Thursday, December 12, 2024
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कश्मीर को बनाया विवाद का मुद्दा, पाकिस्तान से PoK भी नहीं लेना चाहते थे नेहरू: अमेरिकी दस्तावेजों से खुलासा, अब 370 की वापसी चाहता है यही गैंग

प्रधानमंत्री नेहरू पाकिस्तान के साथ सीमा विवाद सुलझाने के लिए यह स्वीकार करने को राजी थे कि जम्मू-कश्मीर का बड़ा हिस्सा पाकिस्तान को मिल जाए। इसका यह भी अर्थ है कि वह पाकिस्तान के अवैध कब्जे का विरोध नहीं करना चाहते थे, बल्कि उनके दिमाग में यह था कि किसी तरह समझौता हो जाए।

जम्मू कश्मीर की सूरत अनुच्छेद 370 हटने के बाद बदल गई है। एक ओर आतंकी हमलों में कमी आई है तो वहीं दूसरी तरफ युवाओं का आतंक के प्रति भी रुझान लगभग खत्म होने की ओर है। जम्मू कश्मीर की अर्थव्यवस्था भी तेजी से बढ़ रही है। हमेशा अशांत रहने वाली घाटी अब शांति के दौर में लौट रही है। साफ़ हो गया है कि यह अनुच्छेद 370 ही था जो विशेष दर्जे के नाम पर जम्मू कश्मीर को भारत से अलग करता था। लेकिन कॉन्ग्रेस ने अनुच्छेद 370 वापसी की वकालत करने वाली नेशनल कॉन्फ्रेंस के साथ सरकार में शामिल हैं। उसका स्टैंड भी साफ़ नहीं है।

जम्मू कश्मीर को लेकर कॉन्ग्रेस का रवैया आज से ही नहीं बल्कि आजादी के बाद से ही सही नहीं रहा है। इसी कड़ी में एक दस्तावेज से पता चला है कि देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू 1960 के दशक में पाक अधिकृत कश्मीर पर से भारत का दावा छोड़ना चाहते थे। वह पाकिस्तान से समझौता करने के लिए इन इलाकों पर से दावा छोड़ने के लिए तैयार थे और सीमा विवाद का निपटारा चाहते थे। उन्होंने अपनी यह इच्छा एक अमेरिकी राजनयिक से बताई थी।

PoK देने को राजी थे नेहरू

मार्च, 1961 में अमेरिका के राजनयिक और राष्ट्रपति जॉन ऍफ कैनेडी के करीबी W. अवेरेल हैरीमैन भारत की यात्रा पर आए थे। वह इस दौरान चीन और पाकिस्तान को लेकर भारत के रुख को जानना परखना चाहते थे। उन्होंने भारत यात्रा के दौरान प्रधानमंत्री नेहरू से मुलाक़ात की थी और उस दौरान पाकिस्तान के साथ सीमा विवाद और कश्मीर पर चर्चा भी की थी। हैरीमैन ने 23 मार्च, 2024 को नेहरू से मिले थे और इस बारे में उन्होंने अमेरिका राष्ट्रपति कैनेडी को एक टेलीग्राम भेजा था। यह टेलीग्राम अमेरिकी विदेश विभाग की वेबसाइट पर मौजूद है।

इस में हैरीमैन लिखते हैं, “उन्होंने (नेहरू ने) भारत-पाकिस्तान संबंधों पर विस्तार से बात करते हुए कहा कि कश्मीर बुनियादी दोनों के बीच विभाजन का कारण है। उन्होंने पाकिस्तानी राजनेताओं पर इस मुद्दे को लगातार उछालते रहने का आरोप लगाया और कहा कि वह वर्तमान की ही स्थिति के अनुसार सीमाओं पर समझौता करने के लिए तैयार हैं।”

नेहरू कश्मीर
नेहरू और हैरीमैन के बीच की बातचीत

यानी हैरीमैन के अनुसार, नेहरू 1961 की स्थिति को स्वीकार करने को राजी थे। ध्यान देने वाली बात है कि 1961 में कश्मीर और गिलगित-बाल्टिस्तान के बड़े हिस्से पर पाकिस्तान कब्जा कर चुका था। यानी प्रधानमंत्री नेहरू पाकिस्तान के साथ सीमा विवाद सुलझाने के लिए यह स्वीकार करने को राजी थे कि जम्मू-कश्मीर का बड़ा हिस्सा पाकिस्तान को मिल जाए। इसका यह भी अर्थ है कि वह पाकिस्तान के अवैध कब्जे का विरोध नहीं करना चाहते थे, बल्कि उनके दिमाग में यह था कि किसी तरह समझौता हो जाए।

W. अवेरेल हैरीमेन (फोटो साभार: Words of veterans)

जवाहरलाल नेहरू PoK पर दावा क्यों छोड़ना चाहते थे, यह कश्मीर पर उनके द्वारा उठाए गए पूर्व के क़दमों से समझा भी जा सकता है। अब यह बात सर्वविदित है कि नेहरू की वजह से ही कश्मीर और भारत के विलय में देरी हुई और इस बीच पाकिस्तान की फ़ौज को हमले का समय मिला। इसके अलावा इस मसले को संयुक्त राष्ट्र (UN) ले जाना भी एक भूल मानी जाती रही है।

कश्मीर पर समझौते में देरी

जवाहरलाल नेहरू को लेकर केन्द्रीय मंत्री किरेन रिजीजू ने सरकारी रिकॉर्ड दिखाते हुए बताया था कि कैसे उन्होंने इसमें देरी की। उन्होंने अपने एक ट्वीट में लिखा है, “यह ‘ऐतिहासिक झूठ’ कि महाराजा हरि सिंह ने कश्मीर के भारत में विलय के प्रस्ताव को टाल दिया था, जवाहरलाल नेहरू की संदिग्ध भूमिका को छिपाने के लिए बहुत लंबे समय तक चला है। जयराम रमेश के झूठ का पर्दाफाश करने के लिए मैं खुद नेहरू को उद्धृत करता हूँ।”

उन्होंने बताया, “24 जुलाई 1952 को (शेख अब्दुल्ला के साथ समझौते के बाद) नेहरू लोकसभा में यह बात बताई है। आजादी से एक महीने पहले पहली बार महाराजा हरि सिंह ने भारत में विलय के लिए नेहरू से संपर्क किया था। यह नेहरू थे, जिन्होंने महाराजा को फटकार लगाई थी… यहाँ नेहरू के अपने शब्दों में कहा गया है कि ये महाराजा हरि सिंह नहीं थे, जिन्होंने कश्मीर के भारत में विलय में देरी की, बल्कि ये स्वयं नेहरू थे। महाराजा ने अन्य सभी रियासतों की तरह जुलाई 1947 में ही संपर्क किया था। अन्य राज्यों के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया गया, लेकिन कश्मीर को भारत में शामिल करने के प्रस्ताव को खारिज कर दिया गया था।”

किरेन रिजीजू ने आगे लिखा, “नेहरू ने न केवल जुलाई 1947 में महाराजा हरि सिंह के विलय के अनुरोध को अस्वीकार कर दिया, बल्कि नेहरू ने अक्टूबर 1947 में भी टालमटोल किया। यह तब हुआ, जब पाकिस्तानी आक्रमणकारी श्रीनगर के एक किलोमीटर के दायरे में पहुँच गए थे। ये भी नेहरू के अपने शब्दों में है।”

यानी साफ़ होता है कि यदि नेहरू महाराज का ऑफर ना ठुकराते हुए कश्मीर को भारत में मिला लेते तो शायद पाकिस्तान हमला ना करता। यदि वह हमला करता भी तो यह भारत की जमीन पर हमला होता और भारतीय सेना जल्दी उनको जवाब दे पाती। शायद तब आज की स्थिति में कश्मीर में नहीं होता।

सीजफायर और UN में ले जाना भी थी भूल

गृह मंत्री अमित शाह ने भी नेहरू की कश्मीर पर दो भूल का जिक्र लोकसभा में किया था। उन्होंने दिसम्बर, 2023 में कहा, “दो बड़ी गलतियाँ जो पंडित जवाहर लाल नेहरू के प्रधानमंत्री काल में हुई। उनके लिए गए निर्णयों के कारण सालों तक कश्मीर में शांति नहीं हुई।

एक जब हमारी सेना जीत रही थी तब पंजाब के इलाके आते ही सीजफायर कर दिया गया और पाक अधिकृत कश्मीर का जन्म हुआ। अगर सीजफायर तीन दिन लेट हुआ होता तो POK भारत का हिस्सा होता। कश्मीर जीते बगैर सीजफायर कर लिया और दूसरा संयुक्त राष्ट्र के भीतर कश्मीर के मसले को ले जाने की बहुत बड़ी गलती की। शाह ने बताया कि शेख अब्दुल्ला को लिखे एक पत्र में नेहरू ने अपनी इन गलतियों को स्वीकार भी किया था।

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अर्पित त्रिपाठी
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