एक झूठ को 100 बार बोलकर सच करने का छल: JNU के कपटी कम्युनिस्टों की कहानी, भाग-3

इनसे निबटने के लिए कभी सोचा भी है, अकादमिक स्तर पर?

किसी झूठ को एक बार कहिए। आपकी पिटाई हो सकती है, निंदा तो होगी ही। उसी झूठ को 10 बार कहिए। आपकी निंदा तो होगी, लेकिन कुछ लोग होंगे जो आपके झूठ को सच मानने लगेंगे। अब उसी झूठ को किसी कपटी कम्युनिस्ट की तर्ज पर 100 या हज़ार बार बोलिए। समाज में वह झूठ तो सच के तौर पर स्थापित होगा ही, बहुत छोटा तबका ही ऐसा होगा जो व्यभिचारी वामपंथियों का सच समझ सके, उनको नकार दे, पूरी तरह।

कम्युनिस्टों का सबसे बड़ा योगदान क्या है, मानवता में? बर्बादी, चौतरफा बर्बादी, तबाही, भुखमरी व नरसंहार।

आप इतिहास देख लीजिए। पूर्व सोवियत संघ से शुरू कीजिए, चीन से होते हुए, क्यूबा, वेनेजुएला होते हुए बंगाल व केरल तक आ जाइए। ये ऐसे दुष्ट हैं कि जहाँ गए, उसको पूरी तरह बर्बाद कर दिया, मनुष्यता को रोने लायक नहीं छोड़ा, मानवता पर आठ आँसू बहाने वाला कोई नहीं बचा।

हालाँकि, और यही हालाँकि महत्वपूर्ण है। आज भी नैरेटिव क्या है? कि, कम्युनिस्ट वे होते हैं, जो समाज की बराबरी के लिए काम करते हैं, दुनिया में सबके हको-हुकूक का झंडा बुलंद करते हैं, धर्मनिरपेक्ष समाज की स्थापना करते हैं, वगैरा-वगैरा। यह नैरेटिव ठीक उसी तरह का है, जैसे इस देश के प्रथम प्रधानमंत्री ‘दुर्घटनावश हिंदू’ जवाहरलाल नेहरू ने इस देश को आधुनिक, विकासमान और महान बनाने का काम किया, जबकि इस देश में भ्रष्टाचार का विष-वृक्ष बोने वाले, निर्लज्ज वंशवाद के संस्थापक, हमारे राष्ट्र को हिंदू-विरोध में फिर से इस्लामिक बनाने की ओर धकेलने वाले अपने नेहरू चाचा ही थे।

उसी तरह का एक और नैरेटिव है कि नक्सली दरअसल गरीबी से लड़ने वाले आदिवासी-वंचित, शोषित-पीड़ित आदि-इत्यादि हैं। उसी तरह कम्युनिस्टों ने एक और नैरेटिव यह बनाया है कि वे बहुत पढ़े-लिखे, बल्कि इस दुनिया के एकमात्र पढ़े-लिखे लोग और जमात के प्रतिनिधि हैं, जो गलती से इस दीन-हीन देश को सौभाग्य पहुँचाने आ गए हैं। वे सत्य के अंतिम प्रतिनिधि से लेकर अल्लाह या जीसस तक कुछ भी हो सकते हैं।

अब देखिए सच क्या है? सच यह है कि कपटी कम्युनिस्टों ने हमेशा इस देश को बाँटने का काम किया है, तोड़ने का काम किया है और झूठ को, कोरे-सफेद झूठ को स्थापित किया है, उसके बाद कूड़े की तरह लिखे कुछ को भी विश्व-साहित्य का महान तत्व निरूपित कर दिया है।

शुरुआत के लिए यही देखें कि वामपंथी उपन्यासकारों – रोमिला, इरफान से लेकर बिपन चंद्र और मुखर्जी तक ने – यह बात बकायदा हम सबको बताई कि आर्यों ने बाहर से आकर इस देश के ‘मूलनिवासियों’ के साथ धोखाधड़ी की। हालाँकि, ये सभी द्वितीयक शोध या भाषा संबंधी उलटबाँसी का परिणाम है, किसी भी उपन्यासकार ने पुरातत्व या प्राथमिक शोध की मदद लेने की जहमत नहीं उठाई।

अब पूरी दुनिया में वह मिथ ध्वस्त हो चुका है, लेकिन आपके पाठ्य-पुस्तकों में वही कूड़ा फैलाया जा रहा है, आपकी कई पीढ़ियों को तो उसी जूठन से लाद दिया गया।

व्यभिचारी वामपंथियों ने अपने कूड़ा-लेखन की मदद से रामायण और महाभारत को मिथक बना दिया, पुराणों को इतिहास-बाह्य करार दिया, हम शुतुरमुर्ग हिंदू पागलों की तरह अपने राम और कृष्ण का ही ‘प्रमाण’ लेने लगे। आत्मघाती जो हैं।

उन्होंने सरस्वती नदी की गाथा को कल्पित सिद्ध कर दिया, पूरी सभ्यता को ही 4000 वर्षों में कसने लगे, अपने यूरोपीय आकाओं की मदद से, जिनका उच्छिष्ट खाकर ये कपटी कम्युनिस्ट और कुकर्मी कॉन्ग्रेसी जीवित रहे, इस देश को लूटते रहे, अब, आप तमाम सबूत इनके मुँह पर मारते रहिए, इनका झूठ दानवाकार बन आपके ही मुँह पर अट्टहास करता रहेगा।

है कोई रणनीति? इनसे निबटने के लिए कभी सोचा भी है, अकादमिक स्तर पर? इस जहर को काटने का कभी ख्याल भी आया है?

लेख का दूसरा हिस्सा यहाँ पढ़ें।
पहला भाग
यहाँ पढें

— व्यालोक पाठक