक रिलेशन)-ब्रांडिंग-एडवर्टाइजमेंट का मकसद है।

बॉलीवुड में कुछ भी ऐसे ही नहीं होता और ना ही ये स्टार्स कुछ भी बिना मकसद के करते हैं। इनके लिए पीआर एजेंट या कंपनियाँ, यहाँ तक तय करती हैं कि किसी के मरने पर कौन स्टार कब जाएगा, नहीं जाएगा या फिर जाना चाहिए कि नहीं। यह सब कुछ सेलिब्रिटीज की छवि से जुड़े नफा-नुकसान पर आधारित पर पीआर स्टंट की तरह है। सुशांत सिंह राजपूत के मरने पर अस्पताल या शमशान कौन-कौन पहुँचा और फिर बाबा सिद्दीकी के मरने पर कौन-कौन पहुँचा, यह भी एक बड़ा सवाल है! इन सब के पीछे क्यों और किसलिए जोड़कर सवाल की गंभीर पड़ताल करने पर दिलचस्प तथ्य जरूर निकाल सकते हैं।

भारत देश की त्रासदी है कि आजादी के बाद देश के तमाम सामाजिक-राजनीतिक क्रांति करने वाले पुरोधाओं के ऊपर महात्मा गाँधी और जवाहरलाल नेहरू का चेहरा थोप दिया गया और उसके आगे-पीछे मौजूद तमाम पुरोधाओं और महानायकों को भुला दिया गया। आज भारत में बहुत देर से ही सही महात्मा फुले, सावित्रीबाई फुले, छत्रपति शाहूजी महाराज, बाबा साहब भीमराव अंबेडकर, कर्पूरी ठाकुर, बीपी मंडल की प्रासंगिकता स्थापित हो सकी है तो यह गैर- कॉन्ग्रेसी सामाजिक और राजनीतिक आंदोलन की देन है।

दिलचस्प है कि आजादी के लगभग 60 सालों तक तो किसी भी दलित-आदिवासी-पिछड़ा नायकों को मान-सम्मान तक नहीं मिला और ना ही उनकी प्रासंगिकता स्थापित हो सकी थी। देश की आजादी के ऐसे महानायक जिनको दोहरी काला पानी की सजा दी गई थी, ऐसे वीर सावरकर जी को स्वतंत्रता सेनानी मानने से इनकार करने वालों की एक बड़ी जमात इस देश में 70 सालों तक राज करती रही थी। यह महज संयोग नहीं था, बल्कि गंभीर प्रयोग था जो भारत को आज के पाकिस्तान, बांग्लादेश या अफगानिस्तान जैसा बनाने की ओर अग्रसर था।

इसी बुनियाद पर सारे साहित्य, शैक्षणिक कोर्स करिकुलम या सिलेबस बनाए गए थे जिसका कोर्स करेक्शन अत्यंत ही जरूरी था। अब कालांतर में प्रधानमंत्री-राष्ट्रपति अथवा राजनीतिक दल अपनी पार्टियों के नेताओं को स्वयंभू भारत रत्न घोषित करने की परंपरा बना चुके हों तो उस देश को उनके हकीकत के आदर्श पुरोधाओं से वंचित रखने की साजिश भी नजर आती है। आज भारत में एक ओबीसी-अति पिछड़ा समाज के व्यक्ति श्री नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद जिस तरह की प्रतिक्रियाएँ सामाजिक-राजनीतिक और खास धार्मिक समूह की ओर से व्यक्त की जाती है, इसका अध्ययन हमें कई बेहतर निष्कर्ष की ओर ले जा सकता है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी की राजनीतिक सफलताएँ साबित करती है कि राष्ट्रवाद और सामाजिक न्याय एक समानांतर चलने वाली वैचारिक धारा है जिसकी आवश्यकता भारत को है। अबतक समाजवाद, वामपंथ और कॉन्ग्रेस की राजनीति में जिस तरीके से धर्मनिरपेक्षता की राजनीति को अति-प्रमुखता देकर सामाजिक न्याय की धारा को कुंद करने का काम हुआ, वह दलित-आदिवासी-पिछड़ा समाज के लिए अफीम के नशे से कम नहीं है। पूरे भारतीय सबाल्टर्न समाज को 70 सालों तक छद्म धर्मनिरपेक्षता की घुट्टी पिलाकर सामाजिक न्याय की पूरी राजनीति को मुस्लिमपरस्ती, राष्ट्रविरोध और सत्य सनातन हिंदू विरोध की धारा पर स्थापित करने का काम किया गया है। अब भारत निश्चित तौर पर हर घटना-दुर्घटना और हर पल स्थापित प्रचलित धारणा पर नए तरीके एवं नई दृष्टि से विमर्श की जरूरत को महसूस करने लगा है।

मौत किसी की भी हो दुखद है। वैसे भारत देश में तो किसी अपराधी या आतंकवादी की फाँसी की सजा पर भी प्रोपेगेंडा विमर्श और गंभीर सवाल उठाए जाने की परंपरा रही है। फिर इस सवाल में पीड़ित-मृतक-आरोपी एवं अपराधी की जाति और धर्म भी उतना ही महत्वपूर्ण सवाल बनते रहे हैं। बाबा सिद्दीकी की मौत से जुड़े रहस्यों का पर्दाफाश जरूरी है ही, अपराधियों को सख्त से सख्त सजा भी मिलनी चाहिए। इस बात की पूरी उम्मीद है कि मुंबई और महाराष्ट्र पुलिस का वह रवैया निश्चित ही इस मामले में नहीं होगा जो सुशांत सिंह राजपूत और दिशा सालियान के मामले में था। लेकिन मुंबई की बदनाम गलियों में देर-सवेर यह भी घूमना शुरू हो जाएगा कि किसके पैसे कौन लगाता था? कौन ब्लैक को व्हाइट करता था? किसके हवाला कारोबार थे? और फिर किस सेलिब्रिटीज या सफेदपोशों के कितने पैसे डूबे। बाबा सिद्दीकी की मौत के बाद सामने आ रहे राजनीतिक-सामाजिक-सेलिब्रिटी लोगों की प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष प्रतिक्रियाओं और व्यक्तिगत तौर पर इनकी सक्रिय या बेचैन गतिविधियों में इस बात का जवाब ढूँढने की कोशिश की जा सकती है।

जीवन सबका महत्वपूर्ण है, लेकिन जीवन के प्रति हर व्यक्ति का नजरिया अलग हो सकता है। जो बाबा सिद्दीकी के मौत पर बेचैन हैं, वह निश्चित तौर पर सुशांत सिंह राजपूत की मौत पर बेचैन नहीं थे और दिशा सालियान की मौत पर तो वे मरघट जैसी चुप्पी साधे हुए थे। बुरा लग सकता है पर खुलकर कहना जरूरी है कि नाली में कीड़े भी तो बड़े मजे से जिंदगी जीते हैं और ये कीड़े मानव जीवन, समाज एवं राष्ट्र के लिए कितने खतरनाक है इसका अंदाजा हम लगा ही सकते हैं। इन कीड़ों को क्या हम अपने ड्राइंग रूम में एक्वेरियम के भीतर इस तरह रख सकते हैं जिस तरह छोटी रंगीन मछलियों को रखते हैं।

जाहिर है कि हर चमकने वाली चीज सोना-चाँदी या हीरा नहीं होती। हर जगह खुदाई करके सोना-चाँदी-हीरा नहीं निकाल सकते और इसकी असली पहचान बहुत हद तक खुदाई करने वाले से ज्यादा जौहरी पर भी निर्भर करता है। भारत का हर आम नागरिक देश-दुनिया में हो रही सभी घटना पर नजर रखे हुए है और पूरी तन्मयता से उसका विश्लेषण करने में जुटा है। सच सिर्फ वही नहीं होता जो कानून या पुलिस-प्रशासन साबित करता है, बल्कि सच वह भी है जो आम जनता जानती है जिसे कोर्ट में साबित नहीं किया जा सकता और कई बार कोर्ट सबूतों के अभाव में सच साबित भी नहीं कर पाती है।

सवाल है कि भारत का समाज 72 हूरों वाले जन्नत के फर्जी अवधारणा या ख्वाब के आधार पर चलेगा या फिर संविधान आधारित नीति-नैतिकता-सिद्धांत और सामाजिक-धार्मिक नैतिकता एवं मर्यादा के आधार पर चलेगा? भारत के भीतर ही यह मुंबई अलग क्यों दिखता है? मुंबई दिशा सालियान, सुशांत सिंह राजपूत और बाबा सिद्दीकी में फर्क क्यों महसूस करता है? इसी सवाल की तह में छुपा है कि यह मुंबई इतना खतरनाक क्यों है?

इस आलेख के लेखक डॉ० निखिल आनंद हैं। निखिल ने लगभग दो दशकों तक पत्रकारिता की है। वे बिहार भाजपा के प्रवक्ता रहे और वर्तमान में भाजपा ओबीसी मोर्चा के राष्ट्रीय महामंत्री हैं। ट्विटर/फेसबुक/ इंस्टाग्राम: @NikhilAnandBJP

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Nikhil Anand
Nikhil Anand
Dr. Nikhil Anand is the spokesperson of Bihar BJP. Earlier he had worked as a television journalist for 17 years. He holds M.Phil and Ph.D degrees and has studied at JNU and IIMC, New Delhi.

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